राजेश बादल
इन दिनों यह प्रवृति आम हो चली है कि तमाम सेवाओं में कार्यकाल पूरा करने के बाद नौकरशाह और लोकसेवक फिर से अनुबंध अथवा पुनर्नियुक्ति के आधार पर रोज़गार में जुट जाते हैं।वे पेंशन पाते हैं और अलग से कुछ धन भी सेवा के बदले में लेते हैं।वैसे तो इस पर किसी को ऐतराज़ नहीं होना चाहिए। कोई मरते दम तक भी काम करता रहे,यह सक्रियता तो सेहत के लिए लाभकारी भी है।लेकिन उसकी दोबारा सेवाओं की क़ीमत देश को चुकानी पड़ती है।दूसरी ओर सकारात्मक पहलू यह है कि स्वास्थ्य के पैमाने पर देश की बेहतर हालत स्पष्ट होती है।एक ज़माने में साठ की उमर तक पहुँचते पहुँचते औसत भारतीय शारीरिक तौर पर कमज़ोर हो जाता था,कमर झुक जाती थी,आँखों पर चश्मा और हाथ में छड़ी बदन के कपड़ों की तरह अनिवार्य हो जाती थी।लेकिन हालिया दशकों में फिटनेस को लेकर भारतीय जागरूक हुए हैं।अब तो साठ साल के बाद भी आठ घंटे काम करने के बाद थकान महसूस नहीं होती।धारणा बन गई है कि जब हाथ पैर चल रहे हैं तो घर क्यों बैठना ? मैं भी घर बैठने को उचित नहीं मानता,पर उसका विकल्प नौकरी ही है - यह उचित नहीं ठहराया जा सकता।
बीते दिनों अनेक प्रदेशों से आला अधिकारियों के दोबारा सरकारी पदों को हथिया लेने की ख़बरें समाचारपत्रों में प्रकाशित हुई हैं।देखा गया है कि प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी पहले से ही पुनर्नियुक्ति पर काम कर रहे थे.जब उनकी अवधि समाप्त हुई तो वे नई नौकरी की खोज में जुट गए । पुलिस, उद्योग,वन और न्यायिक सेवाओं के कई उदाहरण हैं कि ऐसे रिटायर अधिकारी पुनर्नियुक्ति पर रहते हुए आधा समय नई नौकरी की खोज में ख़र्च करते हैं।उन्हें सरकारी नौकरी में संभावना नही दिखती तो वे निजी क्षेत्र अथवा सार्वजनिक उपक्रमों में अपने लिए आकर्षक वेतन और सुविधाओं की नौकरी पर चले जाते हैं। विडंबना यह है कि वे दायित्वों को निभाते हुए उन उपक्रमों या कंपनियों को उपकृत करते हुए अगली नौकरी के बीज बो देते हैं। यह बेईमानी और अनैतिक है।मगर,इससे उनके स्वास्थ्य पर कोई असर नही पड़ता।ये अधिकारी सरकारी सेवा में रहते हुए अगली नौकरी के लिए आवेदन कर देते हैं और भारत सरकार या राज्य सरकार से अनुमति तक नहीं लेते।आचरण संहिता और नियमों के अनुसार यह अनुशासनहीनता और नियमों के उल्लंघन की श्रेणी में आता है।बात यहीं ख़त्म नहीं होती। कॉर्पोरेट जगत में नौकरी पाए अधिकारियों को अनेक गोपनीय प्रक्रियाओं और परंपराओं की जानकारी होती है। वे अपने नए संस्थान के पक्ष में इन जानकारियों का दुरूपयोग करते हैं।आज तक उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई ।
