राजेश बादल
दो गुट हैं।एक तरफ़ फ़ौज और शाहबाज़ शरीफ़ की गठबंधन सरकार है। दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय तथा पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की पार्टी। इन दो पाटों के बीच पिस रही है आम अवाम।पर इस बार लोग सेना से तंग आकर पूरी तरह लोकतंत्र चाहते हैं। पहले फ़ौज और इमरान ख़ान की सरकार एकजुट थी तो नवाज़ शरीफ़ के मामले आला अदालत में थे । उस समय भी उनकी पार्टी सुप्रीम कोर्ट के सामने धरने पर बैठी थी। अब न्यायपालिका का पलड़ा इमरान ख़ान के पक्ष में झुका है तो सरकार न्यायपालिका के रवैए के ख़िलाफ़ धरने पर बैठी है।सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की गिरफ़्तारी को ग़ैर क़ानूनी बताते हुए उनको रिहा करने के आदेश दिए थे। इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ पद पर रहते हुए मिले तोहफों की हेराफेरी के आरोप हैं। यह अलग बात है कि इमरान ख़ान के पार्टी कार्यकर्ता देश भर में हिंसा और उपद्रव कर रहे हैं।इस हिंसा में अनेक जानें जा चुकी हैं।लेकिन इन सबके पीछे सकारात्मक बात यह है कि पहली बार पाकिस्तानी जनता का अपनी ही सेना से मोहभंग हुआ है। लोग जान की परवाह न करते हुए फ़ौज के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं।सेना के लिए यह बड़ा झटका है।
सवाल यह है कि क्या इस तरह सेना का बैकफुट पर जाना पाकिस्तान के भविष्य के लिए बेहतर है। इस देश ने जबसे दुनिया के नक़्शे में आकार लिया ,तबसे कुछ अपवाद छोड़कर फ़ौज ही उस पर हुक़ूमत करती रही है ।उसने न तो लोकतंत्र पनपने दिया और न निर्वाचित सरकारें उसके इशारे के बिना ढंग से राज कर पाईं हैं । संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की अत्यंत संक्षिप्त सी पारी छोड़ दें तो कोई भी राजनेता सेना के साथ तालमेल बिठाकर ही काम कर पाया है। सेना के बिना उसका अस्तित्व अधूरा रहा है। हालाँकि अंतिम दिनों में जिन्ना भी अपनी छबि में दाग़ लगने से नहीं रोक पाए थे। उनको उपेक्षित और हताशा भरी ज़िंदगी जीनी पड़ी थी। वे अवसाद में चले गए थे। फ़ौज शनैः शनैः निरंकुश होती गई और उसके अफसर अपने अपने धंधे करते रहे। छबि कुछ ऐसी बनी कि यह मुहावरा प्रचलित हो गया कि विश्व के देशों की हिफाज़त के लिए सेना होती है ,लेकिन एक सेना ऐसी है ,जिसके पास पाकिस्तान नामक एक देश है।ज़ाहिर है कि सेना निरंकुश और क्रूर होती गई है ।
यह फ़ौज ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को प्रधानमंत्री भी बनवाती है और सरेआम फाँसी पर भी लटकाती है ,बहुमत से चुनाव जीतने के बाद भी बंगबंधु शेख़ मुजीब उर रहमान को जेल में डाल सकती है और अपने पागलपन तथा वहशी रवैए से मुल्क़ के दो टुकड़े भी होने दे सकती है । बेनज़ीर भुट्टो की हत्या भी ऐसी ही साज़िश का परिणाम थी। कारगिल में घुसपैठ कराके अपनी किरकिरी कराने वाली भी यही फौज है। याने इस सेना को जम्हूरियत तभी तक अच्छी लगती है ,जबकि हुक़्मरान उसकी जेब में बैठे रहें और उसके इशारों पर नाचते रहें । देश का पिछड़ापन और तमाम गंभीर मसले उसे परेशान नहीं करते।वह यह भी जानती है कि हज़ार साल तक साझा विरासत के साथ रहते आए लोग जब तक हिन्दुस्तान से नफ़रत नहीं करेंगे ,तब तक उसकी दुकान ठंडी रहेगी। इसलिए वह जब तब कोशिश करती है कि भारत और पाकिस्तान की अवाम के दिलों में एक दूसरे के प्रति नफ़रत और घृणा बनी रहे। काफी हद तक उसके ऐसे प्रयास कारग़र भी रहे और मुल्क़ का एक वर्ग फ़ौज को अपना नायक मानता रहा।
अब अपने इसी हीरो से पाकिस्तान के आम नागरिक का मोहभंग हो रहा है।नागरिकों ने देख लिया है कि सेना उसकी समस्याओं का समाधान करने में नाक़ाम रही है। देश में मंहगाई चरम पर है ,बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है ,आतंकवादी वारदातें कम नहीं हो रही हैं,उद्योग धंधे चौपट हैं ,सारे विश्व में पाकिस्तान की किरकिरी हो रही है और यह देश दिवालिया होने के कग़ार पर पहुँच गया है।इमरान और शाहबाज़ शरीफ़ कल भी फ़ौज की कठपुतली थे ,आज भी हैं और कल भी रहेंगे। आज यदि सेना इमरान को प्रधानमंत्री बना दे तो वे फिर फ़ौज के गीत गाने लगेंगे और शाहबाज़ शरीफ़ को सेना गद्दी से उतार दे तो वे उसके ख़िलाफ़ धरने पर बैठ जाएँगे।तात्पर्य यह है कि हुक्मरानों और सेना से जनता त्रस्त हो चुकी है।फ़ौज के ख़िलाफ़ आम नागरिक सड़कों पर उतर आएँ और फौजी अफसर उनका मुक़ाबला न कर पाएँ,देश के इतिहास में सिर्फ़ एक बार ऐसा हुआ है, जब जनरल अय्यूब ख़ान को राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा ने पाकिस्तानी सेना का मुखिया बनाया था। बीस दिन बीते थे कि अयूब ख़ान ने सैनिक विद्रोह के ज़रिए मिर्ज़ा को ही पद से हटा दिया। वे ग्यारह साल तक पाकिस्तान के सैनिक शासक रहे। इस दरम्यान अवाम कुशासन से त्रस्त हो गई।लोग सड़कों पर उतर आए । अयूब ख़ान के लिए देश चलाना कठिन हो गया। देश भर में अराजकता फ़ैल गई।जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया और अयूब ख़ान को सत्ता छोड़नी पड़ी। उन दिनों सैनिक शासन से लोग दुःखी हो गए थे। पाकिस्तान के इतिहास में यह सबसे बड़ा जन आंदोलन था। अयूब ख़ान की फ़ौज कुछ नहीं कर पाई। यह अलग बात है कि अयूब ख़ान जब देश छोड़कर भागे ,तो अपना उत्तराधिकार भी एक जनरल याह्या ख़ान को सौंप गए। इस प्रकार फिर फौजी हुकूमत देश में आ गई।
अयूब ख़ान के बाद यह दूसरा अवसर आया है ,जब भारत का यह पड़ोसी लोकतंत्र के लिए सड़कों पर है। जनता अब जम्हूरियत चाहती है। उधर फ़ौज अपना अस्तित्व और साख़ बचाने के लिए लड़ रही है।राहत की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट नाजुक वक़्त पर मज़बूती दिखा रहा है। यह पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली के लिए आवश्यक है। भारतीय उप महाद्वीप भी अब यही चाहता है कि शांति और स्थिरता के लिए पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाल हो। एक ऐसा लोकतंत्र ,जो अपने पैरों पर खड़ा हो सके और करोड़ों लोगों का भला हो सके।