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हॉट टोपिक
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Added on : 2024-07-14 15:02:57

राजेश बादल

ग़ज़ब है।अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त अनाज केंद्र सरकार दे रही है। क्योंकि उनकी आमदनी पेट भरने लायक नहीं है। क़रीब डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले मुल्क़ के आधे लोग इतना नहीं कमाते कि अपनी रोज़ी रोटी कमा सकें।उसी देश में एक ब्याह ऐसा भी होता है ,जिसे देखकर संसार के सबसे अमीर भी शरमा जाएँ। शादी में जितना पैसा ख़र्च हुआ होगा ,निश्चित रूप से उतने पैसे में भारत के कम से कम डेढ़ - दो लाख गाँवों की क़िस्मत संवर जाती।बिना भवनों के चल रहे स्कूलों के भवन बन जाते ,बिना शिक्षकों के चल रहे स्कूलों में शिक्षक ज़िंदगी भर की वेतन के साथ आ जाते,बिना डॉक्टरों के इलाज़ कर रहे अस्पतालों में डॉक्टर तैनात हो जाते,करोड़ों किसानों के क़र्ज़ स्थायी रूप से माफ़ हो जाते,सौ साल के लिए शानदार सड़कें बन जातीं, एक भी आदमी बेघर नहीं रहता और घर घर ज़िंदगी भर के लिए बिजली - पानी मुफ़्त मुहैया हो जाता।लेकिन ताज्जुब है कि भारतीय मीडिया में किसी ने यह सवाल नहीं उछाले। क्यों ?  

दूसरी ओर ब्याह में इतना पैसा फूँकने वालों के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं होती।कोई छापे नहीं डालता। उल्टे व्यवस्था के नियंता इस विवाह में उछल कूद करते दिखाई देते हैं।आज़ादी के सत्तहत्तर साल बाद हमने ऐसा समाज रचा है ,जिसमें एक व्यक्ति के लिए दूसरा चिंता नहीं करता। इसी राष्ट्र में एक दौर ऐसा भी आया था ,जब भारत पेट भरने लायक अनाज उत्पादन नहीं कर पा रहा था तो लाल बहादुर शास्त्री के रूप में प्रधानमंत्री ऐसा भी हुआ ,जिसने देशवासियों से अपील की कि सब लोग उपलब्ध अनाज मिल बाँटकर खाएँगे तो करोड़ों लोगों ने एक समय का भोजन छोड़ दिया था। समाज में एक दूसरे के लिए दर्द ही इंसानियत का धर्म है।उसी दौर में नीरज ने लिखा था ,

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए ,जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए /

मेरे दुःख दर्द का तुझ पर भी असर हो कुछ ऐसा ,मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए /  

अफ़सोस की बात यह कि पूँजी के इस भौंडे प्रदर्शन में हमारे लोकतंत्र के पैरोकार भी सोने चांदी से लकदक उत्साह से नाचते कूदते नज़र आते हैं।हमारे वे नुमाइंदे,जिन पर हर हाथ को काम देने की ज़िम्मेदारी है,उन्हें भी लज्जा नहीं आती।उनके इस अनैतिक और क्रूर रवैए को कौन माफ़ कर सकता है ? पत्रकारिता का कोई भी रूप हमारे प्रतिनिधियों को यह नसीहत देते नहीं दिखाई दिया।इस सामूहिक शर्म या कलंक से पत्रकार - संपादक कैसे उबर सकते हैं ? किसी धन कुबेर को दौलत का सहारा लेकर भारतीय मतदाताओं का उपहास करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती।साहिर याद आते हैं ,

ये चमनज़ार,ये जमुना का किनारा,ये महल / ये मुनक़्क़श,दरों दीवार,ये मेहराब,ये ताक /

इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर / हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़ / 

यह भारतीय पत्रकारिता का असली चेहरा नहीं है।अब वह समाज के आख़िरी छोर पर खड़े इंसान की चिंता नहीं करती।दरिद्रनारायण की सेवा अब उसके लिए कोई मायने नहीं रखती।ज़मीन से जुड़िए।सरोकारों से जुड़िए।सिद्धांतों को समझिए।लोकतंत्र को समझिए।यदि आपने स्लेट पर लिखी वक़्त की इबारत नहीं पढ़ी ,तो आप इतिहास के पन्नों में दफ़न हो जाएँगे और तब यह ख़ज़ाना खोलकर ब्याह रचाने वाले भी आपके काम नहीं आएँगे मिस्टर मीडिया !

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