- राजेश बादल
वह उन्नीस सौ छियत्तर का साल था। आकाशवाणी छतरपुर की कार्यक्रम अधिकारी श्रीमती मीनाक्षी मिश्रा ( अब वे इस दुनिया में नहीं हैं ) का बुलावा आया। उन दिनों रेडियो से बुलावा याने किसी आकाश की अनंत ऊंचाइयों से आमंत्रण जैसा था। रेडियो के लोग किसी स्टार से कम नहीं होते थे। जब रेडियो सीलोन से हर बुधवार की रात आठ बजे अमीन सयानी की बिनाका गीतमाला आती तो सड़कों पर कर्फ़्यू सा लग जाता। बुधवार को दिन भर और अगले दिन कॉलेजों और सरकारी दफ़्तरों में दिन भर कोई काम न होता था। सारे दिन गीतमाला के सोलह गीतों के क्रम और उनके चुनाव पर शास्त्रीय बहस हुआ करती थी। तो ऐसे माहौल में धड़कते दिल से मैडम मिश्रा से मिलने जा पहुँचा। उन दिनों मैं बी.एससी का छात्र था। मैडम ने एक तरह से परीक्षा ले ली। दरअसल उन्हें संविधान संशोधनों पर एक परिचर्चा रिकॉर्ड करनी थी। विज्ञान के छात्र को संविधान की जानकारी क्या होगी ? यह ध्यान में रखते हुए उन्होंने सवाल किए। मेरी रूचियों को पंख लगने लगे थे। इस कारण विज्ञान के अलावा साहित्य और राजनीति में भी दिलचस्पी लेने लगा था। मैडम मिश्रा की परीक्षा में पास हो गया तो परिचर्चा में अवसर मिला। प्रसारण के बाद मैं तो फूल कर कुप्पा हो रहा था।दोस्तों और परिचितों से बधाइयों का ताँता लगा था।चिट्ठियों का ढेर लग गया। सच कहूँ तो खुद को भी एक स्टार जैसा समझने लगा। प्रसारण के अगले दिन मैडम मिश्रा से मिलने गया। सोचा शाबासी मिलेगी। पर उन्होंने तो देखते ही जो फटकार लगाईं कि डर गया। पसीना पसीना हो गया। उन्होंने ताड़ लिया। बैठाया। बोलीं ,इस बार तो मौक़ा दे दिया। आगे से बंद। मेरी बोलती भी बंद। फिर तनिक मुस्कुराईं। मुझे राहत मिली। कहने लगीं ," कंटेंट तो बहुत अच्छा था लेकिन तुम बहुत खराब बोलते हो"। मैं हैरत से उनका चेहरा देख रहा था। मेरे बोलने पर तो किसी ने टोका ही नहीं था। मैंने कहा , "मैडम ! क्या हुआ ? मैं समझा नही। उन्होंने कहा ,इस बुंदेलखंड के साथ यही समस्या है। बहुत ख़राब उच्चारण करते हैं। स को श और श को स बोलते हैं। व को ब और ब को व बोलते हैं। नुक़्ता लगाना तो जैसे जानते ही नहीं "।इसके बाद उन्होंने मेरे उच्चारण में अनेक ग़लतियाँ निकालीं।मैं आँखें फाड़ कर उन्हें देखता रहा। उन्होंने कहा ,अपना उच्चारण ठीक करना चाहते हो ? अँधा क्या चाहे -दो आँखें। मैंने हाँ कर दी। मैडम बोलीं ,"कल से एक घंटे तुम्हारी क्लास लूँगी"।इसके बाद अगले दिन दे क्लास शुरू हो गई। तीन महीने बाद उन्होंने ख़ुद ही कहा,"क्लास ख़त्म। अब कल से युववाणी में कंपेयरिंग करोगे "। अगले दिन से मैं युववाणी का कंपेयर बन गया। पहले दिन मेरी वरिष्ठ कंपेयर इंदिरा मिश्रा ने मेरा हौसला बढ़ाया। फिर भी माइक के सामने डरता ही रहा। धीरे धीरे डर निकला।
