राजेश बादल
जवाहरलाल नेहरू के तीन बार लगातार प्रधानमंत्री बनने के कीर्तिमान की बराबरी करने वाली ग़ैर कांग्रेसी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने काम संभाल लिया है। हालाँकि तीसरी बार अपनी दम पर भारतीय जनता पार्टी को बहुमत नहीं मिला ,जो नेहरू सरकार को हासिल था ।इसलिए कीर्तिमान की चमक तनिक धुंधलाई हुई है।मगर इस धुँधलाई चमक का बड़ा सकारात्मक लोकतान्त्रिक सन्देश भी इस मुल्क़ के मतदाताओं ने राजनीतिक दलों को दिया है।मतदाताओं ने पक्ष के साथ प्रतिपक्ष के प्रति भी भरपूर भरोसा जताया है।पिछली लोकसभा की तरह उसका आकार इस बार निर्बल और महीन नहीं है।वह अब पक्ष की आँखों में आँखें डालकर राष्ट्र की समस्याओं से लेकर नीति विषयक कठिन सवाल पूछ सकता है।भले ही भारतीय जनता पार्टी इससे अपने को असहज महसूस करे,लेकिन अब विपक्ष का सम्मान और उसकी शंकाओं का समाधान सत्तारूढ़ पार्टी का अनिवार्य कर्तव्य है । विपक्षी सवालों के घेरे से बच निकलने की कोशिश अब वह नहीं कर सकती।भारत के लोग उम्मीद कर सकते हैं कि संसद और संविधान की सर्वोच्चता का सभी दल सम्मान करेंगे। बीते दिनों मैंने इसी पृष्ठ पर लिखा था कि भारी बहुमत वाला इकतरफ़ा जनादेश किसी भी गणतंत्र के लिए ख़तरे से खाली नहीं होता।यदि सरकारी पक्ष का आकार ट्रैक्टर के पहिए जैसा हो और प्रतिपक्षी बेंच पर बैठने वाले साइकल के पहिए जैसे हों तो फिर लोकतंत्र की गाड़ी फ़र्राटे से नहीं दौड़ सकती।पक्ष हमेशा बहुमत पर गर्वोन्मत रहता है और विपक्ष अपने बौनेपन के कारण अवसादग्रस्त रहता है।पिछली बार का उदाहरण है कि लोकसभा में विपक्ष के नेता पद के लिए किस तरह जद्दोजहद हुई थी और सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस को संसदीय भूमिका निभाने का अवसर आसानी से नहीं मिला था।इस बार सरकार विपक्ष के सवालों की उपेक्षा नहीं कर सकती और न ही विपक्ष के पास सार्थक भूमिका नहीं निभाने के लिए कोई बहाना है ।
लोकतान्त्रिक संतुलन के चलते ही मुल्क़ के मतदाता मिली जुली सरकार से अनेक परिणाम चाहते हैं।यह ग़ैर वाज़िब नहीं है। जनादेश उन चुनौतियों से निपटने के लिए एनडीए सरकार से अपेक्षा करता है,जो नए भारत में दिनों दिन विकराल हो रही हैं।अलबत्ता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपनी बड़ी चुनौती यही है कि इस बार उन्हें गठबंधन के सहयोगी दलों को भी ज़िम्मेदारी से साथ लेकर चलना होगा। ज़ाहिर है कि प्राथमिकता की सूची में सर्वसम्मत न्यूनतम साझा कार्यक्रम सर्वोपरि होगा।अर्थ यह है कि भारतीय जनता पार्टी की अपनी प्राथमिकताएँ हाशिए पर ही रहेंगीं।
