राजेश बादल
तेईस मार्च की सुबह यकीनन मनहूस थी । पहली ख़बर हिंदी पत्रकारिता में राजेंद्र माथुर युग के अंतिम सशक्त हस्ताक्षर अभय छजलानी के अपने आखिरी सफ़र पर जाने की मिली । भले ही कुछ बरस से वे अपनी अस्वस्थता तथा पारिवारिक कारणों के चलते सक्रिय नही थे ,लेकिन अपने जीवन काल में लगभग आधी शताब्दी तक शानदार अख़बार नवीसी के कारण उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा । भारतीय हिंदी पत्रकारिता जब उनींदी और परंपरागत ढर्रे पर अलसाई सी चल रही थी , तो राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के मार्गदर्शन में उसे आधुनिक तकनीक और प्रामाणिकता का स्वर देने का काम अभय जी ने किया । यही वजह थी कि नईदुनिया ने कई साल श्रेष्ठता के राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त किए। बेशक इसमें उनके पिता स्वर्गीय लाभ चंद छजलानी और स्वर्गीय नरेंद्र तिवारी का भी भरपूर योगदान था फिर भी अभय जी ने इंदौर को पत्रकारिता का घराना बनाने का शानदार काम किया । नई दुनिया ने विश्वसनीयता के जो कीर्तिमान गढ़े, वैसे देश के किसी अन्य समाचार पत्र ने नही ।
मुझे उनके सानिध्य में कई साल काम करने का अवसर मिला । यूं तो नई दुनिया से मेरा संबंध जोड़ने वाले राजेंद्र माथुर ही थे ,किंतु अभय जी की उसमें बड़ी भूमिका थी ।इसके अलावा रोजमर्रा के कामकाज में प्रबंध संपादक होने के कारण अभय जी का समन्वय कौशल अदभुत था । जब राजेंद्र माथुर जी उन्नीस सौ बयासी के आखिरी दिनों में नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक होकर नई दिल्ली चले गए तो हम सब एक तरह से अनाथ हो गए । उस दौर में पूर्व प्रधान संपादक राहुल बारपुते और पूर्व संपादक डॉक्टर रणवीर सक्सेना के साथ अभय जी ने अख़बार का स्तर बनाए रखने में बड़ी ज़िम्मेदारी निभाई । उनमें प्रबंधकीय नेतृत्व की बेजोड़ क्षमता थी । बड़ी से बड़ी ख़बर आने पर भी शांत भाव से उसके साथ न्याय करने का हुनर संभवतया उन्होंने राजेंद्र माथुर से सीखा होगा । यह उनका भरोसा ही था कि बाईस तेईस बरस के मुझ जैसे अपेक्षाकृत अनुभवहीन पत्रकार को उन्होंने समाचार पत्र की कमोबेश अनेक ज़िम्मेदारियां सौंप दी थीं । चाहे वह संपादकीय पृष्ठ रहा हो या संपादक के नाम पत्र स्तंभ (उन दिनों अख़बार का संपादक के नाम पत्र सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्तंभ था और राजेंद्र माथुर जी स्वयं पत्र छांटते थे )।रविवारीय परिशिष्ट रहा हो या मध्य साप्ताहिक के स्तंभ।भोपाल संस्करण की स्वतंत्र जिम्मेदारी रही हो अथवा विशेष कवरेज का समन्वय । यह अभय छजलानी जी का विश्वास ही था कि उन्होंने मुझे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत से ठीक एक सप्ताह पहले उनकी मध्यप्रदेश यात्रा के कवरेज पर भेजा ।