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हॉट टोपिक
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Added on : 2023-01-31 23:13:47

रघुराज सिंह

मुझे गांधी न जाने क्यों रह-रह के याद आते हैं ? मैंने गांधी को न देखा, न सुना। जब उनकी हत्या हुई तब में चार साल का भी नहीं था। सन् 1950 के आसपास जब मैं स्कूल पहुँचा तब बस्ते में बाल भारती और स्लेट के साथ एक तकली और रूई (कपास) भी रहती थी। यह गांधी जी के चरखे का छात्र संस्करण था। उस समय स्कूल की सभी कक्षाओं में तकली से सूत कातने का एक पीरियड होता था। स्कूल में तकली और रूई के तालमेल से सूत कातना पाठ्यक्रम का जरूरी हिस्सा था। उस जमाने में तकली, पाठ्यक्रम की किताबें बेचने वालों के यहाँ मिलती थी तब तो यह समझ में नहीं आया कि तकली का गांधी जी से क्या रिश्ता था जब यह समझ में आया तब तक तकली प्रचलन से बाहर हो गई, यानि गांधी की एक विरासत, एक पहचान स्कूल से विदा हो गई थी। इसका यह भी मायने था कि सार्वजनिक जीवन से चरखा भी विदा हो गया था। यह एक प्रकार से देश के सार्वजनिक जीवन से गांधी की विदाई की शुरूआत थी तब स्कूलों में गांधी टोपी पहनना जरूरी था, बच्चे खादी की सफेद टोपी पहन कर आते थे, मास्साब भी जब कक्षा तीन में पहुँचा तब तक खादी की सफेद टोपी भी सिर से उतर गई।

जब पाँचवी कक्षा में पहुँचा तो गांधी जी का एक पाठ उस समय की बालभारती में था। उन दिनों भी दो अक्टूबर की छुट्टी होती । इस दिन गांधी जी की जय बोलते हुए प्रभात फेरी मेरे छोटे से कस्बे अशोक नगर में निकाली जाती। इसमें बच्चों के साथ कस्बे के लोग भी शरीक होते। यह प्रभात फेरी कस्बे के मुख्य मार्गों से होते हुए स्कूल पर ही पूरी होती। कुछ सालों बाद सरकारी छुट्टी तो होती अब भी हो रही है, लेकिन ज्यादातर बच्चों का स्कूल जाना बंद हो गया और इसी के साथ प्रभात फेरी भी क्या विसंगति है कि गांधी जिनके जीवन में छुट्टी जैसा कोई दिन नहीं था, उनका जन्मदिन सार्वजनिक अवकाश होता है।

दूसरा आम चुनाव सन् 1957 में हुआ। कस्बे में राजनीतिक दलों की आमसभा होती, उसमें गांधी जी ने देश को अंग्रेजो से आजाद कराया इसका जिक्र कांग्रेस के नेता जरूर करते। दूसरे आम चुनाव में गुना विदिशा संसदीय क्षेत्र से हिन्दूमहासभा के नेता विष्णु घनश्याम देशपाण्डे कांग्रेस के विरोध में चुनाव लड़े थे और जीते थे। उनके और उनके समर्थकों के भाषणों में गांधी जी का उल्लेख गैरहाजिर रहता।

हाई स्कूल की परीक्षा पास करते-करते यह जरूर हुआ कि गांधी जी के विषय में कुछ जानकारी दिमाग में घर कर गई। मसलन, उनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबन्दर में हुआ, उनकी माँ का नाम पुतलीबाई और पिता का नाम करमचन्द गांधी था। उनका विवाह कस्तूरबा के साथ छोटी उम्र में हुआ था, और उन्होंने देश को अंग्रेजों से आजादी दिलाई इसके बाद गांधी जी किसी कक्षा के पुस्तक में रहे भी हों तो मुझे याद नहीं पड़ता।

जब मैं 1962 में कालेज की पढ़ाई के लिए ग्वालियर पहुँचा, तब तक गांधी की और भी फजीहत शुरू हो चुकी थी। चीन ने भारत पर आक्रमण कर देश की फिजा ही बदल दी थी। उस साल साइंस कालेज में जहाँ में पढ़ता था, छात्रों का सालाना जलसा (सोशल गैदरिंग) नहीं हुआ। इसकी जगह एकेडमिक वीक मनाया गया। इस वीक में अटल बिहारी वाजपेयी. रसायनशास्त्री डा० शेषादि, रक्षा विशेषज्ञ डा० हक्सर और बालकवि बैरागी आए थे जिनकी मुझे याद है। इनके अलावा दो विद्वान और थे। इस वीक में अटल जी ने भारत की विदेश नीति पर अपना व्याख्यान दिया था जिसमें गांधी जी कहीं नहीं थे। बैरागी जी ने अपनी चीन पर लिखी मशहूर कविता सुनाई थी। उसमें भी गांधी जी नदारद थे। सन् 1962-63 के अलावा 1966 से 1968 तक और इसी कालेज में पढ़ा। लेकिन गांधी पर केन्द्रित कोई कार्यक्रम कालेज में नहीं हुआ। मैं यह पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ।

