चिन्मय मिश्र
एक औरत जो तेजाब से जल गई है।
खुश है कि बच गई है, उसकी दायीं आंख
एक औरत तंदूर में जलती हुई
अपनी ऊंगलियां धीरे से सहलाती है
जानने के लिए कि बाहर कितना अंधेरा है।
उदय प्रकाश
दंगे हों, गृहयुद्ध हो, युद्ध हो, नस्लीय संघर्ष हो, धार्मिक संघर्ष हो, या किसी भी तरह का अंसतोष। अंतत :। वह उतरता स्त्री के शरीर पर ही है। मणिपुर तीन मई सन दो हजार तेइस से जल रहा है, और अब तो जैसे उबल रहा है। परंतु भारत सरकार, प्रधानमंत्री, मणिपुर सरकार, मणिपुर के मुख्यमंत्री और भारत की महिला बाल विकास मंत्री की चुप्पी तभी टूटी, जब दो महिलाओं का संभाव्य बलात्कार के बाद निवस्त्र कर उनका ’’सार्वजनिक प्रदर्शन’’ किया गया। याद रखिए 15 जुलाई 2004 को मणिपुर की बारह महिलाओं ने मनोरमा थांगजन की बलात्कार के बाद की गई हत्या के विरोध में नग्न प्रदर्शन किया था, असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने। अभी 15 अप्रेल 2023 यानी करीब 19 बरस बाद उन्हीं मैतेई माताओं ने इस घटना की याद में एक समारोह आयोजित किया। संभवत : उसी दिन यह नया वीडियों सामने आया है, और इसमें जो दो महिलाएं हैं,वे अल्पसंख्यक कुर्की आदिवासी समुदाय की बताई जा रही है। क्या यह आठ मैतेई माताएं जो इस वर्ष भी मनोरमा के लिए मार्मिक प्रदर्शन कर चुकी है, इन कुर्की महिलाओं के लिए भी पूरे समर्पण के साथ सामने आएंगी? यदि वे सामने आकर इस घटना के विरोध में खड़ी होती हैं। तो मणिपुर में शांति बहाली की उम्मीदें एकदम से बढ़ जाएंगी। मणिपुर के सामाजिक परिवेश में महिलाओं की बातों का वजन है। आज मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि इन दोनों महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने वालों को मृत्युदंड दिलाने की कोशिश की जाएगी। साथ ही दुखद यह भी है कि मैं इस बात मैतेई महिलाओं तक ने बलात्कार के लिये उकसाया है।
इस तरह के बयान सिर्फ मुख्य समस्या से ध्यान बटाने का प्रयास भर हैं,। भाजपा द्वारा शासित प्रदेशों में न्याय की मूल अवधारणा को भुला दिया गया है, यहां सिर्फ दंडित करने वह भी त्वरित दंडित किये जाने का रिवाज बन गया है। पत्थर चलने वालों के घर पर बुलडोजर पेशाब करने वालों के घर पर बुलडोजर। गुंडो के घर पर बुलडोजर, कुल्ला कर देने वालों के घरों पर बुलडोजर। इससे दशहत जरूर फैलती है लेकिन यह न्याय दिलाने के राज्य के दायित्व के एकदम विपरीत है। भारतीय संविधान की मंशा स्पष्ट तौर पर झलकती है। कि राज्य (सरकार) कभी भी बदले की भावना से कर्म नहीं करेगा। परंतु यहां तो इसके ठीक विपरीत हो रहा है। हर अपराधा का स्थायी दंड मृत्युदंड और अस्थायी दंड घर तोड़ देना