वह मेरे लिए कभी न भूलने वाला अनुभव था । इसके चंद रोज़ बाद ही इंदिराजी शहीद हुईं तो उस दिन सुबह सुबह उन्होंने मुझे गाड़ी भेजकर बुलाया और जब तक संपादकीय विभाग के अन्य सदस्य आते ,तब तक हम दोनों अख़बार के अनेक विशेष बच्चा संस्करण निकाल चुके थे । हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में वे ख़ास संस्करण आज भी विशिष्ट हैं । उन्होंने पहले बच्चा संस्करण का शीर्षक दिया था , इंदिरा जी शहीद । इसके बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहली मध्य प्रदेश यात्रा ,भोपाल गैस त्रासदी ,भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा की यात्रा , उन्नीस सौ तिरासी में सुनील दत्त की मुंबई से अमृतसर पदयात्रा या चंद्रशेखर की कन्या कुमारी से नई दिल्ली तक पदयात्रा ,अभय जी ने मुझे कवरेज की पूरी छूट दी । डेस्क ज़िम्मेदारियों में गुट निरपेक्ष देशों का सम्मेलन रहा हो या प्रूडेंशियल क्रिकेट कप में भारत की जीत की ख़बर हो ,उन्होंने मुझ पर यकीन किया । गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन के मौक़े पर भी हमने विशेष बच्चा संस्करण निकाले थे ,जो अत्यंत लोकप्रिय हुए और सराहे गए थे । एशियाड 82 पर भी हमने नायाब बच्चा संस्करण निकाले थे। इन सबके सूत्रधार भी अभय जी ही थे । ठाकुर जयसिंह न्यूज रूम के अघोषित कप्तान थे । उनके बगल में मेरी कुर्सी थी ।अभय जी सामने आकर डट जाते और देखते ही देखते विशेष संस्करण निकल जाता ।
हालांकि अभय जी एकदम से किसी भी नए साथी पर भरोसा नहीं करते थे ।इस कारण ही उन्होंने मुझे शुरू में नगर निगम की रिपोर्टिंग का दायित्व सौंपा था ।मुझे ऑफिस की ओर से रिपोर्टिंग के लिए नई साइकल ख़रीद कर दी गई थी । इसके बाद उन्होंने मुझसे रामचंद्र नीमा वॉलीबाल स्पर्धा और नई दुनिया फुटबाल टूर्नामेंट का कवरेज कराया ।उन दिनों नई दुनिया में कोई फुल टाइम खेल पत्रकार नही था ।कुछ समय बाद मुझे लगा कि यदि मैं खेल पत्रकार बन गया तो फिर मेरी दिलचस्पी के अन्य क्षेत्र पिछड़ जाएंगे,तो मैंने उनसे खेल डेस्क से हटाने का अनुरोध किया ।उन्होंने मान लिया ,लेकिन कोई पूर्णकालिक खेल पत्रकार के ज्वाइन करने तक काम देखते रहने को कहा । जब प्रशांत राय चौधरी ने ज्वाइन किया, तब मुझे मुक्ति मिली ।
अभय जी चुटकियों में अख़बार के ले आउट की कायापलट करने की कला में बेजोड़ थे । कोई बड़ा अवसर आता तो वे न्यूज डेस्क पर कॉपी लिखने से लेकर ले आउट देने का काम करते थे ।शीर्षक संपादन में उन्हें महारथ हासिल था। यह हुनर उन्होंने राजेंद्र माथुर जी से प्राप्त किया था। जिस तरह माथुर जी किसी समाचार या आलेख की कॉपी को पलक झपकते ही तराशते थे ,वही कला थोड़ा - बहुत हम लोगों ने भी उनकी संपादित कॉपियाँ देख देख कर सीख ली थीं। हम सब उन्हें देखकर हैरान रह जाते थे । किसी बड़ी घटना विशेष पर जब हम उत्तेजित हो जाते और न्यूज रूम सिर पर उठा लेते , तो अभय जी प्रकट होते और एकदम शांत भाव से काम करते । उन्हें काम करते देखना अपने आप में सुखद था । पंजाब में जब आतंकवाद सर उठा रहा था ,तो विश्व सिख सम्मेलन और भिंडरावाले पर केंद्रित मेरे अनेक आलेखों का उन्होंने संवेदनशील संपादन उन्होंने किया था। मुझे याद है कि श्रीलंका उन दिनों बेहद अशांत था। रविवारीय परिशिष्ट में पूरे पृष्ठ की मुख्य आमुख कथा प्रकाशित हो रही थी ।वह मैने लिखी थी तो कुछ जानकारियाँ स्थान अभाव के कारण छोड़नी पड़ रही थीं। मैं उलझन में था। इतने में अभय जी आए और कुछ तस्वीरों का संपादन किया। सारी सामग्री आ गई। वे मुस्कुराते हुए लौट गए। मैने इस तरह उनसे फोटो संपादन का हुनर हासिल किया ।आगे जाकर वह मेरे बड़े काम आया।
