राजेश बादल
मध्यप्रदेश में किसी ग़ुमनाम स्रोत से जारी एक सूची ने इन दिनों हड़कंप मचा दिया है। सूची में क़रीब डेढ़ सौ नाम हैं। यह नाम पत्रकारों के हैं। इसके मुताबिक़ इन पत्रकारों को प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री के कार्यकाल में हर महीने निश्चित रक़म बतौर घूस मिलती थी।मक़सद यह था कि पत्रकार उनके ख़िलाफ़ न लिखें और न बोलें।लंबे समय तक यह रिश्वत मिलती रही।यह पाँच हज़ार से लेकर एक लाख रूपए तक थी।जो जैसा पत्रकार,उसके अनुसार पैसा लो और मुँह बंद रखो।इन पत्रकारों में प्रिंट ,टीवी और डिज़िटल - सोशल मीडिया के पत्रकार शामिल हैं।जानकारी कहती है कि यह पैसा परिवहन विभाग देता था क्योंकि सबसे अधिक घूस इसी विभाग के ज़रिए सरकार तक मिलती है ,ऐसा कहा जाता है। जिन पत्रकारों की छबि इस सूची ने ख़राब की है ,अब वे पुलिस में रपट लिखा रहे हैं। पर , वे भीतर ही भीतर यह भी जानते हैं कि एफ आई आर एक नपुंसक कार्रवाई है। ऐसे मामलों में कभी परिणाम नहीं निकलता।याने उनकी इमेज बिगाड़ने का षडयन्त्र कामयाब।
मैं नहीं कहता कि सारे पत्रकार दूध के धुले हैं। ठीक वैसे ही जैसे कि कोई नेता,अधिकारी,पुलिस वाला,वन विभाग वाला या टैक्स उगाहने वाला दूध का धुला नहीं होता।नेताओं को अधिकारी और अधिकारियों को नेता भ्रष्ट बनाते हैं।लोकतंत्र के इन दोनों स्तंभों को राजनीतिक दल भ्रष्ट बनाते हैं।चंदा बिना लागत का धन्धा की तर्ज़ पर वे अपना घर भरने और चुनाव लड़ने के लिए घूस लेते हैं। पूरा समाज यह जानता है। लेकिन बोलता कोई नहीं।इसी तरह पत्रकारों को भी भ्रष्ट बनाने में सियासत का बड़ा योगदान है। उत्तरप्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री के क़िस्से आज भी सुनाए जाते हैं।इसी तरह मध्यप्रदेश और आंध्र के दो पूर्व मुख्यमंत्री अपनी सियासत चमकाने के लिए पत्रकारों का उपयोग करते रहे हैं।मगर,अच्छे पत्रकारों को बदनाम करने का लाइसेंस तो जैसे सबको मिला हुआ है। पत्रकारों में कुछ प्रतिशत बेईमान होते हैं और भ्रष्ट भी। वे पैसा लेकर तबादले कराते हैं,निलंबन कराते हैं ,बहाली कराते हैं , बड़ी बाज़ारू कंपनियों के काम कराकर कमीशन लेते हैं ,दलाली करते हैं ,चुनाव के दिनों में परदे के पीछे प्रत्याशियों के लिए पैसे लेकर काम करते हैं और वह सब कुछ करते हैं ,जो उन्हें नहीं करना चाहिए। पर ,ऐसे पत्रकारों का प्रतिशत अत्यंत कम है। नेताओं और अफसरों में तो आपको खोजना पड़ता है कि कौन भ्रष्ट या बेईमान नहीं है।क्या ऐसे सड़ांध मारते नेताओं और अधिकारियों को यह हक़ है कि वे चौथे स्तंभ को इस तरह बदनाम करें ?
लेकिन चेतावनी पत्रकारिता के लिए भी है। एक मछली सारे तालाब को गन्दा करती है। पत्रकार बिरादरी को अपने अंदर निगरानी तंत्र विकसित करना पड़ेगा।ऐसे सड़क छाप फ़र्ज़ी लोगों को दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकना होगा ,जो अपने आप को पत्रकार कहते हैं।प्रेस कौंसिल ने बीते दिनों एक क़वायद की थी।मंशा यह थी कि डॉक्टरों ,वक़ीलों या आई ए एस की तरह पत्रकारों के लिए भी पात्रता की न्यूनतम प्रक्रिया निर्धारित हो। पता नहीं , उसका क्या हुआ ? अब एक ऐसे सिस्टम की ज़रूरत है ,जो भ्रष्ट मीडिया कर्मियों को तुरंत ज़िंदगी भर के लिए अयोग्य घोषित करे। यदि हिसाब नहीं किया गया तो गेंहूँ के साथ घुन भी पिसता रहेगा इसलिए अपनी देह से ऐसे भ्रष्ट तत्वों को फ़ौरन बाहर कीजिए मिस्टर मीडिया !