ही है। हमें यह स्पष्ट तौर पर समझ लेना होगा कि यदि राज्य की ओर से आवश्यक हिंसा का प्रदर्शन होगा तो जनता को भी हिंसक होने से रोकना कठिन हो जाएगा। मणिपुर में भी इसे महज काननू व्यवस्था का मामला बताकर ’’देखते ही गोली मारने’’ के आदेश दे रहा है। लगातार होती हिंसा अंतत : शासक और शासन दोनों की घनघोर असफलता ही है। गौरतलब है वहां दोनों समुदायों ने अपने हथियारबंद केम्प बना लिये है।
भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियां हैं, ’’आसमान जैसा दिखता है।/ वैसा नहीं है, और धरती/ जैसी दिखती है/ वैसी है/ ठीक नहीं कह सकता कोई/ वह कैसा है, यह कैसी है/ मगर फिर भी अंधी आंखों बहरे कान/ हमें सब कुछ देखना सुनना पड़ता है/गलत देख सुने में से। बेकाम का ही यही/ कुछ चुनना पड़ता है।’’ मणिपुर में हिंसा होते ढ़ाई महीले हो गए है। मणिपुर की अब वे मात्र 32 लाख है। भारत में 32 शहर तो इससे ज्यादा आबादी वाले होगे। यूरोपीय संघ की संसद इस मामले में हमारी सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही है। और वे ऐसा उस दौरान कर रहे हैं, जबकि प्रधानमंत्री फ्रांस (यूरोप) के दौरे पर हैं। मणिपुर में जो इन आदिवासी महिलाओं के साथ हुआ है, वह भारतीय समाज में बढ़ती क्रूरता, नृशंसता और निर्लज्जता, की सामुहिक अभिव्यकित है। हाथरस, उन्नाव, राजस्थान और तकरीबन सभी राज्यों में इस तरह की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। बुलडोजर निर्णय (न्याय नहीं) से जनता संतुष्ट हो जाती है, प्रतिरोध का सेफ्टी वाल्व खुल जाता है, और अंसतोष फटने की जगह सीटी बजाता अनंत में विलीन हो जाता है। शासक वर्ग फिर चैन की बंसी बजाने लग जाता है। केंद्र सरकार तो बारहों महीने तीसों दिन, चौबीसों घंटे सिर्फ चुनावी मोड़ में रहती है। प्रधानमंत्री सरकारी कार्यक्रमों में भी विपक्ष की आलोचना करने से नहीं चूकते। प्रधानमंत्री नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता को लेकर तो बेहद मुखर है, लेकिन इन्हीं राज्य की नीति के निदेशक तत्व के अंतर्गत कंडिका-46 में जो अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गां को लेकर जो अपेक्षाएं की गई हैं उससे आंख क्यों चुरा रहे हैं। सर्वाधिक अपराध इन्हीं तीनों वर्गों के ही विरूद्ध होते है। मणिपुर मंक सौ से भी ज्यादा लोगों, की हत्यों,पचास हजार से ज्यादा के बेघर होने और दो सौ पचास से ज्यादा चर्च के ध्वस्त होने के बावजूद पशासनिक व प्रधानमंत्री के स्तर पर चुप्पी वास्तव में देश के डरावने भविष्य की ओर संकेत कर रही है। क्या प्रतिक्रिया देने के लिए इस तरह की यंत्रणा की प्रतीक्षा की जा सकती है?
