राजेश बादल
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर हम एक घिनौना काल देख रहे हैं ।स्वतंत्रता के बाद से ही भारतीय पत्रकारिता के अंदर भी तमाम वैचारिक धाराओं के पत्रकार और संपादक रहे हैं । वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की तरफ़ झुकाव वाले थे और वामपंथी भी ।वे समाजवादी विचारधारा से प्रेरित भी थे और कांग्रेस के प्रति आस्था रखने वाले भी थे ।इसके बावजूद हम लोग साठ - पैंसठ साल तक साथ काम करते रहे और एक दूसरे का उमर,योग्यता तथा पद के आधार पर सम्मान करते रहे ।हमें साथ साथ काम करते समय पता होता था कि कौन किस विचारधारा के सहानुभूति रखता है। लेकिन कभी भी टकराव की स्थिति नहीं बनी। यही परिपक्व लोकतान्त्रिक समझ होती है। जब संपादक या संवाददाता की कुर्सी पर बैठते थे तो एकदम जैसे विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठते थे। विचारधारा ताक पर और सामाजिक -राष्ट्रीय सरोकार सबसे पहले। आज के नए पत्रकारों को सुनने में यह अटपटा लग सकता है ,मगर यह हक़ीक़त है। लेकिन बीते दस पंद्रह साल में पत्रकारिता में ऐसे ज़हरीले बीज बोए गए हैं ,जिनकी फसल अब इस पेशे को ही नष्ट करने पर उतारु है। एक बँटवारा हो चुका है दिल और दिमाग़ में। विडंबना यह कि सरकारी महकमें भी इन विषाक्त बीजों का शिकार बन गए हैं।
इसका ताज़ा नमूना हाल ही में देखने को मिला। मध्यप्रदेश सरकार लड़कियों को समान अवसर और अधिकार को ध्यान में रखकर हर बरस बिटिया उत्सव करती है। यूनिसेफ़ जैसे अनेक ग़ैर राजनीतिक संस्थाएँ इसमें मदद देती हैं।इस साल यह उत्सव दस और ग्यारह मार्च को ग्वालियर में होना था। महिला और बाल विकास विभाग इसका आयोजन कर रहा था। इसमें प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर कई जानकारों , विचारकों , पत्रकारों ,संपादकों और गांधीवादी चिंतकों को आमंत्रित किया गया था। पर ,आयोजन के दो तीन दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक की विचारधारा से समर्थित एक दैनिक ने लंबी चौड़ी ख़बर प्रकाशित कर दी। इसका सार यह था कि इस आयोजन में ऐसे लोग बुलाए जा रहे हैं ,जो बीजेपी और प्रधानमंत्री की आलोचना करते हैं,वाम विचार से प्रेरित हैं तथा विवादास्पद रहे हैं। कुछ सरकारी अफसरों पर भी उँगलियाँ उठाई गई थीं। मामला संघ का था। इसलिए मुख्यमंत्री को दख़ल देना ही था। फ़रमान जारी हुआ कि बिटिया उत्सव ही रद्द कर दिया जाए।अंतिम क्षणों में इसे रद्द कर दिया गया।
यह बहुत गंभीर बात नहीं है कि एक सरकारी कार्यक्रम किसी वजह से अचानक नहीं हो। यह तथ्य भी गंभीर नहीं है कि आयोजन पर हो चुका ख़र्च जनता का पैसा है और राजनेताओं को इस पैसे की फ़िक्र नहीं होती।गंभीर और महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस कारण को रद्द करने का आधार बनाया गया ,वह क्या था ? यह इसको रेखांकित करता है कि लोकतांत्रिक सरकार सिर्फ़ एक नज़रिए से मसलों को देखती है।उसकी दृष्टि में यह अनावश्यक है कि एक ग़ैर राजनीतिक कार्यक्रम में सियासत नहीं ठूँसनी चाहिए। ख़ासतौर पर महिला दिवस पर।आधी आबादी के मसले भी क्या सियासी भेदभाव का विषय होना चाहिए ?
बहरहाल ! यह राजनीतिक और सरकार का विषय है। मेरा निवेदन तो पत्रकार बिरादरी से है कि कृपया राजनेताओं की संकुचित विचारधारा से अपने को दूर रखें। पहले ही यह पत्रकारिता को बाँट चुकी है। अब और कितना बाँटेगी ? यदि हमने अपना घर ठीक नहीं किया तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगीं मिस्टर मीडिया !