डा.लोहिया: जिन्होंने गांधी को पढ़ा भगत सिंह को जिया
जयराम शुक्ल
राजनीति ऐसा तिलस्म है कभी सपनों को यथार्थ में बदल देता है तो कभी यथार्थ को काँच की तरह चूर चूर कर देता है। काँग्रेसमुक्त भारत की सोच डाक्टर राममनोहर लोहिया की थी। आज देश लगभग कांग्रेस मुक्त है पर लोहिया मुखपृष्ठ पर नहीं हैं। आज 23 मार्च को जहाँ भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के शहादत का दिन है तो देशप्राण डाक्टर राममोहन लोहिया की जयंती भी। 1967 में उत्तरप्रदेश में चरण सिंह चौधरी की सरकार के जरिये लोहिया ने गैरकांग्रेस सरकार की ओर पहला कदम बढाया था जिसे दस साल बाद 77 में जयप्रकाश नारायण ने परिणति तक पहुँचाया।
सन् अस्सी तक लोहिया छात्रों और युवाओं के आईकान बने रहे। मोटी खादी का बेतरतीब कुर्ता, नीचे पैंट या पाजामा, मोटे फ्रेम का चश्मा बिना कंघी किए बाल कुलमिलाकर यही लोहिया कल्ट था जो डीयू, बीएचयू से लेकर अपने शहर की यूनिवर्सिटी व कालेज तक चल निकला। कुछ-कुछ गांधी, कुछ-कुछ भगत सिंह यही मिलीजुली छवि उभरती थी लोहिया जी की। कालेज के दिनों ..धर्मवीर भारती का उपन्यास.. गुनाहों का देवता.. पढ़ा था। उपन्यास का केंद्रीय पात्र चंदर समाजवादी है। उपन्यास की कथा में वह रीवा के समाजवादी आंदोलन में भाग लेने का जिक्र करता है। पढकर मुझे इस बात की गर्वानुभूति हुई कि रीवा की देशव्यापी पहचान समाजवदियों की वजह से बनी हुई है।
गांधी के मुकाबले लोहिया के विचारों ने साहित्यकारों को ज्यादा मथा। गांधी और लोहिया में उतना ही भेद देखता हूँ जितना कि राम और कृष्ण में। एक मर्यादाओं से बँधा दूसरा मर्यादाओं को तोड़ने को हर क्षण उद्धत।
इलाहाबाद का 'परिमल' लोहियावादी ही था। धर्मवीर भारती और उनकी मंडली पर गहरी छाप दिखती है, व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में। नेहरू के इलाहाबाद में ये लोहिया का वैचारिक दस्ता था। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, जैसे यशस्वी संपादक भी लोहिया के समाजवाद से पगे थे। ओंकार शरद तो ल़ोहिया की छाया बन गए।
साठ से सत्तर दशक का जितना साहित्य रचा गया उसमें लोहिया की छाप थी। लोहिया खुद साहित्यकारों के प्रेमी थे। हैदराबाद के सेठ बद्रीविशाल पित्ती जो..कल्पना..निकालते थे, लोहिया के बड़े मुरीद थे। उनके कहने पर मकबूल फिदा हुसैन जैसे न जाने कितने कलासाधकों व साहित्यकारों को उनके यहां से पगार जाती थी। फिदा हुसैन देवी देवताओं की कुख्यात नग्न पेंटिंग्स का विरोध झेलते हुए निर्वासित जीवन में मर गए। पर लोगों को यह भी जानना चाहिए कि लोहिया के आदेश पर उन्होंने रामकथा की एक पूरी पेंटिंग्स सीरीज़ ही रची थी। शायर शम्शी मीनाई तो इतने प्रिय थे कि एक बार लोहिया ने नेहरू को निशाने पर लेते हुए लोकसभा में उनकी पूरी की पूरी नज्म ही सुना दी..वह क्या थी कि...