इसका अर्थ यह नहीं था कि मेरे उनसे कभी मतभेद नहीं हुए। अनेक अवसरों पर मुझे उनका मालिक वाला भाव पसंद नहीं आता था। वे कुछ कुछ रौबीले और सामंती मिजाज़ के थे। सुंदरता उन्हें भाती थी। दूसरी ओर मैं एक अक्खड़ जवान ,पाँच सात साल की पत्रकारिता के बाद ही अपने भीतर कुछ कुछ ठसक महसूस करता था। शायद मेरे इलाक़े का असर था। कभी मतभेद होता तो मैं कुछ दिन उनसे बात ही नहीं करता। आज सोचता हूँ तो अपने इस बचपने पर हँसी आती है। आख़िर कुछ दिनों के बाद वे ही चटका हुआ संवाद दुबारा जोड़ते थे। जब मैं छतरपुर जैसे दूरस्थ - पिछड़े ज़िले में पत्रकारिता कर रहा था तो नई दुनिया का संवाददाता बनाने के लिए उन्हें और राजेंद्र माथुर को कम से कम पचास पत्र तो लिखे ही होंगे। मैंने ज़िद ठान ली थी। मैं एक पत्र भेजता। अभय जी का खेद भरा उत्तर आता। मैं दो चार दिन बाद फिर नई चिठ्ठी भेज देता। उनका फिर संवाददाता नहीं बनाने का पत्र आ जाता। मगर देखिए संवाददाता न बनाते हुए भी मेरी ख़बरें , रिपोर्ताज़ और रूपक प्रकाशित करते रहे और अंततः मुझे उसी समाचारपत्र में सह संपादक पद पर काम करने का निमंत्रण भी राजेंद्र माथुर ने दे दिया। हां एक बार वे गंभीर रूप से मुझसे गुस्सा हो गए थे । कहानी यह है कि राजेंद्र माथुर मुझे खोजी रिपोर्टिंग के काम में लगाना चाहते थे और अभय जी मुझे भोपाल संस्करण का प्रभारी बनाए रखना चाहते थे । मेरे प्रभार संभालने के बाद एक पन्ना प्रादेशिक ख़बरों के लिए मैने बढ़ाया था और अख़बार का समय भी नियमित हो गया था । इससे कोई दस हज़ार प्रसार संख्या में बढ़ोतरी हुई थी । इसी बीच रविवार के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह इंदौर आए ।वे वसंत पोतदार के घर रुके थे । हम सबके लिए वे वसंत दा थे । एस पी नई दुनिया दफ़्तर आए और समाचारपत्र में काम करने की शैली से बड़े प्रभावित हुए । जाने लगे तो उन्होंने हॉल में लगी घड़ी पर नज़र डाली और बोले ," अरे ! बहुत देर हो गई। साढ़े तीन बज गए। चलता हूँ "। अभय जी ने एक ठहाका लगाया और उन्हें बताया कि नई दुनिया की घड़ी आधा घंटे आगे चलती है। इसके अनेक फ़ायदे उन्होंने गिनाए। एस पी दंग रह गए। माथुर जी भी साथ में थे। तब एस पी ने राजेंद्र माथुर जी से पूछा कि क्या वे रविवार के लिए राजेश को नई दुनिया से मुक्त कर सकते हैं। माथुर जी ने साफ़ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अभी राजेश का प्रशिक्षण काल चल रहा है। बीच में छोड़ना उचित नहीं है। तब एस पी ने कहा कि संभव हो तो रविवार के लिए कभी कभी रिपोर्टिंग की अनुमति दे दें। माथुर जी ने यह इजाज़त दे दी। लेकिन अभय जी की त्यौरियाँ चढ़ गईं। ज़ाहिर है एक मालिक के रूप में वे इसे कैसे पसंद कर सकते थे। कुछ दिन बाद मेरा लिखना शुरू हो गया। मैं देखता कि अभय जी की टेबल पर वह रविवार पड़ा रहता। अभय जी इससे प्रसन्न नहीं थे। एक बार रविवार में अर्जुन सिंह के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोप लगे और हमारी ( पटैरया और विभूति जी के साथ ) कवर स्टोरी छपी। अर्जुन सिंह से अभय जी के मधुर संबंध थे। अर्जुनसिंह सरकार ने विज्ञापन बंद करने की धमकी दी और मुझे निकालने का दबाव बनाया। उन दिनों अभय जी बड़े ग़ुस्से में थे। अंततः राजेंद्र माथुर और नरेंद्र तिवारी जी ने मामला शांत कराया। वह एक लंबी कहानी है। लेकिन बताने की आवश्यकता नहीं कि अभय जी दो तीन महीने बाद ही मेरे साथ सामान्य हो पाए।
