राजेश बादल
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की दौड़ से जो बाइडेन के अलग होने के बाद भी वहाँ के आभिजात्य लोकतंत्र पर मंडरा रहे घने काले बादल दूर होने के आसार नहीं हैं ।निर्वाचन के ज़रिए राष्ट्रपति चुन लेना एक बात है और मुल्क़ में दूरगामी शांति,स्थिरता तथा विकास को रफ़्तार देना दूसरी बात।दशकों से वैश्विक राजनीति में अमेरिका एक चौधरी जैसी स्थिति में है।लेकिन अब उसकी चौधराहट ख़तरे में दिखाई दे रही है।बराक़ ओबामा के बाद अमेरिकी मंच पर जो नायक अवतरित हुए,उन्होंने अपनी नीतियों से पद की गरिमा और मर्यादा को बाज़ार में उछाल दिया है।संसार इन दिनों जिन हालात का सामना कर रहा है,उसमें अमेरिका ने सिर्फ़ अपनी चिंताओं को प्राथमिकता दी है।यह अमेरिका की उस छबि से भिन्न है,जो दुनिया भर में छोटे और विकासशील देशों को भी पालता पोसता था।गुट निरपेक्ष आंदोलन के बिखरने के बाद तीसरी दुनिया के देशों का स्वर मद्धम पड़ा है।कुछ समय तक तो वैश्विक चौधरी उनकी देखभाल का अभिनय करता रहा। शनैः शनैः उसने ख़ुद को समेट लिया।अब वह एक अधिनायक की भूमिका में है।अन्य देशों से अधिनायक अपेक्षा करता है कि वे अमेरिकी स्वार्थों की रक्षा करें।लेकिन उन देशों के हित संरक्षण के लिए वह तैयार नहीं है।डोनाल्ड ट्रंप ने इस एकतरफा अपेक्षाओं पर सर्वाधिक ज़ोर दिया था।डोनाल्ड ट्रंप ने अपने कार्यकाल में इतने शातिर झूठ बोले थे कि शेष विश्व ने उन पर भरोसा करना ही छोड़ दिया था।अमेरिका के एक बड़े अख़बार ने तो ट्रंप के झूठ कथनों पर ख़ास परिशिष्ट ही प्रकाशित किया था।अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में वे इतने अलोकप्रिय हो गए थे कि उनके मुक़ाबले जो बाइडेन को जीतने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर नहीं लगाना पड़ा।ग़ौरतलब है कि बाइडेन भी कम झूठे नहीं हैं। उनके झूठ के चुटकुले भी प्रचलित हैं।अब जो बाइडेन अपने काम की शैली से अमेरिकी अवाम को नाराज़ कर बैठे हैं।उनके खाते में उपलब्धियाँ ही नहीं हैं।इसलिए ट्रंप पर भरोसा करना अमेरिका के भद्रलोक की मजबूरी भी है। पर,जो बाइडेन के स्थान पर कमला हैरिस की उम्मीदवारी से मामला रोचक और रोमांचक हो सकता है।
दरअसल कमला हैरिस के लिए भी राष्ट्रपति पद दूर की कौड़ी है।उपराष्ट्रपति रहते हुए उनके अपने खाते में याद रखने लायक कुछ ख़ास नहीं है।उतना भी नहीं ,जितना बराक़ ओबामा के कार्यकाल में उपराष्ट्रपति रहते हुए जो बाइडेन ने कमाया था।अगर मैं पिछले चुनाव पर नज़र डालूँ तो जो बाइडेन और कमला हैरिस की जोड़ी से अमेरिका के आम मतदाता ने बड़ी उम्मीदें लगाईं थीं।मगर जोड़ी ने निराश किया।कमला और बाइडेन के मतभेद सार्वजनिक हो गए और कमला ने अपने को अलग खोल में बंद कर लिया।वे अश्वेतों का भला नहीं कर पाईं ,जबकि उनके नाम पर अश्वेतों और महिलाओं ने पार्टी को वोट किया था।इस बीच मुल्क़ की समस्याएँ दिनों दिन विकराल होती गईं,विदेश नीति ढुलमुल रही,आर्थिक चुनौती विकट हुई और अमेरिका सरपंच की भूमिका से अपने को उतार बैठा।यहाँ तक कि यूरोपीय राष्ट्रों से भी उसके संबंधों में वह गरमाहट नहीं रही।