..."सबकुछ है अपने देश में रोटी नहीं तो क्या,
वादा लपेट लो लँगोटी नहीं तो क्या..।
पत्रकारों के लिए तो लोहिया जी हर वक्त ब्रेकिंग रहते थे। फरूखाबाद से 1963 के लोकसभा उपचुनाव में जीतकर दिल्ली पहुंचे तो एक अखबार की सुर्ख खबर थी ..कि नेहरू सावधान ..काँच के मकान में सांड घुस चुका है। वे नास्तिक नहीं थे, उनके प्रतीकों में राम, कृष्ण, शिव के उद्धरण रहते थे। चित्रकूट में रामायण मेला लोहिया की सोच थी, जो आज भी जारी है। लोहियाजी का वैचारिक अतिवाद युवाओं में जोश फूंकता था और जब वे हुंकार भरते थे ..कि भूखी जनता चुप न रहेगी, धन और धरती बँटके रहेगी ..तो सरकार डोल जाती थी। उनके भाषण, लेख, नारे सृजनधर्मियों के लिए सोचने का वृस्तित फलक उपलब्ध कराते थे। लोहिया के लेख आज भी उद्वेलित करते हैं..मेरे जैसे कई लोगों के सोचने, विचारने और बहस करने की जो थोड़ी बहुत समझ बनी उसके पीछे कहीं न कहीं लोहिया साहित्य का योगदान है।
ल़ोहिया जी का रीवा से गाढा रिश्ता था। वे यहां आदर से डाक्टर साहब के नाम से ज्यादा जाने गए। सन् 85 में जबलपुर से रीवा आने के बाद डा. लोहिया को जगदीशचंद्र जोशी के जरिए जाना। मेरी यह धारणा है कि जोशी जी लोहिया के वास्तविक वैचारिक उत्तराधिकारी थे। यह बात अलग है कि समय के थपेड़े ने जोशीजी को हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। रीवा डा.लोहिया की राजनीतिक प्रयोगशाला कैसे बना और तब से लेकर यहां की समाजवादी क्रांति के किस्से जोशीजी बताया करते थे। वे यहां के गाँवों से जुड़े थे। कई लोग ऐसे हैं जो आज भी गर्व पूर्वक बताते हैं कि लोहिया जी ने मेरे घर में भोजन किया था। लोकप्रियता इतनी कि मेरे गाँव में ही लोहिया, नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण नामधारी लोग तो हैं ही, प्रेमभसीन, यमुनाशास्त्री, जगदीश जोशी नाम वाले भी हैं। नामकरण व्यक्तित्वों का असर बताता है।
लोहिया के व्यक्तित्व में एक गजब का साम्य रहा। वे एक ओर जहां गांधी के अतिप्रिय थे वहीं वे भगत सिंह के विचारों को जीते थे। 23 मार्च भगत सिंह की फाँसी का दिन है यही तारीख लोहिया के जन्म की भी बैठती है। 1944 में लोहिया को अंग्रेजों ने लाहौर के किले की उसी कालकोठरी में रखा था जहां भगत सिंह को फांसी के पहले तक रखा गया था। जोशी जी बताते थे -डाक्टर साहब गाँधी और भगत सिंह के वैचारिक साम्य थे। बर्लिन यूनिवर्सिटी में उन्होंने नमक सत्याग्रह पर पीएचडी की थी। वे पढे तो गांधी को और जिंदगी जिए भगत सिंह की भाँति। 1942 के बाद उनके और नेहरू के बीच तीखे मतभेद शुरू हो गए। वजह नेहरू येनकेनप्रकारेण सत्ता हस्तांरण चाहते थे जबकि लोहिया संपूर्ण आजादी। इसलिए जब विभाजन की त्रासदी के साथ देश आजाद हुआ तो गांधी की तरह उन्होंने भी आजादी का जश्न नहीं मनाया। एक सभा में तो नेहरू की मौजूदगी में ही उन्हें ..झट पलटने वाला नट तक कह दिया।
रीवा में समाजवाद का आधार क्यों जमा.. जोशी जी मानते थे कि इसकी प्रमुख वजह यहां की इलाकेदारी और सामंती दमन था। अंग्रेजों के राज में भी यही थे और आजादी मिलने के बाद ये सब के सब काँग्रेस में आ गए। 1948 में जब लोहिया के आह्वान पर देश की 650 रियसतों में समाजवादी आंदोलन शुरू हुआ तो रीवा रियासत का आंदोलन समूचे देश में रोल माडल बनकर उभरा। लोहिया जी का रीवा आना जाना बढा। नेहरू के तिलस्मी दौर में भी यहां के छात्र और युवा लोहिया के साथ जुड़े। यहां आंदोलन की तपिश इतनी तेज थी कि सोशलिस्ट पार्टी के हिंद किसान पंचायत का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन रीवा में रखा गया। उन दिनों यहां युवाओं के आईकान जगदीश जोशी, यमुनाशास्त्री और श्री निवास तिवारी थे। सम्मेलन के ही दिन इन तीनों को मैहर की जेल से छोड़ा गया था। लोहिया की मौजूदगी में जब जयप्रकाश नारायण ने नारा लगाया कि .जोशी, यमुना,श्रीनिवास तोआसमान गूंज गया।
उन दिनों पूरे देश में चल रही आँधी के खिलाफ लोहिया के नेतृत्व में समूचा विन्ध्य खड़ा था। सन् 52 के चुनाव में विन्ध्यप्रदेश में सोपा निर्णायक विपक्ष के रूप में सामने उभरकर आया। लोहिया का जोर इतना था कि सीधी जिले की लोकसभा समेत सभी सीटों पर सोपा के उम्मीदवार जीते। जोशी जी ने बताया था कि सिंगरौली विधानसभा क्षेत्र से चुनी गई सुमित्रा खैरवारिन को वे डा. राजेंद्र प्रसाद के खिलाफ राष्ट्रपति का चुनाव लड़ाने तक की तैयारी कर ली थी। किसी तकनीकी वजह से परचा नहीं भरवा पाए थे।
