अरविंद कुमार सिंह
एक आदमी, रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
संसद के मानसून सत्र में गतिरोध के संदर्भ में हिंदी के विख्यात कवि सुदामा पांडेय धूमिल की चर्चित कविता रोटी और संसद काफी सार्थक बैठती है। संसद के मानसून सत्र में मणिपुर पर चर्चा को लेकर विपक्षी सांसदों औऱ सरकार के बीच काफी गहरी तकरार देखने को मिली। 31 जुलाई, 2023 को नियम 267 के तहत मणिपुर पर चर्चा के लिए विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के रिकार्ड 68 सदस्यों ने नोटिस दिया, जिसे सभापति ने खारिज कर दिया। मानसून सत्र के आरंभ से दोनों सदनों में 20 जुलाई से विपक्ष मणिपुर पर विस्तृत चर्चा को लेकर आंदोलित रहा। उसकी मांग थी कि प्रधानमंत्री संसद में आकर मणिपुर पर बयान दें। लेकिन सदन में सत्ता पक्ष का तेवर भी कमोवेश विपक्ष जैसा ही रहा। समाधान निकालने की जगह नेता सदन ने राज्य सभा में ऐसा भड़काऊ बयान दे दिया कि सत्ता पक्ष औऱ विपक्ष के बीच संबंधों में और खटास आयी।
दिलचस्प बात यह है कि सदन में विपक्ष विरोध के परंपरागत तरीके पर काम कर रहा है, जबकि सत्तापक्ष ने सदन को बाधित करने की नयी परंपरा पिछले सत्र से शुरु कर दी थी, जब 45 लाख करोड़ रुपए का बजट बिना किसी चर्चा के पास कर दिया गया। जबकि मानसून सत्र में बिना विपक्ष की भागीदारी के विधेयकों के पास करने का क्रम जारी रहा। हालांकि अविश्वास प्रस्ताव पर लोक सभा में और दिल्ली विधेयक पर राज्य सभा में काफी जोरदार चर्चा हुई। लेकिन प्रधानमंत्री ने मणिपुर पर बहुत निराश किया।
मानसून सत्र को लेकर पहले काफी कौतूहल था क्योंकि उसे नए संसद भवन में होना था। 28 मई को उसका उद्घाटन हो चुका था लेकिन रात दिन काम के बाद भी उसमें इतना काम बाकी था कि सत्र कराना संभव नहीं था इस कारण यह पुराने भवन में ही 20 जुलाई,2023 से आरंभ हुआ। सरकार को पहले से अंदाजा था कि मणिपुर, देश के विभिन्न भागों में बाढ़ और बालासोर रेल दुर्घटना जैसे कई मुद्दों पर विपक्ष चर्चा चाहता है। सरकारी पक्ष ने सत्र के पहले समान आचार संहिता को तूल पकड़ाया गया। सर्वदलीय बैठक हुई तो सरकार ने कहा कि वह सभी विषयों पर चर्चा के लिए तैयार है।
सदन की बैठकें आरंभ हुईं तो विपक्ष ने लगातार लोक सभा में नियम 56 के तहत कार्यस्थगन प्रस्ताव रखा और राज्य सभा में नियम 267 के तहत लगातार नोटिसें देता रहा, लेकिन इसके तहत सरकार चर्चा से मुकर गयी। इन नियमों के तहत दोनों सदनों में लंबी चर्चा के साथ वोटिग का प्रावधान भी है। सरकार अल्पकालिक चर्चा के लिए तैयार थी, जिसे ढाल बना कर विपक्ष पर हमला किया गया कि वह मणिपुर पर चर्चा से भाग रही है।
राज्य सभा में नेता सदन पीयूष गोयल के प्रस्ताव पर 24 जुलाई से आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह को पूरे मानसून सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया तो सत्ता पक्ष और विपक्षी गठबंधन के बीच टकराव बढ गया। संजय सिंह धरने पर बैठ गए। वरिष्ठ सांसद प्रो. राम गोपाल यादव ने निलंबन को बेहद दुखद माना और कहा कि संजय सिंह चेयर से महज ये पूछने गए थे कि उनके नोटिस का क्या हुआ। इस निलंबन के विरोध में विपक्षी गठबंधन इंडिया के साथ बीआरएस नेता भी शामिल हुए थे।
