हमें शर्मसार करती दो घटनाएं
राजेश बादल
विचलित हूं ।दो ख़बरें मिलीं हैं ।एक महाराष्ट्र से और दूसरी मध्यप्रदेश से ।महाराष्ट्र की उप राजधानी नागपुर में एक बड़े राष्ट्रीय अख़बार समूह के एक संवाददाता को एक समाचार के सिलसिले में उसने दस लाख रुपए की घूस माँगी थी। उसमें से बतौर एडवांस एक लाख रूपए लेते हुए पकड़ा गया ।अब वह पुलिस हिरासत में है। पता चला है कि अनेक विभागों से वह पत्रकारिता की धौंस जमाकर वसूली किया करता था। इस मामले मेंकुछ और पत्रकार भी उसके साथ थे। दूसरी घटना मध्यप्रदेश की है। एक अन्य बड़े समाचार पत्र समूह के स्थानीय संपादक और उनके साथ तीन अन्य पत्रकारों को एक नाबालिग के साथ अत्याचार की ख़बर में पहचान उजागर करने के लिए न्यायालय ने पाक्सो क़ानून के तहत दोषी माना । सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत पहले ही यह व्यवस्था दी थी कि किसी भी अवयस्क के साथ दुष्कृत्य या अन्य किसी किस्म के अत्याचार के मामले में किसी भी कीमत पर उसकी पहचान गुप्त रखना ज़रूरी है ।इस मामले में ऐसा नहीं हुआ ।
दोनों घटनाओं की प्रकृति और चरित्र अलग अलग है ।लेकिन दोनों घटनाएं ही पत्रकारिता को शर्मसार करने वाली हैं । अफ़सोस यह भी है कि ये निंदनीय घटनाएं हिंदी पत्रकारिता से निकलकर आई हैं ।अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी पत्रकारिता में इन दिनों संवाददाताओं के तौर तरीक़े सवालिया नज़रों का निशाना बनते रहे हैं। पर यह दोनों तो सीमा के बाहर जा चुके हैं। यह इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि अब आचार संहिता के मामले में प्राथमिकता से निर्णय लेना चाहिए। लंबे समय से पत्रकारिता के लिए आचार संहिता की ज़रूरत समझी जा रही है। कुछ अवसरों पर सरकार की ओर से इस मामले में पहल करने का प्रयास किया गया ,किन्तु पत्रकार संगठनों ने इसका भरपूर विरोध किया। संगठनों का सोचना था कि सरकारी आचार संहिता लागू होगी तो उस पर अंकुश या एक क़िस्म की सेंसरशिप का मौका हुकूमत को मिल जाएगा। सरकार भी विरोध को देखकर पीछे हट गई। तब समाचारपत्रों के संपादकों और पत्रकार संगठनों ने यह भरोसा दिलाया कि वे अपनी ओर आचार संहिता बनाएँगे। इसके बाद पत्रकारिता में पनप रही कुरीतियों पर क़ाबू पाया जा सकेगा। तबसे आज तक कुछ नहीं हुआ। मैं 48 बरस से पत्रकारिता में हूँ और तब से यही सुनता आ रहा हूँ कि समाचारपत्र ,टीवी और रेडियो पत्रकार अपनी संहिता लगाकर ख़ुद पर अनुशासन की लगाम लगाएँगे। ऐसा कब होगा ? नहीं जानता। लेकिन यदि नागपुर और इंदौर जैसी शर्मनाक घटनाएँ होती रहीं तो अब कहीं न कहीं से नकेल डाली जाएगी। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तो अपनी कई व्यवस्थाओं में अनगिनत बार पत्रकारिता की आलोचना कर चुके हैं। पत्रकार हैं कि हम नहीं सुधरेंगे वाले अंदाज़ में काम करते जा रहे हैं।
तो अब क्या किया जाए ? एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया यह काम अपने हाथ में ले अथवा प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया इस ज़िम्मेदारी को निभाए या फिर तमाम संगठनों का कोई एक महासंघ इसे करे। करना तो होगा। एडिटर्स गिल्ड के साथ मुश्किल यह है कि वह अँगरेज़ियत से मुक्त नहीं हो पा रही है।उसे अपने विशिष्टता बोध से उबरने की आवश्यकता है। प्रेस कौंसिल की बाधा यह है कि उसके दायरे में टीवी ,रेडियो और डिज़िटल मीडिया नहीं आता। सरकार को उसके कार्यक्षेत्र में विस्तार करना होगा। जहाँ तक पत्रकारों के संगठनों की बात है तो वे अपने ही अस्तित्व से जूझ रहे हैं। अपने अंतर्विरोधों से वे लड़ रहे हैं। याने इस मामले में ले देकर अब सरकार ही बचती है। सरकारी आचार संहिता किसी को स्वीकार नहीं होगी ,भले ही पत्रकारिता रसातल में चली जाए। यह विकट स्थिति है। साँप और छछूंदर जैसी स्थिति है। अब भी अपने आप को सुधार लो मिस्टर मीडिया !