उम्मुल खेर आज सब के लिए प्रेरणा बनी हुई है। ऑस्टियो जेनेसिस बीमारी के चलते उसकी हड्डियां बहुत आसानी से टूट जाती हैं। 28 की उम्र तक उसे 16 फ्रैक्चर और आठ बार सर्जरी का सामना करना पड़ा है। यह वो दौर होता था जब वो व्हीलचेयर पर चलती थी। ऐसी बीमारी के साथ मुफलिसी की मार, घर के खराब हालात और अपनों से दुत्कार पाकर भी उम्मुल खेर नहीं टूटी। आईएएस के नतीजों में उसने 420वें पायदान पर जगह बनाकर सारे हालातों को हरा दिया। अब कलक्टर बनकर वह जरूरतमंदों और संसाधन विहीन शारीरिक दुर्बलताओं से जूझ रही औरतों के लिए कुछ करना चाहती है।
राजस्थान के पाली मारवाड़ में जन्मी उम्मुल खेर को अपनी कहानी याद है जब वह पांच साल की थीं। वह बताती हैं कि गरीबी थी। हम तीन भाई-बहन का परिवार था। पिता यहां दिल्ली आ गए। पिता के जाने से मां को सीजोफ्रीनिया(मानसिक बीमारी) के दौरे पड़ने लगे। वह प्राइवेट काम करके हमें पालती थीं, मगर बीमारी से उनकी नौकरी छूट गई. दिल्ली में फेरी लगाकर कमाने वाले पिता हमें अपने साथ दिल्ली ले आए। यहां हम हजरत निजामुद्दीन इलाके की झुग्गी-झोपड़ी में रहने लगे। 2001 में यहां से झोपड़ियां उजाड़ दी गईं, हम फिर से बेघर हो गए।
उम्मुल खेर आज सब के लिए प्रेरणा बनी हुई है। ऑस्टियो जेनेसिस बीमारी के चलते उसकी हड्डियां बहुत आसानी से टूट जाती हैं। 28 की उम्र तक उसे 16 फ्रैक्चर और आठ बार सर्जरी का सामना करना पड़ा है। यह वो दौर होता था जब वो व्हीलचेयर पर चलती थी। ऐसी बीमारी के साथ मुफलिसी की मार, घर के खराब हालात और अपनों से दुत्कार पाकर भी उम्मुल खेर नहीं टूटी। आईएएस के नतीजों में उसने 420वें पायदान पर जगह बनाकर सारे हालातों को हरा दिया। अब कलक्टर बनकर वह जरूरतमंदों और संसाधन विहीन शारीरिक दुर्बलताओं से जूझ रही औरतों के लिए कुछ करना चाहती है।
राजस्थान के पाली मारवाड़ में जन्मी उम्मुल खेर को अपनी कहानी याद है जब वह पांच साल की थीं। वह बताती हैं कि गरीबी थी। हम तीन भाई-बहन का परिवार था। पिता यहां दिल्ली आ गए। पिता के जाने से मां को सीजोफ्रीनिया(मानसिक बीमारी) के दौरे पड़ने लगे। वह प्राइवेट काम करके हमें पालती थीं, मगर बीमारी से उनकी नौकरी छूट गई. दिल्ली में फेरी लगाकर कमाने वाले पिता हमें अपने साथ दिल्ली ले आए। यहां हम हजरत निजामुद्दीन इलाके की झुग्गी-झोपड़ी में रहने लगे। 2001 में यहां से झोपड़ियां उजाड़ दी गईं, हम फिर से बेघर हो गए।