तीसरा आम चुनाव सन् 1962 में हुआ। इस चुनाव में ग्वालियर संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से वहाँ की महारानी विजया राजे सिंधिया के विरोध में डा० राममनोहर लोहिया ने शुक्को मेहतरानी को उतारा था। यह चुनावी संघर्ष उस समय देश भर में महारानी बनाम मेहतरानी के नाम से मशहूर हुआ था जीत तो महारानी की तय थी, फिर भी डा० लोहिया ने मेहतरानी को प्रतीक बनाकर गांधीवाद की लड़ाई बहुत उसक से लड़ी थी। चूंकि मेहतर शब्द में गांधी के कई संदर्भ जुड़े हैं, अतः इस चुनावी संग्राम में वे पूरी पवित्रता से मौजूद थे। पहली बार मैं ने लोहिया जी के मुँह से मेहतर का नया किन्तु पूरी तरह सटीक अर्थ सुना था - " मेहतर यानि जो महत्तर कार्य करे। क्या वक्त था और क्या लोग थे। यह एक तरह से आखिरी बार गांधी जी की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक ताकतवर मौजूदगी थी।

बाद के सभी चुनावों में राजनीतिक दलों के लिए गांधी पूरी तरह अप्रासंगिक हो गए। दल-बदल और आयाराम गयाराम की राजनीति से गांधी का सामंजस्य संभव ही नहीं था। देश में थोड़े से कुजात गांधीवादी बचे थे जिनको वक्त के थपेड़ों ने खत्म कर दिया। मठीय गांधीवादी गांधी के नाम पर देश भर में फैले गांधी आश्रमों, भवनों और संस्थाओं पर काबिज होने की लड़ाई में पूरी ताकत से जुट गए। कुछ पर सरकार ने कब्जा कर लिया। साबरमती और वर्धा के गांधी से जुड़े स्मारक टूरिस्ट डेस्टीनेशन हो गए हैं।

आजाद हिन्दुस्थान में गांधी बार-बार मारे जाते हैं। केवल पहली बार ही उनका नाम महात्मा गांधी था। दूसरी दफा जब उन्हें मारा गया तो नाम था 'बाबरी मस्जिद'। तीसरी बार उनका नाम था पादरी ग्राहम स्टेन्स जिसे उसके बच्चों के साथ जिन्दा जला दिया गया था। हर बार मारने वाले थे करूणा के आवरण में लिपटे हाथों में धर्मध्वजा लहराते धर्मरक्षक। यह सिलसिला थमता नहीं है, जारी रहता है। नाम बदलते रहते हैं

पिछले प्रन्दह सालों से मैं भोपाल के कुछ गैरसरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया का हिस्सा हूँ। हर साल सौ से ज्यादा युवाओं के साक्षात्कार में शामिल रहता हूँ। साक्षात्कार के दौरान प्राचार्य साहबान विषय से संबंधित सवाल पूछते हैं। मैं उनसे गांधी को लेकर बातचीत करता हूँ। मेरा उनसे सवाल होता है कि गांधी जी के जन्मदिन, जन्मस्थान, माता-पिता- पत्नी और पढ़ाई के अलावा वे उनके बारे में अन्य कोई जानकारी दें। अपवाद स्वरूप दो-चार को छोड़कर सभी का जवाब होता है कि गांधी जी ने भारत को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी दिलाई। शिक्षक बनने के लिए आतुर ये युवा गांधी के संघर्षो की विविधता से पूरमपूर जीवन के बारे में कुछ नहीं बता पाते। अर्थशास्त्र पढ़ा गांधी के आर्थिक सिद्धान्तों को लेकर मौन साध लेता है तो समाजशास्त्र का उपाधिधारी उनके सामाजिक दर्शन को लेकर शिक्षा में स्नातक और परास्नातक गांधी की शिक्षा की अवधारणा से अपरिचित हैं। गांधी ने कैसे लोकतंत्र की कल्पना की थी ? ये प्रजातंत्र खेती किसानी, रोजगार, धर्म और साम्प्रदायिक सद्भाव को लेकर क्या सोचते थे ? चरखा और खादी उनकी जिन्दगी का हिस्सा क्यों थे ? उनकी पत्रकारिता कैसी थी ? आधे बदन पर धोती लपेटे क्या यह आदमी बिलकुल नीरस था या उनकी जिन्दगी में कोई रस भी था ? क्या देश की आजादी के लिए फिरंगियों से जूझने के अलावा लम्बे समय से गुलामी से गुजरे हिन्दुस्तान की अन्य समस्याओं से उनका कोई वास्ता भी था ? जहाँ एक ओर वे इन सवालों में निहित कोई जानकारी नहीं दे पाते, वहीं बिना बोले उनके सपाट चेहरे साफ तौर पर चुगली करते हैं कि ये सभी सवाल इन युवाओं के लिए अप्रासंगिक और अर्थहीन हैं। जिन युवाओं का जिक्र है ये प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों से ऊँची तालीम प्राप्त होते हैं। इनमें कुछ इंजीनियर, आयुर्वेद और होम्योपैथी के डाक्टर भी होते हैं।

