राजेश बादल
एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र के कामकाज और उसके स्वरूप में बदलाव पर भारत ने ज़ोर दिया है। पहली बार उसने गंभीर चेतावनी भी दी है। इससे पहले उसने अनेक अवसरों पर शिखर संस्था में बदलाव और उसके मौजूदा रवैए पर समूचे का ध्यान खींचा है। लेकिन,विकसित सदस्य देशों ने कभी उसकी बात पर ग़ौर नहीं किया। इस बार हिन्दुस्तान के सुर बेहद अलग अंदाज़ में निकले। संयुक्त राष्ट्र में स्थायी प्रतिनिधि रुचिरा कम्बोज ने साफ़ और स्पष्ट शब्दों में कहा कि अब यदि संयुक्त राष्ट्र में सुधार नहीं किए गए तो यह संस्था ग़ुमनामी में खो जाएगी। संगठन ख़तरे में पड़ जाएगा और विश्व के विकासशील देश वैकल्पिक राह चुनने के लिए आज़ाद होंगे। यह स्थिति अच्छी नहीं है और संकेत करती है कि जिस उद्देश्य से इस वैश्विक संस्थान का गठन किया गया था ,वह पूरा नहीं हो रहा है। छोटे - बड़े मुल्क़ों में गहन असंतोष है। अभी इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले दिनों में यह आर्गेनाईजेशन चंद देशों की जेब में जाकर बैठ जाएगा।उन्होंने आग़ाह किया कि अब भारत की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
भारत की इस चेतावनी को कुछ बड़े राष्ट्रों का समर्थन तो मिला है ,मगर कहा नहीं जा सकता कि यह समर्थन कोई क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा। मसलन ब्रिटेन ने भारत से सहमति जताई और स्वीकार किया कि वीटो पावर ही सुधार के रास्ते में असली बाधा है।इसके अलावा समूह -चार के ब्राज़ील ,जापान और जर्मनी ने भी भारत की बात से सहमति प्रकट की। ये देश पिछले साल भी भारत के विदेश मंत्री की राय से भी सहमत थे कि यदि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में वांछित सुधार नहीं हुए तो सदस्य देश बाहरी समाधान खोजने लगेंगे।यह बूढ़ों के क्लब जैसा हो गया है। पाँच देश नहीं चाहते कि उन पर कोई ऊँगली उठाए अथवा उनके मामलों में टांग अड़ाए।
समझना होगा कि भारत ही संयुक्त राष्ट्र के ढाँचे में परिवर्तन पर इतना ज़ोर क्यों दे रहा है। तमाम राष्ट्रों के भीतर चिंता का यह आकार छोटा क्यों है ? आपको याद होगा कि सन 2000 में संयुक्त राष्ट्र के पचपन साल पूरे होने पर वैश्विक समारोह हुआ था। इसमें कमोबेश सारी दुनिया के राजनेताओं ने शिरकत की थी। इस जलसे में एक संकल्प लिया गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यशैली में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है। पर, कुछ नहीं हुआ। सारा संकल्प ठंडे बस्ते में बंद होकर रह गया। अब छह महीने बाद सितंबर में इस संस्था के अस्सी साल पूरे हो जाएँगे तो एक बार फिर भव्य समारोह की तैयारी चल रही है। इसमें भी इन सुधारों का मामला उठेगा .भारत का कहना है कि संसार की सत्रह फ़ीसदी आबादी भारत में रहती है। सुरक्षा परिषद के चार सदस्य रूस,फ़्रांस ,ब्रिटेन और अमेरिका भारत की स्थायी सदस्यता के पक्षधर हैं। सिर्फ़ चीन भारत के ख़िलाफ़ है। वह अपने निजी हितों के चलते इतने बड़े मुल्क़ की उपेक्षा कर रहा है। अब चीन की दादागीरी से अन्य चार सदस्य भी परेशान हो चुके हैं। क्या विडंबना है कि भारत ने ही अपनी सदाशयता दिखाते हुए चीन को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता दिलवाई थी। लेकिन अब वही चीन भारत की राह में रोड़े अटका रहा है। उसने वीटो का दुरुपयोग करने में कंजूसी नहीं दिखाई है । संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 1267 को उसने अप्रासंगिक बना दिया है । पंद्रह अक्टूबर 1999 को यह प्रस्ताव अस्तित्व में आया था ।