इसके कुछ समय बाद ही मुझे अनाउंसर बना दिया गया। केंद्र निदेशक डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने बुला कर कहा ,"राजेश ! आपका उच्चारण अच्छा है ,इसीलिए आपको अवसर दिया जा रहा है। आपको लगातार बेहतर प्रदर्शन करना होगा"।मैंने उन्हें भरोसा दिलाया और कक्ष से निकल आया।मैं बहुत भावुक हो गया था। आज भी याद है ,देर तक मेरे आँसू नहीं थमे। खिड़की की तरफ़ मुँह करके आँसू रोकने की कोशिश करता रहा। जितना रोकता ,उतने ही और बहते। थोड़ी देर बाद मुड़ा तो सामने मैडम खड़ी थीं। आँसू देखकर चौंकी। बोलीं ,अरे क्या हुआ ? राजेंद्र जी ने कुछ कहा क्या ? मैंने झुक कर उनके पैर छू लिए और उन्हें उदघोषक बनाने की सूचना दी। वे मुस्कराईं और गले से लगा लिया। कहा ," तुमने बहुत सुधार किया है। मैंने ही राजेंद्र प्रसाद जी से तुम्हारी अनुशंसा की थी"। अब अच्छा करना। मेरे नाम पर धब्बा न लगाना। इसके बाद मेरी उदघोषक की पारी शुरू हो गई। इस ज़िम्मेदारी के साथ साथ मुझे ,संगीत रूपक ,शब्दचित्र,नाटक ,मंचीय नाटक ,रेडियो रिपोर्ट ,कार्यक्रमों की रिकॉर्डिंग और संपादन ,स्थल रिकॉर्डिंग वार्ताएँ ,परिचर्चाएँ इत्यादि सभी कुछ करने का अवसर मिला। रेडियो की स्क्रिप्ट कैसे लिखी जाती है - यह प्रशिक्षण मुझे आनंद वर्मा जी ने दिया। कार्यक्रम प्रस्तुति और उसे पेशेवर अंदाज़ में परोसने की कला एस.आर.लांबा और एल के वहाल ने सिखाई। कॉलेज में मेरे सीनियर सुरेंद्र तिवारी यहाँ भी मेरे वरिष्ठ थे। उनसे हौसला और शब्द में भाव डालने का संस्कार सीखा। स्थिति यहाँ तक आई कि जब भी बाहर रिकॉर्डिंग के लिए जाया करता ,लोग आवाज़ से ही पहचान लेते और घेर लेते। सारी सुविधाएँ आनन फ़ानन में जुट जातीं। आवाज़ की दुनिया से जुड़े लोगों को उन दिनों का समाज ऐसे ही सम्मान देता था। सुनील केशव देवधर ,राजेंद्र सक्सेना ,कमला पांडे ,चारुबाला शर्मा,पीके शर्मा,ऐसे ही नाम हैं ,जो रेडियो के साथ ही याद आते हैं।आज मैडम मीनाक्षी मिश्रा इस संसार में नहीं हैं। लांबाजी और वहाल साब भी नहीं हैं। सोचता हूँ तो दिल भर आता है। ऐसे गुरू सबको नहीं मिलते। कहाँ गए वे लोग।
मेरी रेडियो की अगली पारी इंदौर ,जयपुर और भोपाल आकाशवाणी केंद्रों के संग बीती।मैं उदघोषक से समाचार वाचक हो गया। इंदौर में वीरेन मुंशी जी ,बोस साब,जयपुर में जगदीश नारायण और भोपाल में मैडम मीनाक्षी मिश्रा के पति राजेंद्र मिश्रा,विनोद तिवारी जी और आर एस त्रिपाठी जी के साथ समाचार कक्ष के दिन कभी न भूलने वाले हैं। जब छतरपुर से विदाई लेकर नई दुनिया में सह संपादक के पद पर काम शुरू किया तो कुछ महीने रेडियो से दूर होना पड़ा। लेकिन आप नहीं मानेंगे कि अख़बार में काम करते हुए मुझे सपनों में फ़ैडर ऑपरेशन दिखाई देता था। रेडियो के कवरेज ,स्पूल रिकॉर्डर और उनसे संपादन याद आता था। सितंबर इक्यासी में तो एक दिन बेहद घबरा गया। दिमाग़ पर लाख ज़ोर डाला मगर फ़ैडर सिस्टम,टर्न टेबल और स्पूल लपेटने की विधा एकदम बिसर गई। दो तीन दिन भारी तनाव में गुज़रे। नहीं याद आया तो एक दिन किराए की साइकल लेकर आकाशवाणी गया। वहाँ स्टूडियो में जाकर सारे कनेक्शन देखे ,फ़ैडर ऑपरेशन याद किया ,फिर एक डायरी में उसका डायग्राम बनाया और बरसों तक उसे देख देख कर याद रखा। तो यह है रेडियो का नशा।रेडियो मेरा पहला प्यार है और शायद अंत तक बना रहे। (जारी )
