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हॉट टोपिक
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Added on : 2024-07-16 10:36:26


राजेश बादल 
नेपाल में फिर नई सरकार बन गई। के पी शर्मा ओली चौथी बार प्रधानमंत्री देश को मिल गए।उनके पुराने कार्यकाल को याद करें तो भारत के लिए यह कड़वाहट भरा था।ओली ने भारत के साथ वह बरताव किया था,जो अब तक वहाँ के किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया था। वे चीन की गोद में बैठकर भारत को धमकी दे रहे थे कि एक इंच ज़मीन भी भारत को नहीं देंगे।लेकिन वे भूल गए थे कि उनके देश का भारत के साथ रोटी - बेटी का रिश्ता है और दोनों देश सदियों से साझा संस्कृति के वाहक हैं।वे नेपाल की सियासत में ज़िद्दी अधिनायक जैसे हैं ,जो झटके खाने के बाद भी सुधरने के लिए तैयार नहीं है।अभी भी उन पर चीन का प्रभाव है। ज़ाहिर है यह स्थिति नेपाल को स्थिर लोकतंत्र की तरफ नहीं ले जाती।अरसे से चल रही राजनीतिक अस्थिरता ने भारत के इस पड़ोसी पहाड़ी मुल्क़ का बड़ा नुकसान किया है।भारत के लिए यह कठिन कूटनीतिक समीकरण बनाती है। इसलिए कहना आसान नहीं है कि आने वाले दिन नेपाल और हिन्दुस्तान के बीच चटके रिश्तों में शहद घोलेंगे और इस छोटे से देश में सियासी स्थिरता आएगी। सन्दर्भ के तौर पर बता दूँ कि राजशाही समाप्त होने के बाद अब तक नेपाल के किसी प्रधानमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है।अब तक ग्यारह प्रधानमंत्री पद संभाल चुके हैं।  
क़रीब दो साल पहले इसी पन्ने पर मैंने नेपाल में सियासी स्थिरता को लेकर अपनी आशंकाएँ प्रकट की थीं । मैंने लिखा था कि छोटे छोटे दलों से मिलकर बनी प्रचंड की खिचड़ी सरकार शायद ही अपना कार्यकाल पूरा कर पाए।चिंता की बात यही है कि यह राजनीतिक अस्थिरता भारत का सिरदर्द बढ़ाने वाली है।सूत्रों का कहना है कि इस बार भी चीन के दूतावास ने ओली को प्रधानमंत्री बनाने में परदे के पीछे से बड़ी भूमिका निभाई है।भारतीय दूतावास इस मामले में व्यापक भूमिका नहीं निभा सका। वह चाहता तो नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री बनाने में सहायता कर सकता था । देउबा हमेशा भारत के साथ बेहतर संबंध बनाने के पक्ष में रहे हैं। नेपाली दूतावास की इसे कूटनीतिक कमज़ोरी भी माना जा सकता है।चिंता की बात यह है कि ओली एक बार फिर सीमा विवाद को हवा दे सकते हैं। कौन भूल सकता है कि ओली के पिछले कार्यकाल में ही भारत और नेपाल के बीच सीमा पर पहली बार बॉर्डर पोस्ट बनाए गए और नेपाली पुलिस ने भारतीयों पर गोलियाँ चलाई थीं। ओली ने ही कहा था कि भारत कालापानी से अपने सैनिक वापस बुलाए। वरना नेपाल अपनी ज़मीन खाली कराना भी जानता है। कालापानी के अलावा नेपाल ने लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को भी अपना इलाक़ा बताया था। कालापानी की स्थिति कुछ कुछ डोकलाम जैसी है।जब डोकलाम में चीन की दाल नहीं गली तो उसने नेपाल में भारत विरोधी जन आंदोलन को हवा दी । कुछ साल पहले नेपाल में भारत विरोधी आंदोलन तेज़ हो गए थे । इन प्रदर्शनों में कम्युनिस्ट पार्टी के साथ साथ नेपाली कांग्रेस भी शामिलथी ,जो अभी ओली सरकार को समर्थन दे रही है।कालापानी में 1962 के चीन भारत युद्ध के बाद से ही भारतीय सेना तैनात है।