राजेश बादल
कोई 195 साल पहले जब कानपुर से गए पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने देश की राजधानी कलकत्ता से हिंदी में साप्ताहिक उदंत मार्तंड निकालने का निर्णय लिया तो वे जानते थे हठयोग साधना बहुत आसान नहीं है । अंगरेज़ी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में रिसाले प्रकाशित हो रहे थे ,लेकिन वे नक्कारखाने में तूती की आवाज़ ही थे । उस दौर के विराट देश में धुर पूरब के किनारे से कोई समाचारपत्र निकाल कर बंबई के पश्चिम तट तक पहुंचाना या दक्षिण में कन्याकुमारी और उत्तर में लद्दाख तक गोरों के खिलाफ़ आवाज़ पहुंचाना उस ज़माने में किसी भी उद्योगपति के लिए टेढ़ी खीर था तो फिर पंडित शुक्ल जी की बिसात ही क्या थी । ( माफ़ कीजिए यह काम तो आज भी सरल नहीं है )
इसके बावजूद पंडित जी ने दुस्साहस किया और खूब किया । बंगला भाषियों के बीच खड़ी हिंदी जानने,समझने और पढ़ने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते थे ।ऐसे में पांच सौ प्रतियां भी यदि कोई अख़बार छाप रहा था तो यकीनन उसके लिए एक सलाम तो बनता था । पंडित जी ने उदंत मार्तंड तीस मई ,1826 को शुरू तो कर दिया मगर डाक के जरिए उसे दूर दूर तक भेजना दुष्कर ही था ।वे सरकारी डाक प्रणाली पर निर्भर थे । अरसे तक वे डाक शुल्क में रियायत की मांग करते रहे पर किसी ने नही सुनी । यह रियायत सिर्फ़ ईसाई मिशनरियों के प्रकाशनों को दी जाती रही । कोई भी शासन तंत्र अपनी आलोचना के सुरों को मुल्क भर में विस्तार देने के लिए आ बैल मुझे मार की नीति को क्यों बढ़ावा देता । जब बरतानवी हुकूमत ने देखा कि हिंदी का यह नवेला समाचार पत्र हिंदी भाषी इलाकों से गए उनके कर्मचारियों में लोकप्रिय हो रहा है तो उनकी पेशानी पर बल आए । वे अपने कर्मचारियों में अपने हक़ के लिए सुर फूटते कैसे देख सकते थे । लिहाज़ा उन्होंने फ़रमान जारी किया कि जिसके पास उदंत मार्तंड के अंक मिलेंगे,उनको और उनके रिश्तेदारों को नौकरी से निकाल दिया जाएगा । इसके बाद इलाहाबाद, कानपुर, पटना,रांची और भागलपुर से गए हिंदी भाषियों की शामत आ गई । उत्तर से गए उद्योगपतियों और अमीरों ने विज्ञापन देने बंद कर दिए । छापाखाने को प्रिंटिंग का जॉब वर्क मिलना ठप्प हो गया । दुखी पंडित जी ने सरकारी समाचार भी छपने शुरू किए लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकला । हारकर पंडितजी को दिसंबर 1827 आते आते समाचार पत्र बंद करने का फ़ैसला लेना पड़ा । तब तक कुल 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए थे । पंडित जी ने आखिरी अंक में अपनी वेदना कुछ इस प्रकार प्रकट की -
आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त /
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अंत /
इस तरह हिंदुस्तान का यह पहला हिंदी साप्ताहिक दम तोड़ गया ।
इसके बाद के साल अंग्रेजों से मोर्चा लेती पत्रकारिता के थे । विचारों की आग फैलाने वाले अनगिनत क्रांतिकारियों और देशभक्तों ने इस मिशन में अपनी आहुतियां दीं । आज़ादी के बाद नेहरू युग अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतांत्रिक धारा को मज़बूत करने वाला दौर था ।लेकिन उसके बाद नए किस्म की चुनौतियों ने सिर उठाया । भले ही राजशाही का स्वतंत्रता के बाद क़ानूनी रूप से अस्तित्व में नहीं रही ,लेकिन सियासत में भ्रष्टाचार के चलते नए ढंग की सामंतशाही पनपी। उससे मुक़ाबला साल दर साल कठिन होता जा रहा है। नए ज़माने के राजनेता सामंती मनोवृति को बढ़ावा देते नज़र आते हैं। यह अपने तरह की बड़ी चुनौती है। चुनौती बाज़ार और तकनीक की भी है। आधुनिकतम तकनीक के कारण पत्रकारिता को भी नए नवेले मीडिया अवतारों के साथ क़दमताल करना काँटों भरा ताज़ पहनना है। इसी तरह बाज़ार के दबाव भी अनंत हैं। बड़े घरानों के हितों-स्वार्थों का संरक्षण करना आज के दौर की पत्रकारिता का विद्रूप चेहरा है। पत्रकारिता परदे के पीछे है और मीडिया घरानों के धंधे सामने हैं। धंधे चमकाने के लिए अख़बार और चैनल मंच पर हैं। बाक़ी सब कुछ नेपथ्य में है। इसके अलावा संपादक नाम की संस्था का दिनों दिन बारीक़ और महीन होते जाने से पत्रकारिता की नई पीढ़ियों का नुक़सान हो रहा है। अधिकतर पेशेवर रीढ़विहीन हैं ,जो सत्ता प्रतिष्ठान को पोसाते हैं। इसी कारण सियासी मानसिकता पत्रकारिता को बंधक बनाकर या बाँटकर राज करने की होती जा रही है। यही काम तो गोरी सरकार करती थी। अब हमारी संस्थाएं कर रही हैं। पत्रकारिता नए तरह की चुनौतियों के घेरे में है। भारतीय लोकतंत्र की सेहत के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।