राजेश बादल
जब एक्ज़िट पोल के रुझानों ने भारतीय जनता पार्टी को झटका दिया था ,तब कांग्रेस को भी शायद ऐसी जीत की उम्मीद नहीं थी ।लेकिन नतीजे आए और खूब आए । सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी की शायद ही किसी राज्य में ऐसी करारी हार हुई हो । दोनों बड़ी पार्टियों के लिए कर्नाटक के परिणाम बड़ा गहरा संदेश लेकर आए हैं । इस संदेश की उपेक्षा अगले लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियों पर भारी पड़ सकती है ।
पहले भारतीय जनता पार्टी की बात करते हैं ।
बीजेपी को अब यह स्वीकारना होगा कि नरेंद्र मोदी हर ताले की चाबी नही हैं । आठ नौ बरस में पार्टी और सरकार सिर्फ़ दो व्यक्तियों के इर्दगिर्द आकर सिमट गई है । इस दल में अब राष्ट्रीय अध्यक्ष को भी परिपत्र जारी करके कार्यकाल बढ़ाने की सूचना दी जाती है। ज़ाहिर है कि इससे यह संदेश जाता है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष से भी ऊपर कोई है और पार्टी के भीतर ही लोकतंत्र नहीं है।कर्नाटक चुनाव में करारी शिकस्त के कारण कोई तिलिस्मी परदे में नहीं छिपे हैं। पार्टी नियंताओं ने पहले तो राज्य के नेताओं की उपेक्षा की,अपमानित किया। बाद में ग़लती का अहसास हुआ तो उन्हें बाजू में बिठाया। लेकिन अपमान का दंश कोई नहीं भूलता।जमकर भितरघात हुआ। प्रदेश में पार्टी इसीलिए निपट गई। दूसरी बात दक्षिण में बीजेपी की यह इकलौती सरकार थी ,इसलिए बाक़ी दक्षिणी प्रदेशों के सामने इस राज्य को सुशासन का मॉडल बनाया जाना चाहिए था। वह नहीं हुआ। राज्य सरकार भ्रष्टाचार में डूबी रही। प्रदेश के मसलों को गंभीरता से नहीं लिया गया। ऊपर से मंहगाई और बेरोज़गारी से निपटने में डबल इंजिन की सरकारें नाकाम रहीं। इसके अलावा बीजेपी को यह समझना होगा कि अब धर्म के आधार पर ही वोट नहीं मिलते। आधुनिक भारत का मतदाता काम भी देखता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि विकास के मामले में सारी बीजेपी सरकारें फिसड्डी साबित हुई हैं। उनका कोई विज़न नहीं है। वे केंद्र के अलावा विधानसभा चुनाव भी प्रधानमंत्री के नाम पर जीतने की इच्छा रखती हैं।यह सोच की विकलांगता है और लोकतंत्र की समझ नहीं होने का सुबूत है।
दूसरी ओर कांग्रेस की शानदार जीत की वजहें भी एकदम साफ़ हैं। पहला सबसे बड़ा कारण राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का कर्नाटकवासी होना है। आज भी उनके नाम की राज्य में प्रतिष्ठा है। उनकी साख ने मतदाताओं के सामने कांग्रेस का कन्नड़ संस्करण प्रस्तुत किया। वैसे तो जेडीएस के रूप में भी एक स्थानीय कन्नड़ संस्करण मतदाता के सामने था ,लेकिन काम के मामले में उसकी वह साख़ नहीं थी। लोग उस क्षेत्रीय पार्टी से ऊबे हुए थे।कन्नड़ मतदाता के सामने स्थानीय और राष्ट्रीय मसले दोनों ही थे। स्थानीय मुद्दों पर वह जेडीएस पर भरोसा नहीं कर रहा था और राष्ट्रीय मसलों पर बीजेपी नाकाम रही थी। ले देकर कांग्रेस ही बचती थी। खड़गे के चेहरे को डी के शिवकुमार तथा सिद्धारमैया की जोड़ी ने मज़बूती प्रदान की।राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा तथा प्रियंका गांधी की तूफानी सभाएँ काम कर गईं। कर्नाटक चुनाव में जीत कांग्रेस के लिए एक बड़ा सन्देश लेकर आई है। अब उसे यह ध्यान रखना होगा कि उसे राज्यों में अपने संगठन को मज़बूत करना होगा। आने वाले दिनों में मध्य प्रदेश ,छत्तीसगढ़ और राजस्थान में यदि उसने संगठन पर ध्यान दिया तो इन राज्यों में भी उसकी जीत पक्की है। मध्यप्रदेश और राजस्थान में अभी भी संगठन अनेक गुटों में विभाजित है और वे एक नहीं हो रहे हैं। हर हाल में कांग्रेस को अपना घर ठीक करना ही होगा।
जहाँ तक जेडीएस की बात है तो अब उसका सब कुछ दाँव पर है। उसके अस्तित्व का सवाल है। जो गति बिहार में नीतीश कुमार के दल की हुई ,वही उसकी भी होगी। असल में क्षेत्रीय पार्टियों के लिए अपने निजी हित ही सर्वोपरि होते हैं। वैचारिक आधार उनके लिए कुछ नहीं होता। जहाँ भी उनके स्वार्थ सधते हैं ,वे बेपैंदी के लोटे की तरह लुढ़क जाते हैं। इसलिए जेडीएस के बहाने भारत के सारे क्षेत्रीय दलों के लिए यह सन्देश और चेतावनी है कि उनका सियासी अस्तित्व तभी है ,जबकि वे सिद्धांतों और सरोकारों की सियासत करें। उन्हें समझना होगा कि भारतीय लोकतंत्र अब परिपक्व हो रहा है।अधिक समय तक मतदाताओं को बेवकूफ़ नहीं बनाया जा सकता।