राजेश बादल
महिलाओं के साथ लगातार यौन अपराधों की ख़बरें विचलित करने वाली हैं।जिस तेज़ी के साथ हालिया दशकों में इन अपराधों का आँकड़ा बढ़ा है, उससे नहीं लगता कि समाज और देश मानसिक तरक़्क़ी के किसी रास्ते पर चल रहा है। साक्षरता का प्रतिशत बढ़ने के आँकड़ों पर हम अपनी पीठ नहीं थपथपा सकते और न ही आर्थिक संपन्नता पर गर्व कर सकते हैं।बंगाल के कोलकाता में प्रशिक्षु महिला चिकित्सक से दरिंदगी,महाराष्ट्र के बदलापुर में दो मासूम बच्चियों का उत्पीड़न,असम के लखीमपुर और नागाँव में ऐसी ही दो घटनाएँ, बंगाल के ही फ़िरोज़पुर,असम के लखीमपुर और नागाँव, तमिलनाडु में एनसीसी के नक़ली शिविर में छात्राओं से सामूहिक दुष्कर्म, उत्तरप्रदेश में मुरादाबाद और देवरिया,प्रयागराज और बाराबंकी तथा राजस्थान में धौलपुर और हिंडौन की बलात्कार - वारदातें पखवाड़े की बड़ी सुर्खियाँ हैं। इन मामलों में कहीं कहीं समाज की ओर से गंभीर प्रतिरोध आंशिक राहत तो देता है,लेकिन अधिकतर मामलों में समाज की चुप्पी अच्छा संकेत नहीं देती। पीड़िताओं को न्याय नहीं मिलने का आक्रोश चरम पर है और उनके लिए लड़ने वाले अल्पमत में हैं ।
बत्तीस साल पहले अजमेर के दिल दहलाने वाले सामूहिक दुष्कर्म मामले की यात्रा इसका गवाह है।सात दिन पहले इसका निर्णय आया। राजस्थान का यह मामला आज़ाद भारत का सबसे बड़ा और तक़लीफ़देह वाक़या है।उन दिनों मैं राजस्थान में था और इस मामले की कवरेज की थी। इस अपराध कथा को याद करके आज भी रूह काँप जाती है। उन दिनों हम सोचते थे कि ज़िंदगी में फिर कभी ऐसा कवरेज नहीं करना पड़े।कुछ विकृत अपराधियों ने एक बड़े कारोबारी के बेटे से अप्राकृतिक कृत्य किया। फिर उसे ब्लैकमेल करके उसकी किशोर छात्रा मित्र को बुलवाया। उसके साथ दुष्कर्म हुआ।फिर उस छात्रा को ब्लैकमेल करके स्कूल की सौ किशोरियों के साथ दुष्कर्म का सिलसिला जारी रहा। मामला उजागर नहीं होता,यदि अपराधियों ने दुष्कर्म की तस्वीरों की रील कलर लेब में धुलने नहीं भेजी होती ( उन दिनों फोटो के लिए कैमरे में रील डाली जाती थी ) लैब के मालिक ने प्रिंट निकाले तो उसने लड़कियों को ब्लैकमेल किया,उनके परिवारों से पैसे ऐंठे।जिनसे बात नहीं बनी तो फोटो सार्वजनिक कर दिए।एक समाचारपत्र ने ख़बर छाप दी।तीन दशक पहले के छोटे से,किन्तु पढ़े लिखे अजमेर में हंगामा हो गया।कई पीड़ित परिवार बदनामी से शहर छोड़ गए।छह लड़कियों ने आत्महत्या कर ली।सौ में से 18 लड़कियों ने हौसला दिखाया और अंत तक लड़ाई लड़ी।कुल 18 अपराधी थे।इनमें से नौ को पहले ही सजा हो चुकी थी। बाक़ी को पिछले सप्ताह हुई।एक अपराधी ने आत्महत्या कर ली।लड़ाई लड़ने वाली किशोरियाँ अब बूढ़ी हो चली हैं।