इस घटना के बाद सत्ता पक्ष के बड़े नेता विपक्ष को मनाने की जगह ललकारते दिखे। 27 जुलाई को विरोध स्वरूप जब विपक्षी सांसदो ने काले कपड़े पहनकर सदन में पहुंचे तो पीयूष गोयल ने दोनों सदनो में लिखी एक तीखी और बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी पढ़ी, जिसेस विपक्ष और भड़क गया। सत्तापक्ष के सांसदों ने नारेबाजी आरंभ कर दी काला कपड़ा काला काम, नहीं सहेगा हिंदुस्तान। सब कुछ लाइव दिख रहा था इस नाते सबको इस बात का आभास है कि कौन किस भूमिका में रहा। सदन में नवें दिन भी पीयूष गोयल ने यह कहते हुए विपक्ष पर हमला बोला और कहा कि ‘जब सरकार मणिपुर पर चर्चा करने के लिए तैयार है तो विपक्ष क्यों भाग रहा हैं। देश देख रहा है, मैं हैरान हूं कि डिबेट से भागकर विपक्ष क्या संदेश देना चाहता है। ये लोग क्या छिपाना चाहते हैं। इनकी दाढ़ी में कुछ काला है। कोई न कोई तकलीफ है, जिससे ये भाग रहे हैं, ये मणिपुर की सच्चाई सामने नहीं लाने दे रहे हैं।’
ये तो राज्य सभा की तस्वीर थी, लोक सभा में आखिरी दांव के रूप में विपक्ष ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का हथियार उपयोग किया। वहां विपक्ष के पास सीमित संख्या बल है, लिहाजा इसका सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडता। पर विपक्षी नेताओं ने इस हथियार का उपयोग इस कारण किया कि विस्तार से चर्चा का मौका मिलेगा और प्रधानमंत्री को यहां जवाब देना पड़ेगा। मणिपुर के साथ दूसरे अहम सवालों पर भी विपक्षी सांसद व्यापकता से बात रख सकेंगे।
सदन में प्रधानमंत्री के बयान पर सवाल
मानसून सत्र में विपक्ष की मांग रही कि प्रधानमंत्री संसद में आकर मणिपुर पर बयान दें। तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रधानमंत्री का बयान सदन में होता रहा था। पूर्वोत्तर के लोगों में असुरक्षा के मुद्दे पर 2012 में जब भाजपा ने प्रश्नकाल को रोक कर चर्चा की मांग की थी। 17 अगस्त, 2012 को चर्चा हुई थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने दोनों सदनों में बयान दिया था। दूसरे तमाम मौकों पर ऐसा हुआ भी था।
यह संसदीय परंपरा यही रही है कि जिस मंत्रालय से संबंधित विषय पर चर्चा होती है, उसका प्रभारी मंत्री सदन में मौजूद होता है और चर्चा का वही जवाब देता है। पर मणिपुर का मसला एकदम अलग तरीके का होने का कारण प्रधानमंत्री अगर मनमोहन सिंह की तरह अपनी बात रखते तो यह अनहोनी नहीं होती लेकिन सत्तापक्ष इसी पर कायम रहा कि प्रधानमंत्री सदन में बयान नहीं देंगे। पीठासीन अधिकारी इसी पर अड़े रहे। इसके पहले नोटबंदी के मसले पर काफी गतिरोध रहा। विपक्षी दलों ने एकजुटता से नोटबंदी के मसले पर प्रधानमंत्री को सदन में उपस्थित होने की मांग की थी तब कहा गया था कि यह वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक से जुड़ा है लिहाजा वित्त मंत्री जवाब देंगे। पर विपक्ष का कहना था कि जब संसद का शीतकालीन सत्र आहूत हो गया तो भी संसद को भरोसे में लिए बिना प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में नोटबंदी का ऐलान किया। सारा फैसला प्रधानमंत्री का था। उस दौरान नोटबंदी के मसले पर नियम 267 के तहत चर्चा विपक्ष के दबाव में हुई।
शक्तिमान सदन पर उठते सवाल
बिना चर्चा के अवरोधों से घिरी संसद बेशक चिता का विषय है। क्योंकि हमारी संसद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे शक्तिशाली संस्था है, जहां दोनो सदनों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के तमाम सवालों पर जन प्रतिनिधि चिंतन-मनन के साथ जटिल सवालों के समाधान निकालत रहे हैं। संसद की गंभीर बहसों के आधार पर ही सरकारी नीतियां बनती-बदलती रहीं। हमारा संविधान सर्वोपरि है पर संवैधानिक सत्ता की सर्वोच्च संप्रभु संस्था संसद ही है जो विधि निमात्री है और उसके पास संविधान संशोधन तक का अधिकार है।
