क़रीब छह साल से मिस्टर मीडिया देश के लाखों पाठकों का पसंदीदा स्तंभ है। अनुमान है कि इस अवधि में लगभग साढ़े तीन करोड़ पत्रकारों, संपादकों,लेखकों, स्तंभकारों, बुद्धिजीवियों ,शिक्षाविदों और सियासतदानों ने इस स्तंभ को गौर से पढ़ा । एशिया में इस मंच पर समकालीन पत्रकारिता को आईना दिखाने वाला सर्वाधिक लोकप्रिय और इतनी लंबी अवधि तक चलने वाला यह अकेला स्तंभ है । इसके स्तंभों पर केंद्रित एक किताब मिस्टर मीडिया हाल ही में प्रकाशित हुई है।यह किताब इन दिनों बेहद चर्चित है ।
मिस्टर मीडिया की दूसरी पारी अब न्यूज़ व्यूज डॉट कॉम के साथ शुरू हो रही है । इस क्रम में पेश है मिस्टर मीडिया की दूसरी पारी की पहली कड़ी ।
राजेश बादल
लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे आ चुके हैं । नई सरकार काम शुरू कर रही है। बीते दस साल में हमें व्यवस्था का बेहद अप्रिय और अलोकतांत्रिक चेहरा देखने को मिला है। हुकूमत ने इस दौरान पत्रकारिता के बड़े वर्ग को अपने ऑर्केस्ट्रा की बेसुरी धुनों पर
नचाया । सैकड़ों पत्रकार सरकार के गुलाम जैसे बने रहे और पत्रकारिता के सरोकारों को भुला बैठे । बदले में उन्हें अपयश मिला।उनके लिए गोदी मीडिया जैसी शर्मनाक श्रेणी रची गई और वे अपनी ही ज़मात में अछूत समझे जाने लगे । इस श्रेणी के अनेक पत्रकार तो प्रचार अभियान को ढंग से कवर तक नही कर पाए । उनकी भूमिका से गुस्साए नागरिकों ने उन्हें दूर तक खदेड़ा । मैने अपनी ज़िंदगी की 48 साल की पत्रकारिता में ऐसे दृश्य कभी नहीं देखे ।अफ़सोस यह है कि बेआबरू होने के बाद भी गोदी पत्रकारों की ज़मात अपना हठी और ज़िद्दी रवैया बदलने को तैयार नहीं है । उनके लिए सख़्त चेतावनी यह है कि ऐसी पत्रकारिता की उनको गंभीर कीमत चुकानी पड़ेगी ।
असल में कोई भी सरकार हो और किसी भी पार्टी की हो,वह अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं करती । वे दिन हवा हुए,जब नेहरू युग के नेता असहमति के सुरों को संरक्षण देते थे और अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की हिफाज़त करते थे। मौजूदा दौर की सरकारों को इससे कोई लेना देना नही है । वे पत्रकारों को बिकने वाला एक घटिया उत्पाद समझती हैं । जो पत्रकार या संपादक इस मीडिया मंडी में नहीं जाते ,उनका उत्पीड़न होता है । आज की सुविधा भोगी जीवन शैली ने उसूलों पर चलने और उनके लिए संघर्ष करने की ललक समाप्त कर दी है। आज दशकों से अपने लिए बेहतर वेतन,नियुक्तिपत्र , ग्रेच्युटी प्रोविडेंट फंड, चिकित्सा सुविधाओं की मांग करते हुए पत्रकारों का कौन सा संगठन आंदोलन करते हुए सड़कों पर उतरा है ।जिनको यह सुविधाएं मिलती हैं,वे कुल पत्रकारों की संख्या का दस फ़ीसदी भी नही हैं । लेकिन नब्बे फीसदी पत्रकारों की कोई परवाह नहीं करता ।लेकिन पत्रकारों के मिजाज़ में आए इस परिवर्तन को कौन समझता है ?
इस बार के चुनाव परिणामों ने एक बार फिर एक्जिट पोल पर सवालिया निशान लगाए हैं। एक्जिट पोल करने वालों को मैं पत्रकारों से अलग नहीं समझता इसलिए कह सकता हूं कि ऐसे चुनाव पूर्व रुझान ज़मीन पर मतदाता के मूड और मिजाज़ का सही प्रतिबिंब नही होते । उन रुझानों के पीछे परिणामों के प्रति पूर्वाग्रह साफ़ दिखाई देता है । बिना प्रमाण के कुछ कहना ठीक नहीं होता ,मगर संदेह उजागर करने में कोई बुराई नही है । संदेह यह है कि क्या ऐसे पूर्वानुमानों के पीछे कोई लेनदेन होता है मिस्टर मीडिया ?