राजेश बादल
मणिपुर जल रहा है। आमतौर पर शांत रहने वाले इस खूबसूरत पहाड़ी प्रदेश के नागरिक इस दावानल से दुखी हैं। ऐसी हिंसा उन्होंने चौहत्तर साल में कभी नहीं देखी।राजधानी इंफ़ाल में अत्याधुनिक विदेशी हथियारों से लेस सैकड़ों उग्रवादी घुसे हुए हैं। उनमें से चालीस मारे गए हैं।सौ से अधिक निर्दोष नागरिक जान गँवा चुके हैं। सड़कों पर लाशें बिखरी पड़ी हैं। सेना और अर्धसैनिक बलों के लिए स्थिति पर क़ाबू पाना कठिन हो गया है। सतही तौर पर भले ही यह मैतेई और नगा - कुकी के बीच विवाद नज़र आता हो ,लेकिन परदे के पीछे की कहानी कुछ अलग ही इशारा कर रही है। म्यांमार और चीन से सटे पूर्वोत्तर के मणिपुर तथा अन्य राज्यों में लंबे समय से अशांति और अस्थिरता के पीछे चीन भी एक कारण रहा है। चूँकि इन दिनों म्यांमार की फ़ौजी हुकूमत से हिन्दुस्तान के संबंध मधुर नहीं हैं और वहाँ की सेना चीन के प्रभाव में है। इसलिए संदेह करने का पर्याप्त आधार है कि मणिपुर के सामाजिक सोच को संघर्ष की ओर मोड़ने के लिए कहीं परदेसी ताक़तों का हाथ तो नहीं है।
हिन्दुस्तान की भौगोलिक और सांस्कृतिक - सामाजिक विविधता को ध्यान में रखते हैं तो पाते हैं कि इस मुल्क के सूबों में इतनी महत्वपूर्ण घटनाएं एक साथ घटती हैं कि सब पर नज़र रखना एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आती है । एक प्रदेश के नागरिक नई सरकार के स्वागत जश्न में डूबे होते हैं तो दूसरा चुनाव के शोर शराबे में डूबा होता है।तीसरा सूबा सूखे की मार झेल रहा होता है तो चौथे प्रदेश में बर्फ़बारी हो रही होती है। पाँचवाँ प्रदेश बाढ़ की विभीषिका से लड़ रहा होता है और छठवें में कम उत्पादन तथा कर्जवसूली से परेशान किसान आत्महत्या कर रहे होते हैं। ऐसे में एक तंत्र के लिए स्थानीय संवेदनाओं के मद्देनजर काम करना बेहद मुश्किल भरा हो जाता है।ईमानदारी की बात तो यह है कि दक्षिणी और सीमान्त राज्यों की समस्याओं तथा उनके विकास की बाधाओं के बारे में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही हम गहराई से ध्यान नहीं दे सके हैं। इसीलिए कभी एक राज्य में नक्सल समस्या विकराल रूप लेती रही है तो दूसरे में आतंकवाद ज़ोर पकड़ता रहा है। पूर्वोत्तर प्रदेशों को भले ही सेवन सिस्टर्स के नाम से हम जाने -पहचाने ,मगर यह भी सच है कि अरसे तक मिजोरम में इसी तरह की हिंसा और अलगाववादी प्रवृतियाँ पनपती रही हैं। असम भी इसी तरह आंतरिक अशांति और ख़ून ख़राबे का शिकार रहा है। गोरखालैंड की माँग और दार्जिलिंग के इर्दगिर्द स्थानीय पृथकतावादी समूह पनाह पाते रहे हैं।पहली बार राजीव गाँधी की सरकार ने इन मसलों पर गहराई से विचार किया था।अर्जुनसिंह के राज्यपाल रहने के दौरान पंजाब में आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने के लिए संत लोंगोवाल के साथ राजीव सरकार ने समझौता किया था।यह समझौता जुलाई 1985 में हुआ था। इसके अतिरिक्त मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट के नेता लल देंगा ने राजीव गाँधी सरकार के साथ जब जून 1986 में समझौता किया तो वहाँ शांति के नए दरवाज़े खुले।मिजो नेशनल फ्रंट ने हथियार डाले और लोकतांत्रिक मुख्य धारा में शामिल हो गया। लल डेंगा मुख्यमंत्री बने। यह तो केवल दो उदाहरण हैं। कहा जा सकता है कि जब जब भी पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को विकास की मुख्यधारा में शामिल किया गया तो अपनी पहचान के साथ शामिल हुए।
