राजेश बादल
अरुणाचल प्रदेश पर चीन ने फिर विवाद को तूल दिया है। वह कहता है कि समूचा अरुणाचल उसका है। बीते पाँच साल में उसने इस खूबसूरत भारतीय प्रदेश के बत्तीस स्थानों के नाम ही बदल दिए हैं।सदियों से चले आ रहे भारतीय नामों को नकारते हुए चीनी भाषा मंदारिन और तिब्बती भाषा के ये शब्द वहाँ सरकारी तौर पर मान लिए गए हैं।अब चीन कहता है कि अरुणाचल का नाम तो जंगनान है और वह चीन का अभिन्न हिस्सा है। इस तरह से उसने एक स्थाई और संभवतः कभी न हल होने वाली समस्या का जन्म दे दिया है।जब जब भारतीय राजनेता अरुणाचल जाते हैं ,चीन विरोध दर्ज़ कराता है। भारत ने भी दावे को खारिज़ करते हुए चीन के रवैए की आलोचना की है।उसने कहा है कि नाम बदलने से वह क्षेत्र चीन का कैसे हो जाएगा। अरुणाचल में अरसे से लोकतान्त्रिक सरकारें चुनी जाती रही हैं और वे भारत के अभिन्न अंग हैं।
दोनों विराट मुल्क़ों के बीच सत्तर साल से यह सीमा झगड़े की जड़ बनी हुई है। क्या संयोग है कि 1954 में जब भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया और दोनों देशों के बीच दो बरस तक एक रूमानी दोस्ती सारा संसार देख रहा था ,तो उन्ही दिनों यही पड़ोसी तिब्बत के बाद अरुणाचल को हथियाने के मंसूबे भी पालने लगा था। इसी कारण 1956 आते आते मित्रता कपूर की तरह उड़ गई और चीन एक धूर्त - चालबाज़ पड़ोसी की तरह व्यवहार करने लगा। तबसे आज तक यह विवाद रुकने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। आज भारत और चीन के पास सीमा पर बैठकों का अंतहीन सिलसिला है ,एक बड़ी और एक छोटी जंग है ,अनेक ख़ूनी झड़पें हैं और कई अवसरों पर कड़वाहट भरी अंताक्षरी है।
असल प्रश्न है कि आबादी में भारत से थोड़ा अधिक और क्षेत्रफल में लगभग तीन गुने बड़े चीन को ज़मीन की इतनी भूख़ क्यों है और वह शांत क्यों नहीं होती ?उसकी सीमा से चौदह राष्ट्रों की सीमाएँ लगती हैं।ग़ौर करने की बात यह है कि इनमें से प्रत्येक देश के साथ उसका सीमा को लेकर झगड़ा चलता ही रहता है।यह तथ्य संयुक्तराष्ट्र की अधिकृत जानकारी का हिस्सा है।ज़रा देशों के नाम भी जान लीजिए।यह हैं-भारत,रूस,भूटान,नेपाल,म्यांमार,उत्तरकोरिया,मंगोलिया,विएतनाम,पाकिस्तान,लाओस,किर्गिस्तान,कज़ाकिस्तान,ताजिकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान।इन सभी के साथ चीन की सीमा को लेकर कलह की स्थिति बनी हुई है।बात यहीं समाप्त नहीं होती।नौ अन्य राष्ट्रों की ज़मीन या समंदर पर भी चीन अपना मालिकाना हक़ जताता है।इन नौ देशों में जापान,ताइवान,इंडोनेशिया,दक्षिण कोरिया,ब्रूनेई,फिलीपींस,उत्तर कोरिया,विएतनाम और कम्बोडिया जैसे राष्ट्र हैं।इस तरह कुल तेईस देशों से उसके झगड़ालू रिश्ते हैं।इस नज़रिए से चीन संसार का सबसे ख़राब पड़ोसी है।इस सूची में रूस,पाकिस्तान,नेपाल,उत्तर कोरिया और म्यांमार के नाम देखकर आप हैरत में पड़ गए होंगे।लेकिन यह सच है।रूस से तो पचपन साल पहले वह जंग भी लड़ चुका है।जापान से भी उसकी दो जंगें हुई हैं।