राजेश बादल
हाल ही में पत्रकारों के एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार और नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव ने पत्रकारिता की वर्तमान दशा और दिशा पर गंभीर चिंता प्रकट की। नवभारत टाइम्स मुंबई के संपादक रह चुके विश्वनाथ जी का कहना था कि दरअसल लोक की चिंता करना ही पत्रकारिता का धर्म है।लेकिन इन दिनों आम आदमी के सरोकार उसकी पत्रकारिता से ग़ायब हैं।वह लोकतांत्रिक मूल्यों को नहीं,बल्कि सामंती सोच को स्वर दे रही है। यह एक ख़तरनाक़ संकेत है।इसी जलसे में राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश पर केंद्रित ग्रन्थ पत्रकारिता का लोकधर्म का लोकार्पण हुआ।हरिवंश ने विश्वनाथ सचदेव जी की चिंताओं से सहमति जताई,लेकिन उन्होंने इस पेशे में विचार के स्थान पर तकनीक के हावी होने को ज़िम्मेदार बताया। पत्रकारिता के तीर्थ भोपाल के सप्रे संग्रहालय में हुए इस कार्यक्रम में संस्थापक संयोजक पदमश्री पत्रकार विजयदत्त श्रीधर ने पत्रकारिता के इस संक्रमण काल में ऐसे संस्थानों की भूमिका का महत्त्व बताया।
लेकिन असली सवाल विश्वनाथ सचदेव की चिंता का है। क्या पत्रकारिता अब लोक के स्थान पर सत्ता का ध्यान रखने लगी है ? क्या सत्ता अब उसे पूँजी की धुरी पर नचा रही है ?क्या संपादक और संवाददाता अपने मालिकों और अपने स्वार्थों की रक्षा करने में लगे हैं ? क्या वे अब सियासी पार्टियों के समर्थक और विरोधी धड़ों में बँट गए हैं ? क्या निष्पक्ष,संतुलित और साहसी पत्रकारिता के लिए अब कोई स्थान नहीं बचा है ? यह सारे प्रश्न अब समाज के बौद्धिक तबके की बहसों में छाए हुए हैं।जब मुख्यधारा की पत्रकारिता अपनी पटरी से उतर गई,तो उसका स्थान वैकल्पिक मीडिया ने ले लिया। महारानी की जगह पटरानी ने ले ली। अब महारानी लाख सिर पटक ले,उसका पुराना स्थान मिलने वाला नहीं है।डिज़िटल और सोशलमीडिया के तमाम अवतार जो पत्रकारिता कर रहे हैं ,उसने अवाम के दिलों में भरोसा जगाया है। बेशक़ ,वे सत्ता प्रतिष्ठान के घनघोर आलोचक बनकर उभरे हैं। पर,उनकी यह उपस्थिति चारण और भाट परंपरा की पत्रकारिता से हज़ार गुना बेहतर है।
दरबारी पत्रकारिता तो असल में पत्रकारिता ही नहीं है।जो आम आदमी के दुःख दर्द और मसलों के प्रति संवेदन शील नहीं है,उसे आप पत्रकारिता कैसे कह सकते हैं ? प्रजा के मुद्दों को अपनी आवाज़ से मिलाने में यदि सरकार ख़फ़ा भी हो तो हो। उसकी फ़िक्र करने की पत्रकार और संपादक को आवश्यकता नहीं है। केवल हिंदी के डिज़िटल मंचों का सामान्य औसत निकालें तो इन दिनों लगभग15 करोड़ से अधिक सब्सक्राइबर हैं। इन मंचों पर ख़बरिया चर्चाओं को देखने - सुनने वाले साठ से सत्तर करोड़ लोग हैं और आप उनके प्रतिदिन की टिप्पणियों को आम आदमी का स्वर मानें तो कह सकता हूँ कि कोई दस से पंद्रह करोड़ लोग मुखरता से अपनी बात रखते हैं।क्या अब भी आप उन्हें वैकल्पिक मीडिया का हिस्सा मानेंगे ? इन मंचों का सबसे ताक़तवर पक्ष यह है कि इसमें सहमति और असहमति के सुरों को व्यक्त करने की आज़ादी है और उसका लाभ करोड़ों लोग उठाते हैं। क्या स्वयंभु मुख्यधारा के मीडिया में ऐसी स्वतंत्रता किसी पाठक या दर्शक को मिलती है ? किस समाचार पत्र में प्रसार के मान से संपादक के नाम पत्र स्तंभ को जगह मिलती है ? एक दौर में राजेन्द्र माथुर जैसे प्रतापी संपादक संपादकीय पन्ने पर आधे पृष्ठ तक में पाठकों की राय प्रकाशित करते थे। दूरदर्शन तक अपने प्रसारणों में आपकी चिठ्ठियाँ जैसा स्तंभ प्रसारित करता था। इसमें दर्शक समाचार बुलेटिनों की गुणवत्ता पर सीधा प्रहार करते थे।लेकिन क्या किसी निजी टीवी चैनल में आप देखने वालों की नुमाइंदगी पाते हैं ? यह भी एक क़िस्म से सामंती सोच है कि जो सामग्री मैं दर्शक या पाठक को दिखाऊँगा या पढ़ाऊँगा ,उसका निर्णय मैं स्वयं करूँगा। इसमें उनकी भागीदारी नहीं होगी।यह तो राजसी वृति हुई न ?
इस देश में अब एक सजग और सतर्क दर्शक - पाठक आंदोलन की ज़रुरत है।यह आन्दोलन अपनी क्रांतिकारी हाज़िरी से मालिकों और पत्रकारिता के मठाधीशों के कान उमेठे और चिल्ला चिल्ला कर कहे - सुधर जाओ मिस्टर मीडिया !