राजेश बादल
उत्तरप्रदेश के एक पत्रकार अभिषेक उपाध्याय ने राज्य सरकार की आलोचना की।बौखलाई सरकार ने उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज़ कर कार्रवाई शुरू कर दी। घबराए पत्रकार ने सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली। चार अक्टूबर को आला अदालत ने प्रदेश सरकार को फटकार लगाईं। कोर्ट ने कहा कि किसी पत्रकार के ख़िलाफ़ इसीलिए आपराधिक कार्रवाई नहीं की जा सकती कि वह सरकार की आलोचना करता है। न्यायालय ने टिप्पणी की कि लोक तांत्रिक देशों में अपने विचार व्यक्त करने की आज़ादी का सम्मान किया जाता है।भारतीय संविधान भी अनुच्छेद 19 -1(ए) के तहत प्रत्येक नागरिक को अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता देता है।वह पत्रकारों को कोई अतिरिक्त छूट नहीं देता और न चौथे स्तंभ को कोई विशेष छूट देता है।अभिषेक उपाध्याय को अदालती संरक्षण मिला है तो पत्रकार होने के नाते नहीं,बल्कि भारत का नागरिक होने के नाते मिला है।
जान लीजिए कि अभिषेक ने आख़िर क्या किया था ? उन्होंने एक्स पर एक टिप्पणी पोस्ट की थी। इसका शीर्षक था - यादव राज बनाम ठाकुर राज। ज़ाहिर है कि इसमें बीजेपी की योगी आदित्यनाथ सरकार और अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी सरकार की तुलना की गई थी। इसमें लिखा गया था कि उत्तरप्रदेश में चालीस शिखर पदों पर राजपूत अधिकारी काम कर रहे हैं।चूँकि मुख्यमंत्री राजपूत हैं इसलिए अपनी जाति के अफसरों को विशेष अवसर दे रहे हैं।इसके बाद उन्हें धमकियाँ मिलने लगीं। उनके विरुद्ध -353 (2 ),197 (1सी),302,356 (2 ) और आईटी अधिनियम 2008 की धारा 66 के तहत एफआईआर दर्ज़ कर ली गई।शर्मनाक तो यह है कि प्राथमिकी में योगी आदित्यनाथ को भगवान कहा गया था।
इस मामले में कोई राय बनाने का निर्णय मैं आप सब पाठकों पर भी छोड़ना चाहता हूँ।क्या किसी सरकारी तंत्र को यह लिखने की छूट दी जानी चाहिए कि उसके मुख्यमंत्री भगवान हैं अथवा भगवान जैसे हैं ? और भगवान हैं तो किसी एक ही जाति के लिए होने चाहिए क्या ? आज रामराज्य की दुहाई दी जाती है तो इसका मतलब यह नहीं कि राम एक जाति को संरक्षण देते थे।वे भी राजपूत थे,लेकिन शबरी के जूठे बेर खाते थे,दलित उपमुख्यमंत्री से भेद भाव का नमूना प्रस्तुत नहीं करते थे।राम ने एक धोबी से अपनी आलोचना सुनी,फिर भी अभिषेक उपाध्याय जैसी कार्रवाई धोबी के ख़िलाफ़ नहीं की।वे तो सर्वशक्तिमान थे।वे क्या नहीं कर सकते थे।आलोचना सुनकर अपने राज की कमियाँ सुधारना ही अच्छे नेता का लक्षण है।निन्दक नियरे राखिए यूँ ही नहीं कहा गया है।भारत जैसे राष्ट्र के प्रशासन संचालन के लिए गीता जैसा यहाँ का संविधान है।इसकी शपथ लेकर ही आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद पर बैठे हैं।
एक ज़माने में इंदिरा गांधी जैसी सशक्त प्रधानमंत्री ने अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने का खामियाज़ा भुगता था। जगन्नाथ मिश्र जैसे ताक़तवर मुख्यमंत्री ने बिहार प्रेस बिल लाकर उसका परिणाम भुगता था। योगी आदित्यनाथ तो इंदिरा गांधी के सामने कुछ नहीं हैं। क्या वे इस कड़वी हक़ीक़त को स्वीकार करेंगे ? मीडिया तो हमेशा अभिव्यक्ति की आज़ादी की राह पर चलता रहेगा।मुख्यमंत्री आएँगे -जाएँगे,कलयुगी भगवान आएँगे-जाएँगे।पत्रकारिता तो अपना चाबुक आप पर चलाती रहेगी।डरने की आवश्यकता नहीं है मिस्टर मीडिया !