जहाँ तक मणिपुर के ताज़ा दौर की बात है ,उसमें प्राथमिक तौर पर प्रशासन तंत्र की ज़िम्मेदारी दिखाई देती है। लगातार अपनी अपनी पहचान के साथ रहती आ रहीं मैतेई और नगा - कुकी कभी आपस में ख़ून ख़राबे के इस हालात तक नहीं पहुंचे । नगालैंड और मणिपुर के बीच यदा कदा मतभेद पनपे भी तो उन्हें समझदारी पूर्वक सुलझा लिया गया। लेकिन इस बार धीरे धीरे परिस्थितियाँ गंभीर रूप लेती रहीं और स्थानीय सरकार तथा प्रशासन उसके विवेकपूर्ण हल खोजने की दिशा में काम नहीं कर पाया। यह बेतुकी बात थी कि सरकार ने वहाँ वन भूमि में निवास कर रहे नगा और कुकी जनजाति के लोगों को घुसपैठिया बताते हुए उन्हें बाहर खदेड़ने का निर्णय लिया। चूराचांदपुर के यह नगा - कुकी इससे ख़फ़ा थे। उनमें अधिकतर ईसाई धर्मावलंबी हैं। भारतीय मतदाताओं को अपने ही मुल्क़ में घुसपैठिया बताने का यह अजीबोगरीब उदाहरण है। मैतेई वहाँ बहुसंख्यक हैं और जब हाल ही में मणिपुर उच्च न्यायालय ने मैतेई समुदाय को जनजाति में शामिल करने का आदेश दिया तो इसी श्रेणी के नगा - कुकी भयभीत हैं कि अब उनके अधिकारों में कटौती हो जाएगी।इस अदालती आदेश ने आग में घी डालने का काम किया। राज्य सरकार ने यहाँ संवेदनशीलता नहीं दिखाई। इसके अलावा आपको याद होगा कि कुकी समुदाय के अनेक संगठन उग्रवादी समूहों में बंटे रहे हैं। डॉक्टर मन मोहन सिंह की सरकार ने 2008 में उनके साथ संधि की और उनके ख़िलाफ़ सैनिक कार्रवाई रोक दी। इसके बाद सब शांत चल रहा था पर, राज्य सरकार ने इसी बरस 10 मार्च को दो संगठनों के साथ इकतरफा समझौता तोड़ने की घोषणा कर दी। ज़ोमी रिवोल्यूश्नरी आर्मी और कुकी नेशनल आर्मी नाम के यह दोनों हथियारबंद संगठन हैं। इस तरह पहले से जारी तनाव ने एक और घातक शक्ल अख्तियार कर ली। महत्वपूर्ण यह है कि पूर्वोत्तर के अधिकतर हथियारबंद संगठनों के तार भारत से बाहर भी जुड़ते हैं। चीन और म्यांमार के मधुर संबंध इन दिनों इन सशस्त्र संगठनों के लिए बड़े काम के साबित हुए हैं।उन्हें म्यांमार के रास्ते हथियार मिलते रहे हैं और सैनिक प्रशिक्षण शिविरों में प्रशिक्षण भी मिलता रहा है। नौ साल पहले म्यांमार में चल रहे ऐसे ही कुछ शिविरों पर भारतीय सेना ने स्ट्राइक की थी। उसके बाद वाहवाही भी लूटी गई। ज़ाहिर है इससे म्यांमार ने अपमानित महसूस किया। यह पहली बार नहीं था ,जब इस तरह की कार्रवाई हुई। पहले भी होती रही हैं।लेकिन अब समीकरण बदले हुए हैं। म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार की मुखिया आंग सान सू ची जेल में बंद हैं और चीन सरकार वहाँ की फौजी हुकूमत को भारत के विरुद्ध जब तब उकसाती रहती है। हिन्दुस्तान को ध्यान में रखना होगा कि जो समस्या देखने में घरेलू दिखाई देती है ,उसके तार दूर कहीं किन्ही ताक़तों के हाथ में होते हैं।