राजेश बादल
हमारे सियासी सोच को क्या हो गया है ?अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ हिन्दुस्तान के लिए दिन प्रतिदिन जटिल होती जा रही हैं।एक के बाद एक हमारे पड़ोसी राष्ट्र चुनौतियाँ खड़ी कर रहे हैं और हम ख़ामोश हैं।हमारी संसद के दोनों सदनों में अभी तक इस बारे में कोई चिंता नहीं दिखाई दी है।( वैसे चिंता तो तब नज़र आए,जब दोनों सदनों में कार्रवाई सुचारु रूप से चले )।मुल्क़ की इस सर्वोच्च पंचायत में मोहल्ला या नगरपालिका स्तर के विषयों पर हमारे जन प्रतिनिधि सिर पर संसद उठा लेते हैं लेकिन उन हालातों पर उनके सोच और ज़बान पर ताला लग जाता है ,जो भारतीय लोकतंत्र को ग्रहण लगाने वाले होते हैं।वे समझते हैं कि देश को अखंड और सुरक्षित बनाए रखने की ज़िम्मेदारी केवल सेना,नौकरशाही और थोड़ी बहुत सरकार की है।इसलिए हालिया दौर में बरसों से संसद में परदेसी मामलों पर कोई उत्कृष्ट बहस या चर्चा नहीं हुई।यह विडंबना है कि एक औसत सांसद को चुनाव जीतने के गुर तो आते हैं ,लेकिन विदेश नीति से जुड़े मसलों पर उसकी जानकारी लगभग शून्य ही होती है।
यहाँ किसी जन प्रतिनिधि को आहत करने की मेरी कोई मंशा नहीं है। यक़ीनन कुछ जन प्रतिनिधि इन मामलों में बेहतरीन जानकारी रखते हैं ,लेकिन क्या इन्हें अपनी योग्यता के आधार पर संसद में अपनी बात रखने या बहस की दिशा को मोड़ने का अवसर मिलता है ? शायद नहीं। संसद के दोनों सदनों के सचिवालाय प्रत्येक नए सांसद को सदन के भीतर की कार्यशैली समझाने कार्यशालाएँ आयोजित करते हैं। मगर , हिन्दुस्तान की रक्षा और विदेश नीति के पेंचों को समझाने के लिए आयोजन नहीं होता। ज़ाहिर है इन जन प्रतिनिधियों की ओर से सदनों में वैदेशिक मामलों को उठाने वाले सवाल भी न्यून ही होते हैं। विदेश और रक्षा भी छोड़ दें तो कितने संसद सदस्य ऐसे हैं ,जो औद्योगिक परिवेश,कृषि क्षेत्र के बारीक़ मुद्दे ,जंगल से लेकर विज्ञान,शिक्षा और अंतरिक्ष से लेकर आदिवासियों के बारे में अध्ययन करते हैं और सवाल उठाते हैं।इसका उत्तर भी निराशा जनक है। एक संसद की कुर्सी पर 50000 रूपए की गड्डी पर वे तमाशा खड़ा कर सकते हैं ,उसे केंद्र में रखकर मुख्य विषय से संसद को भटका सकते हैं,पर गंभीर मामलों पर उनका ध्यान नहीं जाता। घरेलू मसले उन्हें नहीं दिखते .मँहगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार पर वे मुँह नहीं खोलना चाहते. लेकिन भारत के पास पड़ोस का घटनाक्रम भी उन्हें नहीं नजर आता. चाहे वह भारत को दूर गामी दृष्टि से परेशानी में डालने वाला हो.
चंद उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट करता हूँ। भारत के सिर पर याने उत्तर में चीन का रवैया छिपा नहीं है. अब उसने पाकिस्तान को मोहरा बनाकर उत्तर के साथ पूर्व में बांग्लादेश को भारत का कट्टर विरोधी बनाकर करारा झटका दिया है. इन दिनों बांग्लादेश को भारत फूटी आंखों नहीं सुहा रहा है. जिसकी कोख से वह निकला और जिसके कारण उसका आज अस्तित्व है,उसी पर हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहा है.यह हमारे राजनयिकों के लिए कोई पहेली नहीं होनी चाहिए कि बांग्लादेश अपने दम पर यह नहीं रहा है.निश्चित रूप से इसके पीछे एक महाशक्ति है.शेख हसीना उसके बारे में खुलासा कर चुकी हैं. इसके बाद अमेरिका के पिछलग्गू ब्रिटेन ने एक बड़ा फ़ैसला किया है. यह निर्णय किंग चार्ल्स ने किया है.उन्होंने भारतीय समुदाय के दो नेताओं को दिए सम्मान वापस ले लिए हैं।इनमें से एक बांग्लादेशी हिंदुओं के लिए बात करने के कारण शिकार बना और दूसरा भारतीय प्रधानमंत्री का समर्थन करने के कारण किंग चार्ल्स का कोप भाजन बना । ब्रिटेन में भारतीय मूल की यह दो प्रमुख शख़्सियत रामी रेंजर और हिंदू काउंसिल यूनाइटेड किंगडम के प्रबंध न्यासी अनिल भनोत हैं।दोनों से यह सम्मान वापस ले लिए गए हैं।तीन दिन पहले 'लंदन गजट' में यह घोषणा की गई है । दोनों से अपना प्रतीक चिन्ह बकिंघम पैलेस को लौटाने के लिए कहा जाएगा। रेंजर और भनोट ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताया है।यह एक ताज़ी घटना है ,लेकिन सीधी बात यह है कि ब्रिटेन भी जो बाइडेन के पीछे खड़ा है ,जिन्होंने एक द्वीप अमेरिका को नहीं सौंपने के कारण शेख हसीना की सरकार गिराने का प्रपंच रचा था। अब वहाँ मंदिरों पर हमले हो रहे हैं ,मूर्तियाँ तोड़ी और जलाई जा रही हैं तथा अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहे हैं।पाकिस्तान के लोगों को बिना सुरक्षा जांच के बांग्लादेश में प्रवेश की इजाज़त दे दी गई है और भारतीयों की संख्या में कटौती कर दी गई है। कटौती सरकार के सामने शायद अगला संकट यही होगा कि वह बांग्ला भाषा कैसे छोड़े ? यह तो भारतीय भाषा है। लेकिन इस मसले पर हमारी संसद ख़ामोश है।
अब नेपाल की बात करते हैं। नेपाल की चीन परस्त सरकार ने हाल ही में चीन की बेल्ट एंड रोड योजना में शामिल होने की मंज़ूरी दे दी है। पाँच दिन की यात्रा के बाद नेपाली प्रधानमंत्री चीन से लौटे हैं। यह नेपाल सरकार की विदेश नीति में बड़ा परिवर्तन है। नई सरकार आने के बाद यह चीन के दबाव और प्रभाव में है। क्या भारत की संसद में कभी एक मिनट भी चर्चा की गई कि भारत के इर्द गिर्द घेराबंदी के पीछे किन राष्ट्रों का हाथ है और भारत के लोग किस तरह इसका मुक़ाबला कर सकते हैं। यह संसद का वह रूप है ,जो किसी बौद्धिक भारतीय को पसंद नहीं आएगा।यह अफसोसनाक है कि भारतीय संविधान के 75 वें वर्ष में संसद का यह सत्र ऐसे उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है ,जिसमें संविधान बनाने वालों की मंशा का आदर नहीं दिखाई देता। क्या अभी भी हमारे जन प्रतिनिधि कोई सबक़ लेंगे ?