जम्मू कश्मीर और लद्दाख के विभाजन के बाद हिन्दुस्तान का नया नक़्शा जारी किया गया था।इसमें कालापानी को भारत में बताया गया है।कालापानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में क़रीब पैंतीस किलोमीटर की पट्टी है। काली नदी यहीं से निकलती है। नेपाल कहता है कि यह उसका क्षेत्र  है। इसका आधार वह 1961 में कराई गई जनगणना को बताता है। नेपाल का तर्क है कि उस समय भारत ने कोई ऐतराज़ नहीं दर्ज़ कराया था। इसलिए भारत वह पट्टी ख़ाली करे।भारत और नेपाल के रिश्ते अतीत में कितने ही मधुर रहे हों लेकिन हकीकत तो यही है कि बीते दस साल में नेपाल भारत से छिटका है और चीन के क़रीब गया है।
दरअसल  2015 में जब नेपाल ने अपना नया संविधान लागू किया तो भारत ने चाहा था कि उसमें मधेशियों और थारू समुदायों को समुचित प्रतिनिधित्व मिले। नेपाल ने इसे अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप माना था और विरोध जताया था।उसने आपत्ति जताई थी कि दिल्ली से गए विदेश मंत्रालय के एक आला अफसर काठमांडू में बैठकर नेपाल के अफसरों और राजनेताओं को निर्देश दे रहे हैं।यह अलग बात है कि जब चीन का दूतावास काठमांडू में ऐसी हरक़त करता है तो वह चुप्पी साधे रहता है।नेपाल मौटे तौर पर पहाड़ी और तराई क्षेत्रों में बंटा है। तराई में मधेशी और थारू जनजाति के लोग हैं ,जो भारत समर्थक माने जाते हैं। पहाड़ी इलाक़े में बसे नेपाली चीनी प्रचार का शिकार बने हैं।उनसे कहा गया है कि भारत नेपाल पर क़ब्ज़ा करना चाहता है। इसके बाद जब मधेशियों ने अपना आंदोलन छेड़ा तो भारत से जाने वाला सामान रुक गया। नेपाल ने इसे भारतीय आर्थिक नाकेबंदी माना और भारत की छबि बिगड़ने का प्रयास हुआ।इन्ही दिनों नेपाल में जब भीषण भूकंप ने भारी तबाही मचाई तो भारत ने ताबड़तोड़ वैसी ही सहायता दी थी ,जैसी वह अपने ही किसी प्रदेश को पहुँचाता। चीनी प्रोपेगंडा के तहत एक बार फिर प्रचारित किया गया कि भारत नेपाल में विस्तारवादी नीतियों के साथ दाख़िल हो रहा है। अफ़सोस की बात है कि नेपाल के नौजवान इन पर भरोसा करते दिखाई दे रहे हैं। अलबत्ता नेपाली कांग्रेस अभी भी कहीं कहीं ओली से फ़ासला बनाती दिखाई दे जाती है ,पर अब वह ओली के साथ है।देखना दिलचस्प होगा कि पिछले बरस पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प दहल प्रचंड के एक बयान से सियासत गरमा गई थी ,जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में भारतीय मूल के एक नेपाली सिख व्यापारी की बड़ी भूमिका रही है।ज़ाहिर है कि चीन इससे ख़फ़ा हुआ और उसने प्रचंड के नीचे से जाजम खींच ली। अब ओली उनके पुराने भरोसे वाले राजनेता हैं तो शेर बहादुर देउबा भारत समर्थक माने जाते हैं।उन्हें चीन किस तरह स्वीकार करेगा ?    
ओली और शेर बहादुर देउबा के दलों में जो आपसी सहमति की खबरें मिली हैं,उनके मुताबिक़ दोनों नेता प्रधानमंत्री पद पर आधा आधा कार्यकाल बाँटेंगे। इसके अलावा दोनों पार्टियों ने सात सूत्री एक फार्मूला तैयार किया है। इस पर मिल जुल कर काम किया जाएगा। इनमें एक बिंदु संविधान के कुछ प्रावधानों में परिवर्तन को लेकर भी है।इसके अलावा भारत के बारे में विदेश नीति के नए सिरे से निर्धारण की बात भी कही जा रही है।तलवार की इस नोक पर नेपाल कितने दिन चल सकेगा ,कहा नहीं जा सकता।

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