राजेश बादल
शर्मनाक़।बेहद घटिया और बेहूदा व्यवहार।क्या किसी राष्ट्रीय प्रकाशन-प्रसारण समूह को यह हक़ है कि वह अपने स्टूडियो में वरिष्ठ पत्रकार-संपादक को पॉलिटिकल डिबेट में बतौर मेहमान( गेस्ट )बुलाए और बाक़ी मेहमानों से घेराबंदी करा कर आक्रमण करे,लांछित करे और अपमानित करे ? मामला लगभग 35 बरस से पत्रकारिता कर रहे आज तक के पूर्व संपादक ,आई बी एन चैनल के पूर्व संपादक और सत्य हिंदी के मालिक तथा संपादकीय प्रमुख आशुतोष का है। उन्हें टाइम्स नाउ चैनल में बाक़ायदा गेस्ट के रूप में अन्य मेहमानों के साथ बुलाया गया।चर्चा शुरू होते ही पैनल में शामिल अन्य मेहमान आशुतोष पर टूट पड़े।उनकी टिप्पणियाँ पूर्वाग्रह से प्रेरित थीं और किसी भी ज़िम्मेदार संपादक को भड़कने का अवसर देती थीं।आवेश और आवेग में दो मेहमान चरित्र हनन की सारी सीमाएँ पार कर बैठे।एक मेहमान आशुतोष को चिल्लाकर बार बार फर्ज़ी पत्रकार कह रहे थे तो दूसरी मेहमान आशुतोष के कांग्रेस नेताओं से गोपनीय मुलाक़ात करने को सनसनीखेज़ ढंग से परोस रही थीं।एंकर आशुतोष को विद्रूप ढंग से भोला कह रही थीं।यह एक कार्यक्रम संचालक का पेशेवराना बरताव नहीं है।हालाँकि परदे पर उन्होंने उत्तेजित वातावरण में शांति घोलने का प्रयास करने का अभिनय बख़ूबी किया।
पर,मुझे तो यह शो आशुतोष के विरुद्ध गोदी मीडिया का षड्यंत्र समझ में आया।मैं इसलिए कह रहा हूँ कि हर चैनल की अपनी अघोषित आचार संहिता होती है।उसके तहत बेहूदगी और अभद्रता जब सीमा पार करने लग जाए तो ब्रेक ले लिया जाता है।लेकिन यहाँ चैनल ने ऐसा नहीं किया।दर्शक यह समझ रहे थे कि शो का सीधा प्रसारण हो रहा है।मगर,ऐसा नहीं था।यह शो तो रिकॉर्ड किया गया था,जिसे बाद में संपादित करके दिखाया जाना था।चैनल को मर्यादा का पालन करते हुए शो का प्रसारण रोक देना चाहिए था।क्योंकि उसमें घटिया और स्तरहीन प्रदर्शन था।पत्रकारिता के किसी भी पैमाने पर ऐसे शो के प्रसारण की इजाज़त नहीं दी जा सकती।अलबत्ता सीधे प्रसारण में कुछ ऐसा घट जाए तो बहाना बनाया जा सकता है कि चलते शो में अचानक ही सब कुछ घट गया।लेकिन शो जब रिकॉर्ड किया गया था,तो उसे रोकने का पूरा अधिकार चैनल को था,जो उसने नही किया।इसका सीधा मतलब यह है कि रिकार्डेड शो का प्रसारण करके या तो चैनल टीआरपी बटोरना चाहता था या फिर इस प्रसारण को सार्वजनिक करके किसी अदृश्य शक्ति के समक्ष अपनी निष्ठा का प्रदर्शन करना चाहता था।सच जो भी हो,इस घटना ने टीवी पत्रकारिता में एक कलंकित कथा लिख दी है।
यहाँ प्रश्न पार्टी प्रवक्ताओं के बरताव का भी है।स्टूडियो में लकदक होकर जाने से ही कोई प्रवक्ता ज्ञानवान नहीं हो जाता।अपने तर्कों से आप दर्शक को संतुष्ट करने का प्रयास करें तो बात समझ में आती है,लेकिन दूसरे गेस्ट को सड़क छाप या फर्ज़ी कहने का हक़ आपको नहीं है।जब आप ऐसी टिप्पणियाँ करते हैं तो स्पष्ट होता है कि आप मानसिक तौर पर दिवालिया होने के कग़ार पर हैं।कोई भी पार्टी हो,उसे अपने प्रवक्ताओं को शान्ति और सलीक़े से बात रखने का कौशल सिखाना चाहिए।चैनलों के स्टूडियो को अखाड़ा बनाने का काम पार्टी प्रवक्ताओं को नहीं करना चाहिए।
अंत में एक सुझाव आशुतोष के लिए है।वे गोदी मीडिया के आलोचक हैं।यह तथ्य छिपा हुआ नहीं है।अपनी किरकिरी कराने के लिए उन्हें किसी चैनल के स्टूडियो में क्यों जाना चाहिए ? वे स्वयं सत्य हिंदी चैनल के मालिक और संपादक हैं।अपनी बात रखने के लिए किसी वैचारिक प्रतिद्वंद्वी चैनल में क्यों कर जाना चाहिए ? क्या आज तक के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह कभी ज़ी टीवी के मंच पर जाते थे ? क्या अरुण पुरी कभी एनडीटीवी में बहसों मेँ हिस्सा लेने जाते थे ? क्या आई बी एन का चैनल प्रमुख रहते हुए स्वयं आशुतोष आज तक की बहसों में जाते थे ? क्या वे अपने स्टाफ के पत्रकारों को भी अन्य टीवी चैनलों में जाने की छूट देंगे ? शायद नहीं। यह जानते हुए कि अमुक चैनल गोदी धारा का प्रतिनिधित्व करता है,आशुतोष को अपमानित होने के लिए क्यों जाना चाहिए ? जब इस देश का मीडिया गोदी-विरोधी और गोदी -धारा में बँट चुका है तो यह घटना सन्देश है कि आपस में एक दूसरे पर तलवार लेकर चढ़ाई नहीं करना चाहिए मिस्टर मीडिया !