महात्मा गांधी कहते हैं ’’मैं मनुष्य और देवता की वाणी बोलू, पर मुझमें प्रेम न हो तो मैं ढोल या खाली घड़े के समान हूं। भले ही मैं भविष्यवाणी कर सकूं, मुझे पूर्ण ज्ञान ही, मुझमें पर्वतों, को खिसका सकने की श्रद्धा हो पर प्रेम न हो तो मैं तिनके के बराबर हूं। अगर मैं अपना सब कुछ गरीबों को दे दूं और अपना शरीर जला डालूं, पर मुझमें प्रेम न हो तो मेरे कार्य से कुछ भी लाभ न होगा।’’ भारत का वर्तमान शासन व्यवस्था प्रेम के बजाय घृणा और बदला की भावना पर टिकी हुई है। इसीलिए जैसे प्रतिफल उम्मीद होती हैं, वह प्राप्त नहीं होगा। पिछले नौ वर्षों में भारत की राजनीतिक ही नहीं सामाजिक चरित्र भी बदल है। आपसी विश्वास की टूटन आज जितनी है, उतनी इतिहास में पहले कभी भी नहीं रही। अब हमारे पडौस में पड़ौसी नहीं बल्कि कोई ऐसा व्यक्ति रहता है, जो या तो हमसे डरा हुआ होता है। या उससे डरे हुए होते हैं। हम हमशा एकदूसरे को शंका से ही देखते मिलते हैं। सांप्रदायिक सद्भान की बात करना अब दकियानूसी कहलाता है। महिलाओं को लेकर जितना भद्दापन दर्शाया जाता है, वह अब स्वीकार्य हो गया है। गौरतलब है, प्रधानमंत्री ने आज भी मणिपुर में हो रहे नरसंहार पर कोई बात नहीं की है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि उन्होंने सन 2002 में हुए गुजरात दंगों पर भी आज तक कोई बात नहीं की हैं। गुजरात दंगों के दौरान हुए महिलाओं पर अत्याचार को भुलाने की कोशिशें लगातार जारी हैं। बिलकिस बानों से बलात्कार करने वालों की रिहाई और हार पहनाकर उनका सत्कार समझा रहा है। कि भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग किस मानसिकता का है। महिला पहलवानों की अस्मिता की लड़ाई का अब तक का हासिल यह है कि आरोपी भाजपा सांसद बृज भूषण शरण सिंह को नियमित जमानत मिल गई है। पुलिस ने अपनी जमानत का विरोधस तक नहीं किया।
मणिपुर घृणित कांड के बारे में यह कहा जा रहा हैं ये जिन दोनों महिलाआं के साथ यह वीभत्सता हुई है, वे उस दिन पुलिस सुरक्षा में थीं और भीड़ उन्हें पुलिस के सामने उठाकर ले गई एक महिला का किशोर भाई व पिता भी मारे गये। यह घटना 4 मई की है और एफ आई आर 18 मई को पंजीकृत हुई है। 21 मई को यह मामला नोगपो सेकमाई पुलिस स्टेशन को हस्तांतरित किया गया। खतरनाक तथ्य यह है कि पुलिस की सुरक्षा से बलात ले जाई गई महिलाओं की एफ आई आर करीब 15 दिन बाद दर्ज हुई। पुलिस ने स्वमेव उसी दिन रिपोर्ट दर्ज क्यों नहीं की? क्या वे जनजातीय समुदाय की थीं इसीलिए? उदय प्रकाश कविता औरतें में आगे। लिखते हैं, ’’एक औरत हारकर कहती है/ तुम जो जी आए/ कर लो मेरे साथ/बस मुझे किसी तरह जी लेने दो/ एक पाई गई/ मरी हुई/ बिल्कुल तडके शहर के किसी पार्क में। और उसके शव के पास बैठा। रो रहा है उसका ढेढ़ साल का बेटा। उसके झोले में मिलती है/ दूध की खाली बोतल।/ प्लास्टिक का छोटा सा गिलास/और एक लाल हीरा गेंद। जिसके हिलाने से आज भी/ आती है/ घुनघुने जैसी आवाज।’’ मणिपुर की स्थिति, मणिपुर में महिलाओं की स्थिति, मणिपुर में बच्चों की स्थिति क्या इससे कुछ इतर है? उदय प्रकाश की यह कविता पच्चीस वर्ष से भी पहले लिखी गई है। कहने में शर्म आती है कि यह लगता है जैसे आज सुबह ही लिखी गई है। क्या महिलाओं के लिए सामाजिक परिवर्तन ठहर गया है? क्या महिलाओं की आधुनिक विकास में भागीदारी बेहद सीमित कर दी गई है? बिलकिस बानो हों या मणिपुर की स्त्रियां क्या इसी तरह लगातार अपमानित, लांछित और प्रताड़ित करी जाती रहेंगीं?