इन सवालों को लेकर पुरानी पीढ़ी के एक शिक्षाविद से चर्चा की तो वे गुस्से से तमतमा गए और उन्होंने जो प्रतिप्रश्न खड़े किए उनसे मैं शर्म में डूब गया। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या देश की अर्थव्यवस्था गांधीयन अर्थशास्त्र से चल रही है ? क्या हमारे लोकतंत्र का गांधी से कोई बास्ता है ? क्या शिक्षा में गांधी की बुनियादी तालीम को कोई तब्बजो मिली है ? क्या खेती गांधी के तरीकों से हो रही है ? पत्रकारिता के आदर्श गांधी रहे हैं क्या ? क्या गांधी ने देश के कर्णधारों के लिए राजसी ठाठबाट की परम्परा छोड़ी थी ? आप प्रश्न तो पूछते हो लेकिन क्या खुद खादी पहनते हो ? और भी तरह तरह के प्रतिप्रश्न। लेकिन मुझे युवाओं के गांधी से विरक्त होने के जवाब मिल गए थे। यह उल्लेख इसलिए हैं कि हमारी राज्य, समाज और शिक्षा व्यवस्था में पिछले 75 साल में उन मूल्यों को जो गांधी को बहुत प्रिय थे के साथ-साथ उन्हें (गांधी) भी विस्मृति के गहरे कुए में धकेल कर उसे विचारहीनता की धूल से ढक्कर समतल कर दिया है।

गांधी के अजमाए और बताए सत्याग्रह और अहिंसा का आन्दोलन जैसे हथियारों को अमल में लाने वालों का क्या हश्र हुआ है ? मामला चाहे साल-दर-साल जूझ रहे नर्मदा के विस्थापित आंदोलनकारियों का हो या फिर दिल्ली की सीमा पर सर्दी, गर्मी और बरसात में बैठे लाखों किसानों का पर्यावरणविद् प्रोफेसर सदानंद गंगा शुद्धिकरण की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठे तो फिर उठे ही नहीं। ये मर गए लेकिन उनसे कोई बात करने नहीं गया। नर्मदा के विस्थापितों, किसानों और सदानंद जैसे लोगों को सरकारें विकास विरोधी बताती रहीं और हमारा बहुसंख्यक समाज मौन रहकर देखता रहा। यह स्थिति देश में रही है गांधी के विचारों के प्रेक्टिशनरस की।

गांधी का जन्म तो दो अक्टूबर को हुआ था लेकिन उनका 150वां जन्मदिन, दिनों में नहीं वर्षो में मनाया गया। इन दो सालों के उत्सवी माहोल में गांधी जी का चश्मा सरकारी स्टेशनरी, विज्ञापनों, पोस्टरों, कार्यक्रम स्थलों के बैकड्राप और होर्डिंग्स में चस्पा रहा। लेकिन इन्ही दो सालों के बीच महामारी के कारण करोड़ों लोग देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक पैदल जाते रहे लेकिन गांधी के प्रिय भजन 'वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे' की पीर सरकारों ने तो महसूस नहीं की। मगर जनता ने बहुत शिद्धत से इस पीर का निवारण किया।

गांधी को तो बहुतेरे लोगों ने गोडसे से महान माना है । किन्ही साधारण सिरफिरों ने ही नहीं, बल्कि एक तथाकथित साध्वी ने जिसे प्रदेश की राजधानी भोपाल की जनता ने भारी बहुमत से चुनकर लोकसभा में भेजा है। गोडसे का मंदिर बनाने की पहल की जा रही है। ऐसे देश में गांधी का क्या काम।

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