राजेश बादल
सुप्रीम कोर्ट ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। बीते सप्ताह जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने कहा है कि एक वक़ील पत्रकारिता नहीं कर सकता। बार कौंसिल ऑफ़ इण्डिया के नियमों के मुताबिक़ कोई अधिवक्ता दोहरी भूमिका नहीं निभा सकता। खंडपीठ ने इसे व्यावसायिक कदाचार मानते हुए बार कौंसिल को भी नोटिस जारी किया है। खंडपीठ ने अधिवक्ता से कहा कि या तो आप पत्रकारिता कर लीजिए या फिर पत्रकारिता। वक़ालत एक नेक पेशा है और आप यह भी नहीं कह सकते कि आप स्वतंत्र पत्रकार हैं। हम इसकी इजाज़त नहीं दे सकते।
मुझे याद आता है कुछ दशक पहले तक सुप्रीम कोर्ट में वक़ालत के साथ साथ स्वतंत्र पत्रकारिता करने वालों की बड़ी इज्ज़त होती थी। वे सामाजिक सरोकारों के प्रति पूरी संवेदना के साथ जब न्यायालय में खड़े होते थे तो उनको सम्मान से सुना जाता था।यही नहीं ,एक अधिवक्ता एक्टिविस्ट के तौर पर पीड़ित मानवता की सेवा करता था और मानवीय मूल्यों का समर्थन करता था तो माननीय न्यायाधीश उसे बड़े ध्यान से सुनते थे। दूसरी तरफ़ समाचार पत्रों में उन्हीं को क़ानूनी मामलों का रिपोर्टर बनाया जाता था ,जो पेशे से वकील होते थे।उनकी यह भूमिका अंशकालिक होती थी।अनेक पत्रकार सह वकील या एक्टिविस्ट सह वकीलों का ज़िक्र तो फ़ैसलों में किया जाता था और उनकी सराहना की जाती थी । यहाँ तक कि समाज से निकलकर आने वाली जनहित याचिकाओं तक को प्रोत्साहित किया जाता था। इन दिनों लगता है कि जनहित याचिकाओं से न्यायालय ऊब चुका है। ऐसी याचिका लगाने वाले एक स्वतंत्र पत्रकार को तो अदालत ने दण्डित किया था। यह तनिक अटपटा लगता है। देखते ही देखते न्यायालय के सोच में इतना अंतर क्यों आया ?
यह भी मुझे याद है कि संसार की भीषणतम भोपाल गैस त्रासदी में हज़ारों लोग मारे गए थे और लाखों बीमार या अपाहिज हो गए थे। अभी भी उन गैस पीड़ितों की पीढ़ियाँ अपनी देह में दौड़ रहे मिथाइल आइसो साइनेट के ज़हर का असर झेल रही हैं। यह पूरी तरह से अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड के कारण हुआ था। विडंबना यह कि तमाम वक़ील - सह - पत्रकार - सह एक्टिविस्ट इस दौर में अभागे गैस पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए वर्षों तक रात दिन एक करते रहे। उनकी वक़ालत चौपट हो गई ,घर चलाना मुश्किल हो गया ,पीड़ितों के चंदे से उन्होंने ज़िला न्यायालय से सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। कहीं जीते ,कहीं हारे। बात जीत हार की नहीं है। मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि ऐसे अधिवक्ता -सह -एक्टिविस्ट सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में अपनी भूमिका के कारण जगह पाते रहे। माननीय न्यायाधीशों ने उनके काम को सराहा। अब आला अदालत कहती है कि दोहरी भूमिका मत निभाओ। जाने माने अधिवक्ता विभूति झा सुप्रीम कोर्ट में पहली बार खड़े हुए और अपने तर्कों से छा गए। वे सन 1988 -89 के दरम्यान ज़िला अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक वे अपनी एक्टिविस्ट भूमिका के कारण ही सराहे गए। अदालती रिकॉर्ड उनके तर्कों से भरे पड़े हैं। एक और स्वतंत्र पत्रकार तथा स्वयंसेवी कार्यकर्ता सचिन जैन को सुप्रीम कोर्ट ने लगभग पंद्रह बरस पहले सलाहकार की भूमिका सौंपी थी। उन्होंने खाद्य सुरक्षा और कुपोषण के संबंध में काम किया था। क़रीब चवालीस साल पहले बहुचर्चित छतरपुर पत्रकार उत्पीड़न काण्ड में अधिवक्ता जगदीश तिवारी ने जुडीशियल कमीशन के समक्ष पत्रकारों की पैरवी की थी।तिवारी जी पत्रकार थे और राष्ट्रीय दैनिक जनयुग के संवाददाता भी थे। न्यायिक जाँच आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति डी पी पांडे ने उनकी भूमिका की प्रशंसा की थी।आज़ादी के बाद ऐसे अनगिनत मामले हैं ,जिनमें अधिवक्ताओं ने दोहरी भूमिका के कारण वाहवाही लूटी है और समाज तथा लोकतंत्र का भला किया है।
माननीय न्यायालय की इस ताज़ी टिप्पणी से सवाल यह भी खड़ा होता हैं कि जब न्यायालय कहता है कि वक़ालत एक नेक पेशा है तो उससे ऐसा प्रतीत होता है मानों पत्रकारिता नेक पेशे से अलग है ,जो शायद नेक नहीं है। यह टिप्पणी दुर्भाग्यपूर्ण है। इन दिनों जिस तरह पत्रकारिता हो रही है ,उससे इस नेक पेशे की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है। हम न्यायपालिका के बारे में कुछ नहीं कहते ,मगर पत्रकारिता के लिए आला अदालत की टिप्पणी में जो सन्देश छिपा है ,वह आपके लिए भी एक गंभीर चेतावनी है मिस्टर मीडिया