समूचे विन्ध्य में आज भी जितने किस्से लोहिया के हैं उतने किसी नेता के नहीं, यहां तक कि गांधी के भी नहीं। विन्ध्य को अपनी प्रतिरोध की राजनीति के लिए जाना जाता रहा है और उसे ये संस्कार लोहिया से मिले। लोहिया स्वप्नदर्शी नेता थे उनका वैचारिक अतिवाद आज भी युवाओं को लुभाता है। वसुधैव कुटुम्बकम की बात उन्होंने की। सीमा विहीन राष्ट्र और विश्व नागरिक की अवधारणा। रीवा में वे विश्वग्राम की झलक देखते थे। उनके नागरिक स्वतंत्रता की सीमा कहां तक थी इसका अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं कि ..यदि हम किसी का जिंदाबाद करते हैं तो उसका मुर्दाबाद करने का अधिकार स्वमेव मिल जाता है। वे द्रौपदी, अहिल्या, कुंती, तारा, मंदोदरी जैसी पंच देवकन्याओं में भारतीय नारी का संघर्ष देखते थे।
केरल की अपनी ही सरकार को बर्खास्त करने की तब माँग उठा दी जब वहां एक गोली कांड में 4 लोगों की मौत हो गई। मामला यह था, 11 अगस्त 1954 को त्रावणकोर कोचीन में पुलिस ने गोलियां चलायीं, जिससे चार व्यक्ति मारे गये। तब आचार्य जेबी कृपलानी प्रसोपा के अध्यक्ष थे। डॉ लोहिया ने मांग की कि गोलीकांड के कारण पिल्लई मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दें। डॉ लोहिया की राय थी कि इस्तीफे के जरिये प्रसोपा और जनता को व्यवहार और आचरण में प्रशिक्षित करना है। इस तरह का इस्तीफा अन्य पार्टियों को अपने व्यवहार में प्रभावित करता और पुलिस को अपने आचरण में इस गोलीकांड को लेकर प्रसोपा में उच्चतम स्तर पर काफ़ी चिंतन और आत्ममंथन हुआ, पर इस्तीफे के पक्ष में राय नहीं बनी। अत: डॉ लोहिया ने ही प्रसोपा की कार्यसमिति की सदस्यता और दल के महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया। उनके समर्थकों ने भी पार्टी के पदों से इस्तीफा दे दिया। तत्कालीन नेतृत्व ने कहा कि पार्टी इस गोलीकांड के लिए जनता से माफी मांगती है, पर मुख्यमंत्री का इस्तीफा नहीं होगा। उधर, मुख्यमंत्री पिल्लई ने कहा कि सरकार के बारे में राय बनाने के लिए जनता सबसे सक्षम न्यायाधीश है। उनकी सरकार काफ़ी लोकप्रिय है और सरकार के इस्तीफे का कोई कारण नहीं है।
जे.बी. कृपलानी ने कहा कि गांधीजी तक ने पुलिस गोलीबारी के औचित्य की संभावना से इनकार नहीं किया। कांग्रेसी सरकार में जब पुलिस गोलीबारी हुई, तो उन्होंने उस सरकार से इस्तीफा नहीं मांगा। डॉ लोहिया के बारे में कृपलानी ने कहा कि हम लोगों के बीच एक नयी प्रतिभा का उदय हुआ है, लेकिन इसकी भी एक सीमा होनी चाहिए। जयप्रकाश नारायण ने भी इस गोली कांड पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि कांग्रेस शासित राज्यों में पुलिस गोलीकांड होने पर क्या कांग्रेस ने इस तरह का प्रस्ताव पारित किया, जैसा प्रस्ताव प्रसोपा ने पास किया है?
जब एक समाजवादी सरकार के अंदर गोलीबारी हुई, तो पूरी पार्टी टूट गयी और मुद्दे पर विचार के लिए पार्टी का अधिवेशन बुलाया गया। पर इन तर्कों से लोहिया सहमत नहीं थे। उन्होंने एक जनसभा में कहा कि कोई भी सरकार, जो अपनी पुलिस की राइफल पर निर्भर करती है, जनता का भला नहीं कर सकती।
बाद में डॉ लोहिया ने नयी पार्टी बनायी और उसे एक सिद्धांतनिष्ठ पार्टी के रूप में चलाया। उनके गैरकांग्रेसवाद के नारे के कारण 1967 के चुनाव में नौ राज्यों में कांग्रेस की सरकार नहीं रही। ऐसा बहुतों का मानना है कि 1967 में डॉ लोहिया का निधन नहीं हुआ होता, तो वे यह दिखा देते कि कैसे किसी सरकार को सिद्धांतनिष्ठ ढंग से चलाया जा सकता है। डा. लोहिया राजनीति की सुचिता के लिए वे किसी मुकाम तक जा सकते थे। अपनी ही सरकार की बर्खास्तगी की मांग उठाने के बाद उन्होंने कहा था ..-हिन्दुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निंदा उसी पार्टी के लोग करें"।
आज लोहिया के वंशधर बिखरे हुए हैं। जो हैं वे राजनीति की गटरगंगा में गोते लगाते हुए अपने कुनबे में ही मस्त हैं। इन सब के बावजूद लोहिया के विचार समय के साथ और प्रबल होंगे और लोकतंत्र में सरकारों की स्वेच्छाचरिता के खिलाफ मशाल बनकर जलते रहेंगे।