प्रधानमंत्री मणिपुर की ’’माताओं बहनों’’ के साथ छत्तीसगढ़ और राजस्थान की माताओं, बहनों और देशभर की माताआेंं और बहनों की सुरक्षा की बात मुख्यमंत्रियों के माध्यम से कर रहे हैं। वे बताते हैं कि इस घटना से वे बेहद क्रोधित और दुखी हैं। परंतु संसद में इस पर चर्चा की बात होते ही हंगाम होता है और सदन की कार्यवाही दिनभर के लिए स्थगित हो जाती है। उधर भाजपा प्रवक्ता रवि शंकर प्रसाद कह रहे है कि प्रधानमंत्री मणिपुर के वीडियो पर बोले, लेकिन करौली कांड पर सोनिया गांधी चुप क्यों है।’’ वैसे सोनिया गांधी मणिपुर पर पहले अपनी बात रख चुकी है, तो प्रधानमंत्री पहले मणिपुर पर क्यां नहीं बोले? करौली कांड के अपराधी तुरंत गिरफ्तार हो चुके हैं। वे यह भी कह रहे हैं कि मई की घटना का वीडियों जुलाई में कैसे आया? पर वे यह नहीं बता रहे हैं कि 4 मई की घटना की रिपोर्ट 18 मई को क्यों लिखी गई और 15 जुलाई तक इस रिपोर्ट पर किसी की गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई? राष्ट्रीय महिला आयोग को तो 18 जून को ही इस घटना की सूचना दी जा चुकी थी, पर वहां भी सन्नाटा बना रहा यदि वीडियां जारी नहीं होता तो अपहरण और सामुहिक बलात्कार की घटना पर कोई कार्यवाही ही नहीं होती। यह वीडियों ने ही संभव बनाया कि जारी होने के अगले ही दिन इस मामले में पहली गिरफ्तारी हो गई। भारत की वर्तमान शासन प्रणाली पूरे देश में मानवाधिकारों के लिए कार्य करने वाली नागरिक सामाजिक संस्थाओं का अस्तित्व ही खत्म करने पर उतारू हो गई है। प्रत्येक ऐसी संस्था का एफ सी आर ए रद्द करने की मुहिम सी चल पड़ी है। इस वजह से अत्याचारों के खिलाफ होने वाले संघर्षों की धार की बोथरी हो रही है। मानव त्र्रासदियों पर भी अब चयन करके प्रतिक्रिया ही जाएगी?
गांधी कहते हैं, ’’सारे धर्मों नीतियों पर टिके हैं। हम किसी धर्म को माने या न माने किंतु नीति का पालन करना मानव का फर्ज है। नीति विहीन व्यक्ति लोक या परलोक में किसी दूसरे का भला नहीं कर सकता है। आज भारत नीति विहीनता के दौर से या अनीति के दौर से गुजर रहा है। वरना क्या यह संभव था। कि जो सन 2002 में हुआ वह उसे सन 2023 में दोहराने की हिम्मत किसी में होती, परंतु अब तो पूरा देश जैस सन 2002 के दौर से मुखातिब होता जा रहा है सुदूर मणिपुर हो या दश की राजधानी दिल्ली या आर्थिक राजधानी मुंबई या सूचना क्रांति राजधानी बैंगलुरू, महिलाओं के लिए हर जगह एक सी असुरक्षित है। प्रधानमंत्री का क्रोध और पीड़ा या दुख तब तक अर्थहीन है जब तक कि वे मणिपुर हिंसा की जिम्मेदारी डबल इंजिन सरकारों पर नहीं डालते और केंद्र और राज्य सरकारों की नैतिक व संवैधाकिन असफलता को नहीं स्वीकारते। वैसे माफ तो उन्होंने अभी तक प्रज्ञा ठाकुर को भी नहीं किया है। उदय प्रकाश कवित के अंत में लिखते हैं, ’’राजधानी (आप मणिपुर भी पढ़ सकते हैं) के पुलिस थाने के गेट पर/एकदूसरे को छूती हुई/ जमीन पर बैंठी हैं दो औरतें/ बिल्कुल चुपचाप/ लेकिन समूचे बह्मांड में गूंजता है/ उनका हाहाकार।’’ आप भी कान बंद कीजिए मणिपुर की औरता का हाहाकर आपको भी निश्चित सुनाई देगा। थोड़ा लिखा है ज्यादा समझें। अपने आंसु सूखने न दें।