इन दिनों प्रायः हर समाचार पत्रों में यह बात छपती रहती है कि किसानों की आमदनी दूनी की जायगी। और इसे तोता रटन्त की तरह अक्सर कृषि बिभाग के समस्त अधिकारी दोहराते भी रहते है। यदि यह कहा जाय कि किसान की उपज दूनी बढाई जायगी तो यह सम्भव है। क्यो कि कोई नया चमत्कारी बीज सोने के भाव खरीद लेगे और रिकमन्डेड डोज खाद पानी तथा देख रेख में अच्छी मोटी राशि खर्च कर देगे तो हो सकता है उपज दूनी हो जाय ?
पर ऐसी खेती से किसान की आय भी दूनी हो जायगी यह सम्भव नही है। क्यों कि यह बोल कृषि विभाग के किसी अनुभवी अधिकारी के मौलिक बोल नही है, बल्कि किसी मंत्री के है जिसे भय बस कृषि विभाग के अधिकारी दुहराते फिर रहे है। कृषि विभाग के पास बड़े बड़े प्रक्षेत्र है। 70 --80 के दशक में जब अनाज य सब्जी की कोई नई किस्म रिलीज होकर आती थी तो पहले इन्हीं प्रक्षेत्रो में उसे बुबाया जाता और प्रक्षेत्र दिवस आयोजित कर किसानों को दिखाया जाता था। फिर किसान अभिप्रेरित हो उसे अपने खेतो में उगाते और सचमुच बढ़े उत्पादन का लाभ लेते।
क्यों कि उन दिनों आम किसान परम्परागत खेती ही करते थे। तब इस तरह की खेती करने वाले किसान बिरले ही होते जो (प्रोग्रेसिब कल्टीवेटर ) कहलाते थे। और (उत्पादन बढ़ेगा तो मूल्य घटेगा) जैसा अर्थ शास्त्र का सिद्धांत तब प्रभावी नही हो पाता था। लाभ का एक कारण यह भी था कि उन दिनों गाय बैल घर से निष्कासित नही थे, टैक्टर का उपयोग भी सीमित था। साथ ही पूरा परिवार सहयोगी की भूमिका में रहता था। इसलिए उत्पादन लागत कम आती थी।
किन्तु आज की खेती प्रतिस्पर्धा की खेती है। उस खेती में खाद बीज ,जुताई बुबाई ,नीदा नाशक कीट नाशक, हरबेस्टिग, मजदूरी , ढुलाई आदि का खर्च इतना बढ़ गया है कि जब तक फसल खेत में दिखती है तब तक तो वह बड़ी सुन्दर दिखती है और देखने वाले का मन भी मोह लेती है। पर बाजार में बेचने के बाद जब किसान आय ब्यय का हिसाब लगाता है तो शून्य बटा सन्नाटा ही नजर आता है।
क्यो कि सारा पैसा खाद बीज, कीट नाशक, नीदा नाशक, जुताई कटाई, गहाई ढुलाई और अन्य मजदूरी में जा चुका होता है। उसके हिस्से में उतना ही आता है जितना 10 किलो दूध देने वाली भैस के पड़ेरु के हिस्से में दूध। इसलिए किसान भी उसी की तरह हमेशा दुबला पतला ही बना रहता है।और जिस तरह माँ के भर पूर दूध के बाबजूद भी कुछ रकरे कुपोषित होकर मर भी जाते है उसी प्रकार कर्ज के बोझ में लद कर कुछ किसान भी आत्म हत्या को ही अंतिम विकल्प चुनते है।
फिर खेती के मायने यह भी नही कि बो देने के बाद काटने का अवसर आयेगाही ? क्यों कि अति बृष्टि, अना बृष्टि, पाला ,ओला आदि न जाने कौन सी आफत कब आ जाय ? इसकी अनिश्चितता बनी ही रहती है। इसीलिए घर में पर्याप्त जमीन होने के बाबजूद भी खेती करने के बजाय किसान पुत्र किसी शहर के दूकान में शेल्स मैन की नोकरी में अधिक सुकून महसूस करता है।
इधर कृषि लागत तो हर वर्ष बढ़ रही है पर उस अनुपात में कृषि जिंस का भाव नही बढ़ रहा। दो डेढ़ रूपये किलो भाव बढ़ा कर सरकार अपना पीठ खुद तो ठोक लेती है पर लागत मूल्य के मुकाबले वह ऊँट के मुंह में जीरा ही सिद्ध होती है।
यदि हमारे कृषि बैज्ञानिक या कृषि अधिकारी सचमुच दूने लाभ से सन्तुष्ट है तो सरकारी प्रक्षेत्रो, कृषि बिज्ञान केन्दों की भूमि में यह लाभ प्रद खेती करके दिखाये और प्रक्षेत्र का पूरा खर्चा व अपना बेतन भी उसी से निकाल कर दिखाये तो किसान भी मान ले कि खेती लाभ का धंधा बन सकता है। वरना यह बकवास बन्द करे।