इनमें लाखों चीनी मारे गए थे। ताईवान से युद्ध की स्थिति बनी ही रहती है। विएतनाम से स्प्रैटली और पेरासील द्वीपों के स्वामित्व को लेकर वह युद्ध लड़ चुका है।फिलीपींस ने पिछले साल दक्षिण चीन सागर में अपनी संप्रभुता बनाए रखने के लिए चीन के सारे बैरियर तोड़ दिए थे।नेपाल और भूटान अपनी सीमा में अतिक्रमण के आरोप लगा ही चुके हैं।उत्तर कोरिया के साथ येलू नदी के द्वीपों पर चीन का संघर्ष छिपा नहीं है।सिंगापुर में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी से चीन के संबंध सामान्य नहीं हैं।मलेशिया के प्रधानमंत्री भी दक्षिण चीन महासागर के बारे में अनेक बार चीन से टकराव ले चुके हैं।
अब आते हैं भारत और चीन के सीमा विवाद पर।भारत ने तो चीन को दिसंबर 1949 में ही मान्यता दे दी थी। इसके बाद 1950 में कोरियाई युद्ध में शुरुआत में तो हमने अमेरिका का साथ दिया ,लेकिन बाद में हम अमेरिका और चीन के बीच मध्यस्थ बने और चीन का सन्देश अमेरिका को दिया कि यदि अमेरिकी सेना यालू नदी तक आई तो चीन कोरिया मेंअपनी सेना भेजेगा। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र में चीन को हमलावर क़रार देने का प्रस्ताव आया तो भारत ने जमकर विरोध दिया और चीन का समर्थन किया। लेकिन चीन ने भारत की सदाशयता को नहीं समझा। इसके बाद भी 1954 तक भारत और चीन मिलकर नारा लगा रहे थे -हिंदी ,चीनी भाई भाई। भारत ने तिब्बत के बारे में चीन से समझौता किया,लेकिन चीन की नज़र भारतीय सीमा पर जमी रही। मगर,दो साल बाद स्थितियाँ बदल चुकी थीं।दिसंबर 1956 में प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने तीन तीन बार प्रधानमंत्री नेहरू जी से वादा किया कि वे मैकमोहन रेखा को मान लेंगे। पर तिब्बत में 1959 की बग़ावत के बाद दलाईलामा की अगुआई में तेरह हज़ार तिब्बतियों ने भारत में शरण ली। यहाँ उनका शानदार स्वागत हुआ। इसके बाद ही चीन के सुर बदल गए। भारत से मौखिक तौर पर मैकमोहन रेखा को सीमा मान लेने की बात चीन करता रहा ,पर उसके बारे में कोई संधि या समझौता नहीं किया।उसने भारत सरकार को ज़हर बुझीं चिट्ठियाँ लिखीं। नेहरू जी को कहना पड़ा कि चीन को अपने बारे में बड़ी ताक़त होने का घमंड आ गया है।इसके बाद 1962 तक की कहानी लद्दाख़ में धीरे धीरे घुसकर ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की है।उसके बाद 1962 में तो वह युद्ध पर ही उतर आया। उसके बाद की कहानी आपस में अविश्वास ,चीन की चुपके चुपके दबे पाँव भारतीय ज़मीन पर कब्ज़ा करने और भारत के साथ अंतहीन वार्ताओं में उलझाए रखने की है। हालाँकि 1967 में फिर चीन के साथ हिंसक मुठभेड़ें हुईं।तब तक इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बन गई थीं। इस मिनी युद्ध में चीन की करारी हार हुई। घायल शेर की तरह चीन इस हार को पचा नहीं सका और तबसे आज तक वह सीमा विवाद पर गुर्राता रहा है। डोकलाम हिंसा में गहरी चोट खाने के बाद भी वह बदलने के लिए तैयार नहीं है।भारत भी संप्रभु देश है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छबि चीन से बेहतर ही है। वह चीन की इन चालों को क्यों पसंद करे ?