किसी भी सरकार के लिए अवाम के दिलों में छबि निर्माण का काम इन दिनों अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया है।एक बार जो छबि बन जाती है,उसे बदलना आसान नहीं होता।इस बरस लोकसभा चुनावों का ऐलान हुआ,तो सत्तारूढ़ दल से जुड़े कुछ नेताओं के बयानों से धारणा बन रही थी कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार की भावना संविधान का सम्मान करने की नहीं है और वह उसमें बदलाव की मंशा रखती है।चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव जीतने के बाद संविधान की प्रति को सर से लगाकर सम्मान देने की भावना का सार्वजनिक इज़हार कर दिया है।मगर उनकी पार्टी के लोग भी ऐसा करें तो लोगों में भरोसा जगेगा। संसद की सर्वोच्चता भी एक गंभीर मुद्दा है। संसद में मुल्क़ के महत्वपूर्ण मसलों पर गंभीर चर्चा हो। इन चर्चाओं में विपक्ष को शामिल किया जाए,संसदीय समितियों और उनके कामकाज को प्रधानता दी जानी चाहिए। देश का कोई बड़ा और नीति विषयक निर्णय संसद में ही होना चाहिए। सामूहिक विमर्श से हमेशा बेहतर परिणाम मिलते हैं।यही लोकतंत्र का तकाज़ा है।
इसके अलावा सरकार की धर्मनिरपेक्ष छबि पर भी पिछले कार्यकाल में कई बार सवाल उठे थे।कुछ घटनाओं से इन सवालों - संदेहों को बल मिला। पार्टी ने अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों को लोकसभा का टिकट देने में कंजूसी बरती। इसका सन्देश अच्छा नहीं गया।धर्म निरपेक्षता के बारे में उनकी सरकार के कामकाज से ही छबि बदलेगी। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार में शामिल दो बड़े घटक दल तेलुगुदेशम और जनता दल (यूनाइटेड ) का अपरोक्ष दबाव भी रहेगा। इन दोनों पार्टियों का भारतीय जनता पार्टी के साथ वैचारिक मतभेद रहा है। भले ही वे एनडीए में शामिल रहे हैं। मगर ,उनका रवैया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरे कार्यकाल में सतर्क और सावधान रहने के लिए बाध्य करता रहेगा। नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू सियासत में प्रधानमंत्री से वरिष्ठ हैं और सियासी शतरंज की चालों को बख़ूबी समझते हैं। उनको संतुष्ट करना समूचे कार्यकाल में प्रधानमंत्री के लिए अलग चुनौती बना रहेगा।
अच्छी बात है कि शपथ समारोह का भागीदार बनाने के लिए नई सरकार ने पड़ोसी देशों को आमंत्रित किया ।महत्वपूर्ण यह है कि मालदीव के राष्ट्रपति भी इसमें आए।वे भारत विरोधी रवैए के लिए जाने जाते हैं। बीते दिनों अपने इंडिया आउट के फ़ैसले के बारे में भारत में काफी आलोचना का शिकार हुए हैं।वे खुले तौर पर चीन समर्थक हैं।उन्हें न्यौता देकर इस सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के उस कथन का सम्मान किया है,जिसमें उन्होंने कहा था कि हम सब कुछ बदल सकते हैं,लेकिन पड़ोसियों को नहीं। यह भावना नई सरकार की विदेश नीति में झलकनी चाहिए ।
इस बार चुनाव के प्रचार अभियान आकाश पर मँहगाई ,बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार के आरोपों के घने बादल मँडराते रहे। दस वर्षों में भारत के लिए यह तीन मुद्दे बड़ी चुनौती बने रहे हैं।एनडीए सरकार के लिए तमाम प्राथमिकताओं से ऊपर इन समस्याओं से निज़ात पाना बेहद ज़रूरी है। यदि इन पर ध्यान नहीं दिया गया तो अगले चुनाव में यह मुद्दे सरकार के लिए एक बार फिर संकट बन सकते हैं। सरकार को सरकारी सेवाओं के दरवाज़े और बड़े करने होंगे तथा किसानों और नौजवानों के लिए ख़ास तौर पर काम करना होगा।