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हॉट टोपिक
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Added on : 2025-01-30 20:46:35

राजेश बादल 
स्थिति गंभीर है।भारत की वित्तीय स्थिति के लिए गंभीर चेतावनी। क़र्ज़ लेकर घी पीने की प्रवृति ने देश और प्रदेशों को उस बारीक़ जाल में उलझा दिया है, जिससे बाहर निकलने का रास्ता फिलहाल तो अंधी सुरंग में जाता है।यह खुलासा किसी किसी गोपनीय दस्तावेज़ के उजाग़र होने से नहीं हुआ है और न ही यह प्रतिपक्ष का आरोप है।नीति आयोग की ताज़ा रिपोर्ट में अठारह प्रदेशों की आर्थिक सेहत पर गंभीर चिंता जताई गई है।रिपोर्ट चेतावनी दे रही है कि अगर क़र्ज़ पर काबू नहीं पाया गया तो हालात भयावह हो सकते हैं। रिपोर्ट 2022-23 के दरम्यान की है।इससे यह तथ्य कमज़ोर पड़ता है कि छोटे प्रदेशों की आर्थिक स्थिति बड़े राज्यों की अपेक्षा बेहतर होती है क्योंकि छोटे प्रदेश भी ऋण के बोझ से बदहाल हैं और बड़े भी।
रपट कहती है कि छोटे राज्य ओडिशा,छत्तीसगढ़ और गोवा मुल्क़ में सबसे अच्छी वित्तीय तंदरूस्ती वाले हैं और इसी क्रम में पहले,दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।सभी 18 प्रदेशों में अपवाद के तौर पर झारखंड है ,जिसने अपनी आर्थिक स्थिति मज़बूत बनाई है तथा उछलकर चौथे स्थान पर जा पहुँचा है।इन राज्यों ने धन का सही इस्तेमाल किया है।उन्होंने अपनी आमदनी का चार से पाँच प्रतिशत विकास कार्यों में लगाया।इसके अलावा कमाई के अच्छे तरीके अपनाए।इससे यह राज्य कम ब्याज क़रीब सात प्रतिशत चुकाकर भी पैसा बचाने में कामयाब रहे हैं।इस वजह से वे हर साल अपनी कमाई बढ़ा रहे हैं।स्पष्ट है कि पैसों का सही उपयोग उन्हें खुशहाली के रास्ते पर ले जा रहा है । 
दूसरी ओर हरियाणा,केरल,आंध्र,बंगाल और पंजाब सूची में सबसे निचले पायदान पर हैं।आँकड़ों के मुताबिक़ पंजाब सबसे ख़राब प्रदर्शन कर रहा है।बाक़ी चारों प्रदेश अपने संसाधनों के बलबूते पर्याप्त राजस्व जुटाने में नाक़ाम रहे हैं। वे जो भी धन जुटाते हैं,उसका बड़ा हिस्सा क़र्ज़ को चुकाने में चला जाता है। गाज़ मतदाताओं के लिए चलाए जा रहे विकास और कल्याणकारी कार्यक्रमों पर गिरती है।वे शिक्षा,स्वास्थ्य,साफ़ पेयजल और बेरोज़गारी जैसे क्षेत्रों में लचर प्रदर्शन करती दिखाई देती हैं।सरकारों का मानवीय चेहरा इसीलिए विकृत होता जा रहा है।आप इसका मतलब भी निकालने के लिए स्वतंत्र हैं कि गुज़िश्ता पंद्रह-बीस बरस में राज्यों के पास वित्त प्रबंधन में कुशल कारीगरों का अकाल होता गया है।चाहे उन राज्यों में कोई भी सियासी पार्टी राज कर रही हो।सभी पार्टियों के भीतर विशेषज्ञ राजनेताओं की कमी है। 
बड़े प्रदेशों में से एक मध्यप्रदेश को बानगी के तौर पर लेते हैं।यह विराट प्रदेश बीते दस पंद्रह साल में वित्तीय कुप्रबंधन के कारण क़र्ज़ के कुचक्र में ऐसा फँसा है कि अब बाहर निकलने की कोई सूरत नहीं दिखाई देती। हर महीने इस राज्य को लगभग पाँच हज़ार करोड़ रूपए का ऋण लेना पड़ रहा है।यदि वह क़र्ज़ नहीं ले तो सरकारी कर्मचारियों को वेतन देना कठिन हो जाए। मध्यप्रदेश में लगभग बीस हज़ार करोड़ रूपए लाड़ली बहना योजना के तहत महिलाओं को बाँटे जाते हैं।