उनके बारे में कितना लिखूँ ? बरसों तक साथ महसूस तो किया जा सकता है ,लेकिन अक्सर शब्द कम पड़ते हैं । जब राजेंद्र माथुर जी लखनऊ से नवभारत टाइम्स निकालने जा रहे थे तो उस टीम में मेरा भी नाम था । सौजन्यतावश और पेशेवर शिष्टाचार के नाते अभय जी से उन्होंने बात की। अभय जी ने उनसे असमर्थता जताई क्योंकि अख़बार की अनेक जिम्मेदारियां मुझ पर थीं। इसके बाद फरवरी1985 में माथुर जी ने फिर अभय जी से बात की । नवभारत टाइम्स का जयपुर संस्करण प्रारंभ होने जा रहा था । उसके लिए वे मुझे जयपुर में चाहते थे । इस बार अभय जी ने हां कर दी ।कारण यह था कि कुछ महीने पहले ही अभय जी ने तैयारी कर ली थी कि मेरे नही रहने पर कौन सी टीम नई दुनिया ज्वाइन करेगी । दिलचस्प यह कि उन्होंने इस काम में मुझे ही शामिल किया था । उन्होंने चार पांच प्रशिक्षु पत्रकारों के नाम एक भारी भरकम फाइल से छांटने के लिए कहा था । उन दिनों अख़बार में काम करने के लिए रोज़ ही दस से पंद्रह आवेदन प्राप्त होते थे । प्राथमिक तौर पर उन्हें शॉर्ट लिस्ट करने के बाद मैं उन्हें संदर्भ और पुस्तकालय विभाग के सदस्य अशोक जोशी जी को दे देता था । इस भारी फाइल से चार नाम मोती की तरह निकाले गए । ये थे यशवंत व्यास, रवींद्र शाह, दिलीप ठाकुर और भानु चौबे । इन लोगों ने मेरे बाद कमान संभाली थी । अभय जी जानते थे कि मैं जयपुर जा रहा हूं और मुझे इसकी ख़बर नहीं थी । उनका यह प्रबंधकीय कौशल था कि मुझे ही उन्होंने समाचार पत्र की अगली पीढ़ी के चुनाव की ज़िम्मेदारी सौंपी थी ।
उनके मानवीय रूप को क्या कहूं । जब मैंने इंदौर ज्वाइन किया तो वहां के होटलों के खाने में मिर्च तेज़ होती थी । एक दिन बातों ही बातों में यह जानकारी उन्हें मिल गई । फिर तो अगले दिन से भाभी जी का संदेश मिलने लगा और बड़े दिनों तक उनके यहां भोजन के लिए जाता रहा । डायनिंग टेबल पर खाने की परंपरा उनके घर में उन दिनों तो नही थी । एक बड़े कमरे में नीचे बैठकर सभी भोजन करते थे । सामने एक लकड़ी का पटा होता था । उस पर थाली रखी जाती थी । जब अभय जी के न्यौते पर सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर अपने जन्म स्थान इंदौर में अपना पहला गायन शो करने आई तो अभय जी के घर इसी पद्धति से ज़मीन में बैठकर उन्होंने दाल बाफले खाए थे । जब मेरा विवाह हुआ तो उन्होंने ख़ास तौर पर संदेश भेजा कि बहू को घर लेकर आना । दाल बाफले का न्यौता है । हम लोग गए ।उनका आशीर्वाद लिया । उन्होंने एक शानदार उपहार दिया । संस्था छोड़ने के बाद आजकल कौन याद रखता है ? इन दिनों मेरे दौर के अधिकांश वरिष्ठ साथी यह लोक छोड़कर जा चुके हैं। शिखर पुरुष के रूप में अभय जी ही बचे थे। वे भी चले गए।
पत्रकारिता के इस विलक्षण व्यक्तित्व को मेरा नमन।