राजेश बादल
भारतीय राजनीति अपने संक्रमण काल का सामना कर रही है। किसी भी लोकतंत्र में यह कोई अस्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है। कालखंड के हिसाब से समाज और देश अपने आपको बदलता है तो उसकी शासन प्रणाली क्यों अपरिवर्तित रहनी चाहिए ? अभी तक बहुदलीय व्यवस्था भारतीय लोकतंत्र की ख़ास बात रही है।सदियों की ग़ुलामी के बाद जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ तो सबसे पहली आवश्यकता लोगों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बहाल करना था। भारतीय संविधान ने अभी तक इस देश को यह गारंटी दी है।किसी भी लोकतंत्र की बुनियादी शर्त सामूहिक नेतृत्व ही होता है।यह तभी संभव है,जब विविध संस्कृतियों और धर्मों की कोख़ से नेतृत्व की तमाम समान धाराएँ निकलें और राष्ट्र की मुख्य प्रशासनिक गंगा में समा जाएँ।हिन्दुस्तान में बीते पचहत्तर साल में ऐसा हुआ है।इसी कारण अलग अलग सभ्यतागत चरित्र,सामाजिक संरचना,आस्था और अपनी विभिन्न मान्यताओं-धारणाओं को स्वीकार करते हुए भारत दुनिया में अपने लोकतंत्र की साख़ क़ायम कर चुका है।ऐसा कोई भी देश नहीं है, जहाँ संस्कृति का इतना मिश्रित स्वरूप देखने को मिलता हो।इसलिए बहुदलीय लोकतंत्र यहाँ के लिए सर्वाधिक अनुकूल प्रणाली लगती है।लेकिन हाल के राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम और सियासत के बदलते चरित्र के मद्देनज़र नए सिरे से यह बहस अनिवार्य लगने लगी है कि तेज़ी से भाग रही दुनिया में भारत के लिए क्या अपनी राजनीतिक संरचना में परिवर्तन आवश्यक हो गया है ?
वैसे तो पश्चिम और यूरोप के अनेक विकसित देशों में दो दलों की प्रधानता कामयाबी से चल रही है। वहाँ के साक्षर और समझदार समाज ने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है कि आज के संपन्न संसार में अनेक वैचारिक धाराओं की वैसी ज़रुरत नहीं रही है ,जैसी पचास साल पहले होती थी।आज व्यावहारिक तौर पर देखें तो समाजवाद की अवधारणा बासी पड़ चुकी है। जिस दौर में पूँजी का इतना बोलबाला हो ,उसमें सभी वर्गों के लिए समानता की बात करना अव्यावहारिक सा लगता है। यही हाल वामपंथी विचारधारा का है। अधिकारों और अपने हक़ के लिए कितनी आबादी सड़कों पर आती है ? अब तो मानव श्रम का शोषण रोकने केलिए और कार्य संस्कृति के लिए बनाए गए क़ानून भी बेमानी से हो गए हैं।आज जम्हूरियत के नाम पर एक लचीली और व्यावहारिक दक्षिण पंथी धारा दिखाई देती है। इस प्रणाली में नीति निर्धारण के काम में सामूहिक नेतृत्व का कोई ख़ास प्रभाव नहीं दिखाई देता। चाहे वह अमेरिका हो, ब्रिटेन हो या फिर रूस ,चीन या कई अफ़्रीक़ी मुल्क़।कमोबेश सारे राष्ट्र एक ताक़तवर चेहरे को पसंद करते दिखाई देते हैं। यही लोकतंत्र का आधुनिकतम संस्करण है ,जिसमें अधिनायकवादी गंध भी आती है ।मगर ,वर्तमान उपभोक्तावादी समाज में उसे कोई बहुत आपत्तिजनक नहीं माना जा रहा है।यही कारण है कि सुख सुविधाओं से परिपूर्ण समाज को सिद्धांतों की अधिक चिंता नहीं है।