- राजेश बादल
वह उन्नीस सौ छियत्तर का साल था। आकाशवाणी छतरपुर की कार्यक्रम अधिकारी श्रीमती मीनाक्षी मिश्रा ( अब वे इस दुनिया में नहीं हैं ) का बुलावा आया। उन दिनों रेडियो से बुलावा याने किसी आकाश की अनंत ऊंचाइयों से आमंत्रण जैसा था। रेडियो के लोग किसी स्टार से कम नहीं होते थे। जब रेडियो सीलोन से हर बुधवार की रात आठ बजे अमीन सयानी की बिनाका गीतमाला आती तो सड़कों पर कर्फ़्यू सा लग जाता। बुधवार को दिन भर और अगले दिन कॉलेजों और सरकारी दफ़्तरों में दिन भर कोई काम न होता था। सारे दिन गीतमाला के सोलह गीतों के क्रम और उनके चुनाव पर शास्त्रीय बहस हुआ करती थी। तो ऐसे माहौल में धड़कते दिल से मैडम मिश्रा से मिलने जा पहुँचा। उन दिनों मैं बी.एससी का छात्र था। मैडम ने एक तरह से परीक्षा ले ली। दरअसल उन्हें संविधान संशोधनों पर एक परिचर्चा रिकॉर्ड करनी थी। विज्ञान के छात्र को संविधान की जानकारी क्या होगी ? यह ध्यान में रखते हुए उन्होंने सवाल किए। मेरी रूचियों को पंख लगने लगे थे। इस कारण विज्ञान के अलावा साहित्य और राजनीति में भी दिलचस्पी लेने लगा था। मैडम मिश्रा की परीक्षा में पास हो गया तो परिचर्चा में अवसर मिला। प्रसारण के बाद मैं तो फूल कर कुप्पा हो रहा था।दोस्तों और परिचितों से बधाइयों का ताँता लगा था।चिट्ठियों का ढेर लग गया। सच कहूँ तो खुद को भी एक स्टार जैसा समझने लगा। प्रसारण के अगले दिन मैडम मिश्रा से मिलने गया। सोचा शाबासी मिलेगी। पर उन्होंने तो देखते ही जो फटकार लगाईं कि डर गया। पसीना पसीना हो गया। उन्होंने ताड़ लिया। बैठाया। बोलीं ,इस बार तो मौक़ा दे दिया। आगे से बंद। मेरी बोलती भी बंद। फिर तनिक मुस्कुराईं। मुझे राहत मिली। कहने लगीं ," कंटेंट तो बहुत अच्छा था लेकिन तुम बहुत खराब बोलते हो"। मैं हैरत से उनका चेहरा देख रहा था। मेरे बोलने पर तो किसी ने टोका ही नहीं था। मैंने कहा , "मैडम ! क्या हुआ ? मैं समझा नही। उन्होंने कहा ,इस बुंदेलखंड के साथ यही समस्या है। बहुत ख़राब उच्चारण करते हैं। स को श और श को स बोलते हैं। व को ब और ब को व बोलते हैं। नुक़्ता लगाना तो जैसे जानते ही नहीं "।इसके बाद उन्होंने मेरे उच्चारण में अनेक ग़लतियाँ निकालीं।मैं आँखें फाड़ कर उन्हें देखता रहा। उन्होंने कहा ,अपना उच्चारण ठीक करना चाहते हो ? अँधा क्या चाहे -दो आँखें। मैंने हाँ कर दी। मैडम बोलीं ,"कल से एक घंटे तुम्हारी क्लास लूँगी"।इसके बाद अगले दिन दे क्लास शुरू हो गई। तीन महीने बाद उन्होंने ख़ुद ही कहा,"क्लास ख़त्म। अब कल से युववाणी में कंपेयरिंग करोगे "। अगले दिन से मैं युववाणी का कंपेयर बन गया। पहले दिन मेरी वरिष्ठ कंपेयर इंदिरा मिश्रा ने मेरा हौसला बढ़ाया। फिर भी माइक के सामने डरता ही रहा। धीरे धीरे डर निकला।
