कीर्ति राणा
शिवराज सिंह चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद सर्वाधिक लंबे समय सीएम रहने का यदि कीर्तिमान बना चुके हैं तो चौथे कार्यकाल की यह कालिख भी उनकी ही बंडी पर लग गई है कि राजनीति के संत कहे जाने वाले-पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी को कमलनाथ की शरण में जाने से नहीं रोक पाए। एमपी गजब है की टैग लाइन प्रदेश की राजनीति में चलने वाली उठापटक पर भी लागू होती है।
इन पांच साल का घटनाक्रम ही देख लीजिये। दिसंबर 18 में कमलनाथ मुख्यमंत्री बने तो अपना मान-सम्मान न होने से कुपित ज्योतिरादित्य मार्च 20 में इस कमल को श्रीविहीन कर उस कमल के पोस्टर बॉय बन गए।मार्च 2020 में चौथी बार सीएम बने शिवराज के पोलिटिकल रेकार्ड में ही यह भी दर्ज होगा कि दीपक की मद्दिम होती लौ की जान बूझकर अनदेखी नहीं की होती तो कांग्रेस को दीपक का उजाला नसीब नहीं होता।
इन पांच साल में मध्य प्रदेश की राजनीति भी बेमौसम होने वाली बारिश जैसी ही हो गई है। सिंधिया कांग्रेस को सड़क पर ले आए थे।भाजपा ने दीपक जोशी को उनके सम्मान लायक काम नहीं दिया तो उन्होंने भी भाजपा के काम डालने के साथ ही पिता के अपमान की आग में तमाम भाई साबों की घुड़की और अनुशासन के डंडे को जला डाला है।सिंधिया और उनके विधायकों का जाना यदि कांग्रेस स्वार्थ प्रेरित कहती रही है तो अब भाजपा का आम कार्यकर्ता दीपक जोशी के फैसले को सम्मान की रक्षा वाला मान रहा है तो क्या गलत है।
नवंबर में होने वाले चुनाव में दीपक जोशी फैक्टर का कांग्रेस को कितना लाभ मिलेगा, चुनाव नहीं लड़ने की अनिच्छा जाहिर कर रहे जोशी को कमलनाथ कैसे भुनाएंगे इसका इंतजार करना चाहिए।यदि बुधनी से चुनाव लड़ने की उनकी इच्छा का सम्मान करने का कांग्रेस सम्मान दिखा दे तो ये चुनाव कांटा पकड़ तो हो ही जाएगा। पार्टी की लगाम अपने हाथों में रखने वाले संघ के खुर्राट नेताओं से लेकर प्रदेश में चाहे जब बैठक, समीक्षा के नाम पर आम कार्यकर्ता को तलने वाले प्रभारियों की भी इस बगावत से पुंगी बज गई है।आज तक मनुहार करने वाले बहुत संभव है कल से गद्दार, निकृष्ट आदि भी कहने लगें लेकिन ऐसे बयानवीरों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उनकी नजर में दीपक जोशी की कोई हैसियत नहीं हो लेकिन संघ के शब्द कोष वाला जो देव दुर्लभ शब्द पार्टी बैठकों में बार बार दोहराया जाने लगा है उस शब्द के हकदार दीपक जोशी जैसे कार्यकर्ता भी हैं।जनसंघ के वक्त से सक्रिय रहे कैलाश जोशी ने तो अपने पुत्र का नाम ही पार्टी के चुनाव चिह्न दीपक के नाम पर रखा था।
आपातकाल के बाद 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी कैलाश जोशी मप्र के पहले गैरकांग्रेसी सीएमरहे। नौंवे सीएम के रूप में उनका सात महीने का ही कार्यकाल रहा।उनके बाद ही वीरेंद्र कुमार सखलेचा, सुंदरलाल पटवा सीएम बने।राजनीति के संत के रूप में पहचाने जाने वाले कैलाश जोशी का लंबा राजनीतिक जीवन रहा। वे 8 बार विधायक, 2 बार लोकसभा सदस्य और एक बार राज्यसभा सदस्य भी रहे थे। प्रदेश के मुख्यमंत्री की हैसियत से कमलनाथ ने ही उनके निधन के वक्त
स्मारक निर्माण के लिए हाथोंहाथ जमीन आवंटन की घोषणा की थी।अपमान का लावा तो बहुत पहले से बह रहा था, ज्वालामुखी अब बना है। दीपक जोशी ने इन पांच सालों में अपनी उपेक्षा, पिता की स्मृति में स्मारक या अन्य किसी संस्थान के लिए शिवराज सरकार के साथ ही संगठन पदाधिकारियों से अपने ‘मन की बात’ न कही हो यह संभव ही नहीं। भाजपा में दिक्कत यह हो गई है कि प्रधान सेवकजी की बात के लिए तो इवेंट हो जाता है लेकिन देव दुर्लभ कार्यकर्ताओं के ‘मन की बात’ सुनी नहीं जाती और चुनाव नजदीक आते ही अनुशासन के कंटीले डंडे से धमकाया जाने लगता है।
सत्यनारायण सत्तन के बेटे को पार्षद का टिकट नहीं मिल पाया यह कारण गिना कर उनकी पार्टी हित वाली सलाह की अनदेखी करना, भंवर सिंह शेखावत बदनावर से टिकट नहीं देने से पार्टी विरोधी बयान पांच साल से दे रहे हैं यह प्रचारित करने वाले संगठन प्रमुख यह क्यों भूल जाते हैं कि रघुनंदन शर्मा की भी ऐसी ही भाषा क्यों है, बचते-बचाते कैलाश विजयवर्गीय को भी यह क्यों कहना पड़ता है कि भाजपा, भाजपा के कारण ही हारेगी।दीपक जोशी की यह बगावत और कितनों के साहस का कारण बनेगी यह अगले कुछ दिनों में देखने को मिल सकता है।
इतनी बड़ी पार्टी को एक व्यक्ति के जाने से फर्क नहीं पड़ता, रुदालियों का ये रुदन कुछ दिन चलेगा। संघ भाजपा या उसकी राजनीति में दखल नहीं देता यह हर बार दोहराने वाले तमाम भाईसाब डेमेज कंट्रोल के लिए अब गुजरात, त्रिपुरा वाला फार्मूला अपनाने का अनुरोध जरूर मोदी-शाह से कर सकते हैं।भांजियों का प्यार, लाड़ली बहना का आशीर्वाद काम आ जाए तो ठीक वरना किसी आदिवासी नेता के नाम लॉटरी खुल जाए तो बड़ी बात नहीं।