भारत दुनिया का 5वां सबसे बड़ा गणतंत्र और आबादी के लिहाज से सबसे बड़ा लोकतंत्र है। करदाताओं का काफी पैंसा संसद पर व्यय होता है। एक सांसद पर भारत में करीब पांच कर्मचारी संसद में काम करते हैं, जबकि विश्व औसत 3.76 है। करीब 1200 करोड़ रुपए का व्यय दोनो सदनों पर होता है। भारत की संसदीय प्रणाली की सरकार सामूहिक दायित्व के सिद्धांत पर आधारित है जिसका मतलब है कि मंत्री अपनी नीतियों एवं कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी हैं। संसद सरकारी खजाने की एकमात्र स्वामी है, जिसके इजाजत बिना सरकार कुछ व्यय नहीं कर सकती। संविधान ने सरकार को संसदीय प्रभुता के अधीन रखा है। सरकार संसदीय विश्वास पर ही टिकी रहती है। विपक्ष ध्यानाकर्ष के लिए संसद में नए-नए तरीके अख्तियार करता है।
वैसे तो देश में निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की लंबी कड़ी है पर सांसद उसमें सर्वोच्च हैं। संसद में सांसद प्रश्न, प्रस्ताव, अविश्वास और अभिभाषणों पर वाद विवाद के द्वारा जवाबदेही तय करते हैं। संसद अपनी प्रक्रियाओं को खुद रेगुलेट करती है। उसकी कार्यवाही की वैधता को अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती है। पर यह सब तभी हो सकता है जब संसद सही तरीके से चले।
मणिपुर पर विपक्ष की ओर से व्यापक चर्चा की मांग को खारिज करना हाल के महीनों का एकमात्र मसला नहीं है। इससे पहले पेगासेस, ऱाफेल विमानों की खरीद पर विवाद, बेरोजगारी, महंगाई, अंधाधुंध निजीकरण, बैंकों के विलय, कृषि कानूनों, विधायकों की खरीद-फरोख्त, लखीमपुर खीरी कांड जैसे कई मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की मांग अनसुनी हुई। 14वीं और 15 वीं लोकसभा में जहां कई ज्वलंत विषयों पर 113 अल्पकालिक चर्चाएं हुई थीं, 16वीं और 17वीं लोक सभा के दौरान इनकी संख्या घट कर चार दर्जन से भी कम पर आ गयी। विधायी कामकाज पर भी बहुत से सवाल उठ रहे हैं। खास तौर पर 2014 के बाद सदन की बैठकों और पारित विधेयकों की तस्वीर इस प्रकार है
साल लोक सभा की बैठक राज्य सभा की बैठक पारित विधेयक
2014 67 64 38
2015 72 69 36
2016 54 56 43
2017 61 61 44
2018 63 65 33
2019 67 65 49
2020 33 33 39
2021 59 58 49
2022 56 56 25
संसद में अधिकतम बैठक 1956 में पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल में साल भर में 151 हुई थी। लेकिन बीते एक दशक का औसत 63 बैठकों से कम है। कोरोना महामारी को अपवाद माना जा सकता है। इसके बाद सामान्य स्थिति हुई तो भी हालात बदलते गए और मीडिया को भी सीमित संख्या में संसद सत्र के दौरान अनुमति दी जा रही है। आम लोगों का संसद मे प्रवेश बहुत सीमित आधार पर हो रहा है।
घटती चर्चा, बढते अवरोध
आजादी के बाद पहली से लेकर तीसरी लोक सभा यानि 1952 से 1967 तक संसद के दोनों सदनों में ठीक-ठाक चला, लेकिन इसके बाद हालात बदलते-बदलते अब चिंताजनक स्तर पर हैं। दसवीं लोक सभा (1991-96) से बाद अवरोध और स्थगन से खराब हुए समय के उपलब्ध आंकड़े हालात कि गंभीरता बताते हैं। संसदीय कार्य मंत्रालय, लोक सभा और राज्य सभा के दस्तावेज भी कई तथ्यों की गंभीरता को दर्शाते हैं।
आंकड़ों के मुताबिक 10वीं लोक सभा में कुल समय का 9.95% अवरोधों के चलते बर्बाद हुआ। 11वीं लोक सभा में 5.28%, 12वीं लोक सभा में 11.93%, 13वीं लोक सभा में 18.95 %, 14वीं लोक सभा यानि यूपीए-1 के दौरान 2004 से 2009 के बीच 19.58% समय अवरोधों ने नष्ट किया। तब 332 बैठकों में 1736 घंटे 55 मिनट कामकाज हुआ और 423 घंटा अवरोधों में नष्ट हुआ। हालांकि इस दौरान पारित 258 विधेयकों में सूचना अधिकार, मनरेगा, घरेलू हिंसा, बाल अधिकार जैसे ऐतिहासिक विधेयक शामिल थे।