राजेश बादल
यह समाचार शुभ नहीं है। न्यूज़ 18 के डिजिटल संपादक दयाशंकर मिश्र की गलती यह है कि उन्होंने निजी समय से कुछ हिस्सा चुराकर किताब लिखी। इसके लिए उन्होंने अपने दफ़्तर के समय और संसाधनों का इस्तेमाल नहीं किया । यह किताब भारतीय लोकतंत्र की प्रमुख प्रतिपक्षी पार्टी कांग्रेस की रीति नीति और उसके पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी पर केंद्रित है । अपने खर्च पर उन्होंने किताब प्रकाशित की । जब इसकी सूचना उन्होंने प्रबंधन को दी, तो बखेड़ा खड़ा हो गया ।प्रबंधन ने कहा कि वे इस्तीफ़ा देकर चले जाएं या फिर बर्खास्तगी के लिए तैयार रहें ।दया शंकर मिश्र के पास इस्तीफ़ा देने के सिवा कोई चारा नहीं था। प्रबंधन इतना नाराज़ था कि उसने हिसाब किताब करने की ज़रूरत तक नही समझी और एक पैसा भी देने से इनकार कर दिया।दयाशंकर के मातहत रहे एक और युवा पत्रकार को भी दरवाज़ा दिखा दिया गया, क्योंकि उनके कंप्यूटर में दयाशंकर से जुड़ी कुछ सामग्री पाई गई थी ।
यह घटना भारतीय पत्रकारिता पर गहरे सवाल खड़े करती है । कुछ दशक पहले तक किसी पत्रकार ने सियासी मसलों पर या पक्ष अथवा प्रतिपक्ष की किसी शख्सियत पर किताब लिखी होती, तो यह उसकी अतिरिक्त योग्यता मानी जाती थी । जाने माने पत्रकार विजय त्रिवेदी ने अटल बिहारी वाजपेई और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर किताबें लिखी । उनके प्रबंधन ने स्वागत किया।एबीपी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख बृजेश राजपूत ने शिवराज सरकार के पतन और चुनाव के बाद कमलनाथ सरकार के गिरने पर दिलचस्प अंदाज़ में किताबें लिखीं।प्रबंधन को कोई एतराज़ नहीं हुआ ।धाकड़ पत्रकार स्वर्गीय शिवअनुराग पटेरिया ने अनेक किताबें लिखीं और उन पर कोई आपत्ति मैनेजमेंट ने नही की ।दीपक तिवारी और अभिलाष खांडेकर इसी कड़ी के नाम हैं। इससे पहले नेमिशरण मित्तल ,वेदप्रताप वैदिक,मृणाल पांडे तथा कई लेखक पत्रकार भी किताबें लिख चुके हैं।आज़ादी के बाद से ही ऐसी किताबें पत्रकार लिखते रहे हैं। किसी ने उन पर एतराज़ नहीं जताया ।
वैसे, भारतीय पत्रकारिता में इन दिनों जो माहौल है,वह गहराई के साथ पढ़ने लिखने से दूर करता है।ऐसे में कोई पत्रकार पुस्तकें लिख कर समसामयिक विषयों का दस्तावेजीकरण करता है तो उसका पत्रकार और लेखक बिरादरी को स्वागत करना चाहिए ।लेकिन उल्टा हो रहा है। मीडिया के तमाम अवतारों पर प्रबंधन की भूमिका मातहत पेशेवरों के अभिविन्यास और उन्हें पेशे के मुताबिक़ ढालने की कोशिश करने की नही हो रही है। क्या यह संभव है कि कलम और कैमरे पर पाबंदी लगा दी जाए और उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाए ? हमें पत्रकारिता को इस अंधी सुरंग में जाने से रोकना होगा ।