राजेश बादल
मैं चार दिन अरुणाचल में रहकर लौटा हूँ। यहाँ अन्तरराष्ट्रीय साहित्य उत्सव में आया था.इसमें भारत के दिल्ली,महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,बंगाल,असम, छत्तीसगढ़,उत्तर प्रदेश और अरुणाचल समेत, ब्रिटेन,थाइलैंड और हांगकांग के लगभग सौ शब्द सितारों,फ़िल्मों से संबध्द हस्ताक्षरों,पत्रकारों और संपादकों ने शिरकत की. ज़ाहिर है कि दोनों विधाओं के मौजूदा माहौल और उनके भीतर की स्थितियों पर चर्चा तो होनी ही थी.अधिकतर सत्रों में निष्कर्ष के तौर पर निकल कर आया कि अभिव्यक्ति के संसार पर बाज़ार ने गहरी मार की है.इसका असर हमारे सोच पर भी पड़ा है.हमारा समाज अपने रीति रिवाजों, संस्कारों,संस्कृति अतीत और तमाम संवेदनशील विषयों से कटता जा रहा है.अपवादों को छोड़ दें तो हमारी नई पीढ़ी को इस सामाजिक चटकन का एहसास भी नहीं है.पुरानी पीढ़ी के लिए यह तकलीफ़देह अनुभव है.
लौटता हूँ अरुणाचल उत्सव में हुई पत्रकारिता की चर्चा पर।कमोबेश सारी चर्चाओं में निष्कर्ष यह निकलकर आया कि हमारी अभिव्यक्ति की भाषा पर संकट अपने विकराल रूप में है। चाहे वह मुद्रित माध्यम हो ,दृश्य माध्यम हो ,श्रवण माध्यम हो अथवा आधुनिक डिज़िटल माध्यम।नई नस्ल में पढ़ने का संकट है।इसलिए उसके दिमाग़ में शब्दों का भण्डार सूखता जा रहा है। लफ़्ज़ों के अकाल ने अभिव्यक्ति के अंदाज़ को विकृत किया है।अख़बारों के पन्नों पर बोलचाल के खिचड़ी हिंदी -अँगरेज़ी शब्द नज़र आते हैं।टी वी के परदे पर चैनल के एंकर को अपने भाव के मुताबिक़ जब उचित शब्द नहीं मिलते तो वह कैमरे के सामने नाटकीयता या ऊटपटांग की हरक़तें करते दिखाई देते हैं। इसका घातक परिणाम यह होता है कि पत्रकारिता के शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाई कर रहे छात्र अथवा नवोदित पत्रकार इस विकृत और भौंडे अंदाज़ को ही पत्रकारिता का एक रूप मान लेते हैं और अपनी पत्रकारिता का हिस्सा बना लेते हैं।विडंबना है कि जिस आधुनिक संचार तंत्र और उपकरणों ने पत्रकारिता का काम आसान किया है ,उन्ही के कारण पत्रकारों के पढ़ने लिखने की आदत छूट गई है। इस तरह आधुनिक तकनीक की कुल्हाड़ी पत्रकारिता की भाषा पर चल गई है।
यह अप्रत्यक्ष चेतावनी है। इंसान इसलिए समस्त प्राणियों में समझदार समझा जाता है क्योंकि वह अपने विचारों को शब्दों के ज़रिये प्रकट कर सकता है और दूसरे इंसान के साथ संवाद कर सकता है।शनैः शनैः उसके मष्तिष्क में शब्द कम होते जाएँगे। एक स्थिति यह भी आ सकती है कि वह हाव भाव या संकेतों से ही अपनी बात संप्रेषित करने लगे। कह सकते हैं कि कुछ सदियों के बाद इंसान और चौपाया प्राणियों में यह दिलचस्प समानता देखने को मिले। याने वे जानवरों की श्रेणी में आ जाएँ। वास्तव में हम एक गूँगे या मूक युग की ओर बढ़ रहे हैं।इस ख़तरे का कैसे मुक़ाबला किया जाए मिस्टर मीडिया !