इसके कुछ समय बाद ही मुझे अनाउंसर बना दिया गया। केंद्र निदेशक डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने बुला कर कहा ,"राजेश ! आपका उच्चारण अच्छा है ,इसीलिए आपको अवसर दिया जा रहा है। आपको लगातार बेहतर प्रदर्शन करना होगा"।मैंने उन्हें भरोसा दिलाया और कक्ष से निकल आया।मैं बहुत भावुक हो गया था। आज भी याद है ,देर तक मेरे आँसू नहीं थमे। खिड़की की तरफ़ मुँह करके आँसू रोकने की कोशिश करता रहा। जितना रोकता ,उतने ही और बहते। थोड़ी देर बाद मुड़ा तो सामने मैडम खड़ी थीं। आँसू देखकर चौंकी। बोलीं ,अरे क्या हुआ ? राजेंद्र जी ने कुछ कहा क्या ? मैंने झुक कर उनके पैर छू लिए और उन्हें उदघोषक बनाने की सूचना दी। वे मुस्कराईं और गले से लगा लिया। कहा ," तुमने बहुत सुधार किया है। मैंने ही राजेंद्र प्रसाद जी से तुम्हारी अनुशंसा की थी"। अब अच्छा करना। मेरे नाम पर धब्बा न लगाना। इसके बाद मेरी उदघोषक की पारी शुरू हो गई। इस ज़िम्मेदारी के साथ साथ मुझे ,संगीत रूपक ,शब्दचित्र,नाटक ,मंचीय नाटक ,रेडियो रिपोर्ट ,कार्यक्रमों की रिकॉर्डिंग और संपादन ,स्थल रिकॉर्डिंग वार्ताएँ ,परिचर्चाएँ इत्यादि सभी कुछ करने का अवसर मिला। रेडियो की स्क्रिप्ट कैसे लिखी जाती है - यह प्रशिक्षण मुझे आनंद वर्मा जी ने दिया। कार्यक्रम प्रस्तुति और उसे पेशेवर अंदाज़ में परोसने की कला एस.आर.लांबा और एल के वहाल ने सिखाई। कॉलेज में मेरे सीनियर सुरेंद्र तिवारी यहाँ भी मेरे वरिष्ठ थे। उनसे हौसला और शब्द में भाव डालने का संस्कार सीखा। स्थिति यहाँ तक आई कि जब भी बाहर रिकॉर्डिंग के लिए जाया करता ,लोग आवाज़ से ही पहचान लेते और घेर लेते। सारी सुविधाएँ आनन फ़ानन में जुट जातीं। आवाज़ की दुनिया से जुड़े लोगों को उन दिनों का समाज ऐसे ही सम्मान देता था। सुनील केशव देवधर ,राजेंद्र सक्सेना ,कमला पांडे ,चारुबाला शर्मा,पीके शर्मा,ऐसे ही नाम हैं ,जो रेडियो के साथ ही याद आते हैं।आज मैडम मीनाक्षी मिश्रा इस संसार में नहीं हैं। लांबाजी और वहाल साब भी नहीं हैं। सोचता हूँ तो दिल भर आता है। ऐसे गुरू सबको नहीं मिलते। कहाँ गए वे लोग।
मेरी रेडियो की अगली पारी इंदौर ,जयपुर और भोपाल आकाशवाणी केंद्रों के संग बीती।मैं उदघोषक से समाचार वाचक हो गया। इंदौर में वीरेन मुंशी जी ,बोस साब,जयपुर में जगदीश नारायण और भोपाल में मैडम मीनाक्षी मिश्रा के पति राजेंद्र मिश्रा,विनोद तिवारी जी और आर एस त्रिपाठी जी के साथ समाचार कक्ष के दिन कभी न भूलने वाले हैं। जब छतरपुर से विदाई लेकर नई दुनिया में सह संपादक के पद पर काम शुरू किया तो कुछ महीने रेडियो से दूर होना पड़ा। लेकिन आप नहीं मानेंगे कि अख़बार में काम करते हुए मुझे सपनों में फ़ैडर ऑपरेशन दिखाई देता था। रेडियो के कवरेज ,स्पूल रिकॉर्डर और उनसे संपादन याद आता था। सितंबर इक्यासी में तो एक दिन बेहद घबरा गया। दिमाग़ पर लाख ज़ोर डाला मगर फ़ैडर सिस्टम,टर्न टेबल और स्पूल लपेटने की विधा एकदम बिसर गई। दो तीन दिन भारी तनाव में गुज़रे। नहीं याद आया तो एक दिन किराए की साइकल लेकर आकाशवाणी गया। वहाँ स्टूडियो में जाकर सारे कनेक्शन देखे ,फ़ैडर ऑपरेशन याद किया ,फिर एक डायरी में उसका डायग्राम बनाया और बरसों तक उसे देख देख कर याद रखा। तो यह है रेडियो का नशा।रेडियो मेरा पहला प्यार है और शायद अंत तक बना रहे। (जारी )