पाँच साल पहले इस प्रदेश पर कोई दो लाख करोड़ रूपए का ऋण था। पाँच साल बाद क़र्ज़ का आकार विकराल रूप धारण करते हुए लगभग सवा चार लाख करोड़ पर जा पहुँचा है।एक रिपोर्ट के अनुसार इस राज्य के प्रत्येक नागरिक पर लगभग साढ़े चार हज़ार करोड़ का ऋण है।आमदनी बढ़ाने के लिए सरकार ने खेतों तक में शराब की दुकाने खोलीं ,मगर कोई लाभ नहीं हुआ।ताज़ा सूचना तो यह है कि राज्य सरकार अब 25 हज़ार करोड़ रूपए का नया क़र्ज़ लेने जा रही है।यदि पिछले पाँच साल में सारे प्रदेशों के लिए गए क़र्ज़ का आँकड़ा देखें तो यह डराने वाला है। सन 2020 -21 में इन राज्यों ने 6 .51 लाख करोड़ रूपए क़र्ज़ लिया था।पाँच बरस बाद याने 2024 -25 में यह बढ़कर 9 .20 लाख करोड़ रूपए हो गया। ज़रा सोचिए,इन राज्यों की जब क़र्ज़ लेने की सीमा समाप्त हो जाएगी तो क्या होगा ?अगर केंद्र के क़र्ज़ की राशि देखते हैं तो तस्वीर और विकराल रूप दिखाती है। आँकड़े कहते हैं कि आज़ादी के बाद 67 साल में अर्थात 2014 आते आते भारत पर लगभग 55 लाख करोड़ रूपए का क़र्ज़ हो गया था। लेकिन इसके बाद के दस साल में यह ऋण राशि बढ़कर 230 लाख करोड़ हो गई।किसी भी विकासशील राष्ट्र के लिए बेशक़ ऋण लेना आवश्यक होता है। मगर ,यह ऋण बढ़ते बढ़ते इतने बड़े आकार का हो जाए कि उसके तमाम संसाधनों से प्राप्त कमाई केवल ऋण का ब्याज चुकाने के काम आए तो लगता है कि राष्ट्र की वित्तीय बस ठीक ठाक नहीं चल रही है।
दरअसल चुनाव जीतने के लिए मुफ़्त अनाज और हर महीने पैसा बाँटने की आदत ने भारत के कोष का बंटाढार किया है।एक पार्टी एक घोषणा करती है तो दूसरी पार्टी उससे दो गुना मुफ़्त वितरण की घोषणाएँ करती है।चुनाव के बाद जीतने वाली पार्टी के लिए ये मुफ़्तिया ऐलान जी का जंजाल बन जाते हैं। गंभीर बात तो यह है कि यह भारतीय संविधान का मख़ौल उड़ाने वाली स्थिति है।मगर नक़्क़ारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुनेगा ? हम भूल गए हैं कि 34 साल पहले देश की आर्थिक सेहत इतनी खराब हो गई थी कि राष्ट्र को अपना 47 टन सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा था।भारत के पास आयात के लिए चंद रोज़ का विदेशी मुद्रा भण्डार बचा था। देश दिवालिया होने के कग़ार पर था।यक़ीनन सोना गिरवी रखना शर्म की बात थी,लेकिन मरता क्या न करता।रिज़र्व बैंक ने इंग्लैंड और जापान के बैंकों से क़रार किया। बैंकों ने शर्त रखी कि सोना तभी गिरवी रखा जाएगा,जब वो भारत से बाहर किसी देश में रखा जाएगा।इस तरह जुलाई 1991 में 47 टन सोना गिरवी रखकर 400 मिलियन डॉलर जुटाए गए । स्पेशल प्लेन से बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ जापान भेजकर सोना गिरवी रखा गया। लेकिन तब डॉक्टर मनमोहन सिंह जैसे वित्त विशेषज्ञ भारत के पास था।वे न केवल गिरवी रखा सोना वापस लाने में कामयाब रहे बल्कि हिन्दुस्तान की अर्थ व्यवस्था को एक ऐसा मज़बूत आधार दिया,जो समूचे संसार में एक मिसाल बन गया।अफ़सोस ! आज भारत के पास डॉक्टर मनमोहन सिंह जैसे दस अर्थशास्त्री भी नहीं हैं,जो राष्ट्र की वित्तीय नैया को पार लगा सकें ।

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