असल प्रश्न तो यह है कि क्या यह समाज और तंत्र उन किशोरियों की जवानी और सामाजिक प्रतिष्ठा वापस लौटा सकता है ? बरसों तक वे लड़कियाँ घरवालों से छिपते -छिपाते अदालत आती रहीं । इनमें से चंद किशोरियों का तो घर बस गया। वे दादी -नानी तक बन चुकी हैं।उनमें कुछ के तो घरवालों को अभी तक भी कुछ नहीं मालूम मगर,कुछ ऐसी भी हैं,जिनकी बदनामी और अपयश के कारण शादी नहीं हो सकी। वे न्यायालय की कार्रवाई का सामना करते करते पचास -पचपन की उमर पार कर चुकी हैं। उनका गृहस्थ सुख और खोई हुई पारिवारिक ज़िंदगी अब दोबारा नहीं आ सकती।सबसे बड़ी बात यह कि ऐसे जघन्य अपराधों में समाज और तंत्र ने संवेदना नहीं दिखाई।कोई सरकार विशेष न्यायालय नहीं बना सकी।समर्पित डाकुओं के लिए तो स्पेशल कोर्ट बनाए गए पर महिलाओं के सम्मान को लेकर कोई पहल नहीं हुई।हम उनके सम्मान की बड़ी बड़ी बातें करते हैं।पर,उनकी हिफाज़त के लिए कुछ विशेष प्रबंध नहीं करना चाहते।हमारी कथनी और करनी में फ़र्क़ है।
आँकड़ों की बात करें तो दहशत होती है। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो की जानकारी इसे और विकराल बनाती है। भारत में एक साल में महिलाओं के साथ चार लाख से ज़्यादा अपराध होते हैं। हर घंटे में तीन स्त्रियों के साथ दुष्कर्म की वारदातें होती हैं। इनमें 73 फ़ीसदी अपराधी सुबूतों के अभाव में बरी हो जाते हैं। सिर्फ 27 प्रतिशत को सजा होती है।कई मामलों में यह सजा भी उच्च न्यायालयों में जाकर कम हो जाती है। एक दशक पहले तक हर साल औसतन 25000 दुष्कर्म के मामले दर्ज़ होते थे।लेकिन अब यह आँकड़ा बढ़कर चालीस हज़ार के आसपास जा पहुँचा है। राजस्थान दुष्कर्म के मामले में सभी राज्यों से ऊपर है। इसके बाद उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश कमोबेश बराबरी पर हैं। फिर क्रमशः महाराष्ट्र ,हरियाणा ,ओडिशा , झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ ,दिल्ली और असम हैं। ध्यान देने की बात यह है कि 96 प्रतिशत मामलों में जान पहचान के लोग ही अपराधी निकलते हैं। इस कारण सामाजिक और पारिवारिक दबाव के चलते न्यायालय में सुबूत कमज़ोर पड़ जाते हैं। मुज़रिम छूट जाता है।
एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने बीते दिनों अपने एक सर्वेक्षण में पाया था कि भारत में अदालतें इसी वजह से प्रावधान होते हुए भी दुष्कर्म के अपराधियों को सख़्त दंड नहीं दे पातीं। दुष्कर्म और उसके बाद महिला की हत्या करने के मामले लगभग हर दूसरे दिन आते हैं। पर , बीते चौबीस बरस में केवल पाँच अपराधियों को फाँसी की सजा दी गई। यह किसी भी जागरूक होते समाज के लिए शर्म का विषय है।पच्चीस साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में सुषमा स्वराज सूचना प्रसारण मंत्री थीं। उन दिनों भारत में उपग्रह क्रांति हुई थी। संसार भर के चैनल आप देख सकते थे। इनमें अनेक पोर्न चैनल थे। तब कुछ मामले ऐसे आए ,जिनमें इन पोर्न चैनलों को देखकर यौन अपराध हुए। सुषमा स्वराज ने इसे बेहद गंभीरता से लिया। आख़िरकार सरकार की सख्ती रंग लाई। अश्लील कंटेंट वाले उन चैनलों पर बंदिश लग गई। यौन अपराधों पर भी नियंत्रण लगा। लेकिन इन दिनों फिर सब कुछ
खुल्लमखुल्ला है। सरकार को इस पर रोक लगानी ही पड़ेगी।