इसके मुताबिक़ कोई सदस्य देश किसी आतंकवादी को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने का प्रस्ताव रख सकता है ।लेकिन उसे सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्यों की मंजूरी लेनी होगी । यहां चीन हर बार अपनी टांग अड़ा देता है । ऐसे में इस तरह के प्रस्ताव कोई मायने नहीं रखते ।भारत ने दो बरस पहले एक सत्र में चीन और पाकिस्तान को आक्रामक अंदाज़ में घेरा तो ,लेकिन उससे चीन के रुख़ में अंतर नहीं आया।
वैसे भारत के पक्ष में एक बात और भी है। संयुक्त राष्ट्र में उसकी आवाज़ लगातार मज़बूत होती गई है। वैसे तो संयुक्तराष्ट्र से संबद्ध सभी राष्ट्रों के बीच भारत की साख़ हमेशा बेहतर रही है।जब जब भी अस्थायी सदस्यता के लिए मतदान हुआ ,भारत को अभूतपूर्व समर्थन मिला है। कुछ उदाहरण पर्याप्त होंगे। सन 1950 में कुल 58 वोटों में से भारत को 56 वोट मिले थे।इसके बाद 1967 में भारत को कुल 119 में से 82 मत हासिल हुए।हालाँकि 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू नहीं रहे थे।यह अपेक्षाकृत कमज़ोर स्थिति थी।लेकिन उसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता के शिखर पर थीं। उन्होंने दुनिया के नक़्शे में बांग्ला देश नाम के नए देश को जन्म दिया था तो उसके अगले साल याने 1972 में 116 में से 107 देश भारत के साथ खड़े थे।याने भारत अपनी प्रतिष्ठा के मान से फिर विश्व बिरादरी में शिखर पर था। अगले पांच साल बाद भी ऐसी स्थिति बनी रही। जब 1977 में मतदान हुआ तो कुल 138 देशों में से 132 मुल्कों का वोट भारत को मिला था।इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में गुट निरपेक्ष देश एकजुट थे। इसलिए उसका लाभ भारत को मिलता रहा।उसके बाद के दस बरस भी हिंदुस्तान की लोकप्रियता के नज़रिए से सुनहरे थे । इंदिरा गांधी और उनके बाद राजीव गांधी भारतीय राजनीति के क्षितिज पर उभरे। उस साल भारत को 155 में से 142 राष्ट्रों का साथ मिला। प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के कार्यकाल मे सन 2011 -12 में डॉक्टर मनमोहन सिंह के ज़माने में ग्राफ सबसे ऊपर रहा। कुल 191 में से 187 देशों का साथ हिन्दुस्तान को मिला। पिछला चुनाव 2021 - 22 में हुआ था। उस समय तो नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री थे। उस दरम्यान 192 में से 184 राष्ट्रों ने भारत के पक्ष में मतदान किया था।इस तरह आठ बार सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बनाने का अवसर हिन्दुस्तान को मिला है। भारत की शानदार छबि के बाद भी चीन के रुख़ में कोई बदलाव नहीं हुआ है।इसे देखते हुए भारत का आक्रोश और सवाल जायज़ है कि संसार की इस सबसे बड़ी पंचायत पर क़ाबिज़ देश आख़िर कब तक हिन्दुस्तान की उपेक्षा करते रहेंगे ? उसके बड़े संवेदनशील निर्णयों में भारत की भागीदारी कब और कैसे होगी ?