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Added on : 2024-09-28 12:05:32

राजेश बादल 
हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इस बार अपने त्रिविधा कार्यक्रम में मेरी पुस्तक सदी का संपादक - राजेंद्र माथुर पर एक चर्चा रखी तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। आजकल गंभीर विषयों पर लिखी गई पुस्तकों को पढ़ने वाले ही न के बराबर हैं तो उन पर चर्चा करने वाले कितने होंगे ,यह सोचकर मैं बहुत उत्साहित नहीं था। लेकिन आश्चर्य हुआ जब इस कार्यक्रम में अनेक ऐसे लोग भी पहुँचे ,जिनके बारे में मैंने सोचा भी नहीं था। देश के चोटी के हिंदी समालोचक डॉक्टर विजय बहादुर सिंह ,शीर्षस्थ कथाकार उर्मिला शिरीष ,वरिष्ठ कथाकार शशांक ,जाने माने कवि ,संपादक डॉक्टर सुधीर सक्सेना और 75 साल से फोटोग्राफ़ी कर रहे सदी के छायाकार जगदीश कौशल जैसे बौद्धिक प्रतिनिधि भी उसमें शामिल हुए। 
लेकिन बात सिर्फ़ शामिल होने की नहीं है। उपस्थित पाठकों ने यह सवाल उठाकर सभी को झिंझोड़ दिया कि आजकल संपादक ही कहाँ बचे हैं ? जो हैं ,वे संपादक कम ,मैनेजर अधिक हैं .इस प्रश्न के उत्तर में सन्नाटा था और कोई भी मौजूदा दौर के संपादकों की तरफदारी करता नज़र नहीं आया। डॉक्टर सुधीर सक्सेना ने सदी के संपादक राजेंद्र माथुर को याद करते हुए विमर्श को एक गंभीर मोड़ दे दिया।उन्होंने कहा कि आज के दौर में हमें अनेक राजेंद्र माथुर चाहिए। तब कहीं संपादक नाम की संस्था की गरिमा लौटेगी। उनका ख़्याल था कि आज बाज़ार और सियासत ने पत्रकारिता पर करारा हमला बोला है।इस आक्रमण के आगे निष्पक्ष और संतुलित पत्रकारिता ने समर्पण कर दिया है। आज के संपादक प्रबंधकों के हित के लिए काम करते हैं। अख़बार के लिए नहीं। राजेंद्र माथुर जैसे चमकीले संपादक आज इसीलिए चाहिए। 
बात सच है।संपादक एक ऐसा मस्तूल है ,जो पत्रकारिता के जहाज़ की दिशा निर्धारित करता है। आज लगता है कि जहाज़ अपने आप बहकते हुए चल रहा है ,जिसका कोई नाविक ही नहीं है। कोई अज्ञात रोबोट उसे खींचते हुए ले जा रहा है। इस रोबोट को पत्रकारिता के जहाज़ में बैठे मुसाफिरों की फ़िक्र नहीं है। ख़ेद की बात यह कि यात्रियों को भी यह चिंता नहीं है। राजेंद्र माथुर इन्ही यात्रियों के लिए उपभोक्ता आंदोलन छेड़ने की बात करते थे। जब संपादक नाम की संस्था ग़ैर ज़िम्मेदार और लापरवाह हो जाए तो कोई तो हो ,जो उसके कान उमेठे। संपादक को निरंकुश होने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। वे कहते थे कि यदि अख़बार एक प्रोडक्ट है तो उसे पढ़ने वाले भी उपभोक्ता ही हैं। एक उपभोक्ता को अपना शोषण क्यों होने देना चाहिए। बल्कि उसे तो ग़ैर ज़िम्मेदार और पाठकों के हित का ध्यान नहीं रखने वाले संपादकों के विरुद्ध न्यायालय में मामला ले जाना चाहिए। महात्मा गांधी बहुत बड़े संपादक थे। वे भी हमेशा अवाम के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी की बात करते थे।मूर्धन्य पत्रकार - संपादक माखन लाल चतुर्वेदी ने तो कर्मवीर की संपादकीय नीति को प्रकाशित किया था। उसमें पाठकों के लिए पूरी तरह समर्पित होने की बात कही गई थी। वे तो विज्ञापन छपने के ख़िलाफ़ थे। आज की स्थिति इसके उलट है। आज संपादक विज्ञापनों के लिए लार टपकाते दिखाई देते हैं। इस हालात को बदलने की आवश्यकता है मिस्टर मीडिया !

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