भारत के सन्दर्भ में डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन की तुलना की जाए तो दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं।ट्रंप अपने जीतने के लिए भारतीय लोकतंत्र का दुरूपयोग करते रहे और भारतीय प्रधानमंत्री को अपने प्रचार में ले गए।नरेंद्र मोदी अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा देकर आए।भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था,जब इस देश ने दूसरे देश के चुनाव में एक पार्टी के पक्ष में प्रचार किया।लेकिन एक अवसर यह भी आया कि उन्होंने ईरान से भारत के बेहतर रिश्तों में खटास डालने का काम किया।उन्होंने ईरान पर प्रतिबन्ध लगाए लेकिन उसका घाटा भारत को हुआ।इंदिरा गांधी ने जिस चाबहार बंदरगाह की नींव डाली थी, उससे भारत को मिलने वाला लाभ सिकुड़ गया।भारत को अपना तेल आयात भी कम करना पड़ गया।जब अमेरिकी सेना को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकालना था तो ट्रंप ने तालिबान से समझौते के लिए पाकिस्तान को भरोसे में लिया ।भारत को पूछा तक नहीं और भारत का अरबों का पूँजीनिवेश बेकार गया।जब तब भारत के ख़िलाफ़ ट्रंप के बड़बोले बयान भी घनघोर आपत्तिजनक थे।एक बार उन्होंने कहा कि भारत जितना अफ़ग़ानिस्तान में खर्च कर रहा है ,उतना तो अमेरिका सिर्फ़ एक दिन में वहां ख़र्च करता है। अफ़ग़ानिस्तान में भारत की ओर से पुस्तकालय बनाने की भी उन्होंने खिल्ली उड़ाई थी।एच 1 वीज़ा निलंबित करने के उनके फैसले से भारतीय बड़े नाराज़ रहे थे।
इसी तरह जो बाइडेन का कार्यकाल रहा।जो बाइडेन और कमला हैरिस दोनों ही भारत की कश्मीर नीति के कट्टर आलोचक थे।इसलिए उन्होंने चुनाव जीतने के बाद भी भारत से दूरी बनाए रखी।रूस - यूक्रेन जंग में वे भारत से अपेक्षा करते रहे कि वह रूस से तेल आयात बंद कर दे और यूरोपीय देशों की तरह पिछलग्गू बना रहे।भारत की भौगोलिक और सामरिक प्राथमिकताओं को वे समझने के लिए तैयार नहीं थे।चीन और पाकिस्तान से शत्रुतापूर्ण संबंधों के बाद वे चाहते थे कि रूस से भी भारत के रिश्ते बिगड़ जाएँ।अमेरिका के उप सुरक्षा सलाहकार और एक फौजी कमांडर हिन्दुस्तान आकर धमकाने वाली भाषा बोल कर जाते हैं।उसके बाद भारत में उसके राजदूत ने भारत को चेतावनी दे डाली थी।भारत कैसे भूले कि इतिहास में हरदम अमेरिका ने पाकिस्तान का ही साथ दिया है ।चाहे वह 1965 की जंग हो या फिर 1971 की , और रूस ने भारत के साथ भरोसे वाली दोस्ती निभाई थी।जब चीन के साथ भारत की डोकलाम में ख़ूनी भिड़ंत हुई तो अमेरिका ने तीन दिन चुप्पी ओढ़ ली थी। उसके बाद भी उसका निरर्थक बयान आया था ।बीते दिनों मैंने इसी पन्ने पर लिखा था कि रूस- चीन तो आपस में लंबी जंग लड़ चुके हैं,पर भारत और रूस के रिश्ते इतने गहरे हैं कि उन पर कोई ख़तरा नहीं है।लब्बोलुआब यह कि अमेरिका का जो भी नया नियंता बने, उसे अपने अधिनायकवादी सोच पर संयम रखना होगा और लोकतांत्रिक सिद्धांतों का साथ देना होगा।ट्रंप पर अमेरिकी मतदाता कितना भरोसा करेंगे - कहना मुश्किल है।दूसरी तरफ़ कमला हैरिस की राह भी आसान नहीं है।वे अश्वेतों के साथ भेदभाव नहीं रोक पाई हैं। अमेरिकियों के हितों की रक्षा नहीं कर पाईं ,भारत के लिए कुछ करने की बात तो बहुत दूर है ।उपराष्ट्रपति के रूप में उनका कार्यकाल भी मतदाता अब भूल जाना चाहते हैं।