भारतीय सन्दर्भ में भी यह बात समझी जा सकती है।यहाँ दो पार्टियाँ - भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ही अपना अस्तित्व राष्ट्रीय स्तर पर बचाकर रखे हुए हैं।उनका आकार घटता बढ़ता रहता है। पर,यह सच है कि वे छोटे दलों को अपनी सहूलियत के हिसाब से ही अवसर देती हैं। क्षेत्रीय दलों को देखें तो पाते हैं कि वे अपने आप में अभी तक संपूर्ण दल नहीं बन पाए हैं।अधिकतर प्रादेशिक पार्टियाँ एक ही राज्य में अपना वजूद बचाकर रखे हुए हैं।उनका आधार मुख्यतया जातिगत है। कोई भी क्षेत्रीय दल ऐसा नहीं है ,जो समग्र समाज की नुमाइंदगी करता हो। बेशक उन्हें तमाम वर्गों के वोट मिलते हैं। लेकिन उनकी आंतरिक संरचना में जाति और परिवार ही प्रधान है। व्यापक नज़रिए से देखें तो यह लोकतांत्रिक भावना के अनुरूप नहीं है।अनुभव तो यही कहता है कि जब जाति और परिवार सरकार चलाने में महत्वपूर्ण होता है,तब समाज की विविध - सामुदायिक नुमाइंदगी की धारा सूखने लगती है। इसके अलावा उनका कोई वैचारिक आधार नहीं होने से वे अपने अपने स्वार्थों के आधार पर सत्ताधारी राष्ट्रीय दल के साथ गठबंधन या समझौते करने लगती हैं। जब केंद्र में सत्ता बदलती है तो वे नए सिरे से अपने पारिवारिक,जातिवादी,आर्थिक और कारोबारी हितों को ध्यान में रखते हुए मोलभाव करती हैं। ऐसे माहौल में वैचारिक बुनियाद बनाए रखना बेहद कठिन हो जाता है। राष्ट्रीय राजनीति में अस्थिरता आती है। कोई भी सरकार इसे पसंद नहीं करती।जब किसी राष्ट्रीय दल का पिछलग्गू बनकर ही रहना है तो क्यों न उस पार्टी का हिस्सा बनकर पक्ष या प्रतिपक्ष का स्वर ताक़तवर बनाया जाए। यही देश हित में है।
इसके अलावा एक कठिनाई और है।क़ानून के मुताबिक़ उन्हें निश्चित रूप से अपना पार्टी संविधान और आचरण संहिता तैयार करनी पड़ती है। निर्वाचन आयोग से लेकर तमाम न्यायिक प्रक्रियाओं में उसका उपयोग होता है।पर,व्यावहारिक रूप से उस संविधान और आचरण संहिता का कोई दल पालन नहीं करता। संविधान के मुताबिक़ उनमें तय वक़्त पर संगठन चुनाव भी नहीं होते।एक गुट या परिवार का रौब होता है। समूची पार्टी उसे सिर झुकाकर स्वीकार करती है। यह भी स्वस्थ्य लोकतंत्र को सुनिश्चित नहीं करती। याने समूचा तंत्र ऐसे मार्गदर्शक सिद्धांतों की ओट में चला जाता है ,जो कभी भी लागू नहीं होते। मध्य युग में सामंत या राजा के सामने दरबारी सिर झुकाकर उसके निर्णयों का सम्मान करते थे। आज भी पार्टियों का संगठन बिना बहस के दिशा तय करने से लेकर सारे निर्णय करने का अधिकार पार्टी सुप्रीमो या अध्यक्ष के हाथ में सौंप देता है। अतीत गवाह है कि एक व्यक्ति का निर्णय तो ग़लत हो सकता है ,मगर सामूहिक फ़ैसले कम ही ग़लत निकलते हैं। तो क्या हम आने वाले दिनों में भारतीय लोकतंत्र में दो पार्टियों की व्यवस्था देख सकते हैं ?