देखा गया है कि ऐसे मामले पद की गरिमा और निष्पक्षता को भी प्रभावित करते हैं। मुख्य सचिव तथा अन्य वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर लगातार सेवा वृद्धि इसका उदाहरण है।प्रत्येक राज्य में मुख्य सचिव का पद अफसरशाही का सर्वोच्च पद है।वह एक तरह से मुख्यमंत्री के समानांतर ही माना जाता है।अगर कोई सरकार लगातार इस ज़िम्मेदारी भरे पद पर किसी अधिकारी को पुनर्नियुक्ति देती है और उसके पद पर बने रहने के दौरान विधानसभा चुनाव आ जाएँ तो मुख्यसचिव कैसे निष्पक्षतापूर्वक काम करेगा ? वह तो उस सरकार के पक्ष में काम करेगा,जिसने उसे सेवानिवृति के बाद भी शिखर पद पर बैठा रखा है । सभी ज़िलों के कलेक्टर उन दिनों जिला निर्वाचन अधिकारी भी होते हैं। वे अधिकारी मुख्य सचिव का निर्देश मानने के लिए बाध्य हैं। इसी वजह से निर्वाचन क़ानून में सेवावृद्धि प्राप्त अधिकारियों को चुनाव प्रक्रिया से दूर रखने का प्रावधान है।पर,इन नियमों का भी मख़ौल उड़ाया जाता है।मान लीजिए चुनाव नहीं भी हों तो मुख्यसचिव अपने अधीनस्थ जिला कलेक्टरों और अन्य अफसरों की गोपनीय चरित्रावली भी लिखता है ,जो सेवावृद्धि पर चल रहे किसी वरिष्ठ अधिकारी के लिए क़तई जायज़ नहीं है।
तीन साल पहले केंद्रीय सतर्कता आयोग ने अपने आदेश में कहा था कि अधिकारियों - कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति के बाद शांत बैठने की अनिवार्य अवधि पूरी किए बिना निजी क्षेत्र के संगठनों में नौकरी गंभीर कदाचार है।आयोग ने कहा था कि कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी देने से पहले सभी सरकारी संगठनों को अनिवार्य रूप से सीवीसी की मंजूरी लेनी चाहिए।सतर्कता आयोग ने केंद्रीय विभागों के सचिवों और सार्वजनिक बैंक प्रमुखों को जारी आदेश में कहा था कि सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद अधिकारी निजी क्षेत्र के संगठनों में पूर्णकालिक नौकरी या संविदा पर काम करने लगते हैं।वे नियमों के तहत शांत बैठने की निर्धारित अवधि समाप्त होने का इंतजार भी नहीं करते।यह गंभीर है।इसे तोड़ने के लिए संबंधित अधिकारी के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जानी चाहिए।लेकिन कार्यपालिका ने आयोग के आदेश का आजतक पालन नहीं किया।वैसे इस बात को आदर्शवादी और कोरी भावुकता भरा कथन माना जा सकता है कि कार्यकाल पूरा होने के बाद सेवानिवृत अफसरों को एक रोज़गार पद क्यों रोक कर रखना चाहिए ? जिन अधिकारियों में असाधारण प्रतिभा होती है,उन्हें तो ख़ुद केंद्र सरकार ही आमंत्रित करती है।लेकिन रिटायरमेंट के बाद वेतन,गाड़ी,नौकर चाकर तथा अन्य सुविधाओं का लाभ लेने का उन्हें नैतिक हक़ नहीं है।जब इंसान जवान होता है तब,उस पर घर चलाने का आर्थिक दबाव होता है।मगर बुढ़ापे में पेंशन, प्रोविडेंट फण्ड,ग्रेचुटी इत्याद लाभ लेने के बाद क्या आर्थिक ज़रूरतें वैसी रह जाती हैं ? बच्चे भी कमाने लगते हैं। याने कुल मिलाकर वे लक्ज़री ज़िंदगी जी रहे होते हैं।फिर बेरोज़गारों का अधिकार क्यों छीना जाना चाहिए ? वे वृद्धाश्रमों में सेवा क्यों नहीं कर सकते ?अनाथालयों में जाकर बच्चों को क्यों नहीं पढ़ा सकते ? झुग्गी बस्तियों में सेवा कार्य क्यों नहीं कर सकते ? या फिर परोपकारी कार्यों में क्यों संलग्न नहीं हो सकते ? और कुछ भी नहीं सूझे तो देशाटन क्यों नहीं कर सकते ?मेरी दृष्टि में तो दूसरी पारी की नौकरी उचित नहीं है ।