राजेश बादल
सुर सम्राट कुंदन लाल सहगल ने एक गीत गाया है।इसके बोल हैं,करूं क्या,आस निराश भई।इन दिनों सोशल और डिजिटल मीडिया के तमाम संस्करणों को देखकर यही गीत बार बार याद आने लगा है।जिस टूटन के चलते टीवी चैनलों को नकार कर करोड़ों दर्शक वैकल्पिक पत्रकारिता के स्क्रीन पर आए थे, कमोबेश यह स्क्रीन भी उसी टूटन या चटकन का अहसास करा रही है।जिस संपादकीय गुणवत्ता का विलोप टेलिविजन चैनलों में पहले ही हो चुका था,अब वही सूखापन यू ट्यूब तथा अन्य मंचों पर भी दिखाई देने लगा है।
अपनी बात और स्पष्ट करता हूं।अब यह छिपा हुआ रहस्य नहीं रहा कि मुल्क की पत्रकारिता साफ़ साफ़ दो वर्गों में विभाजित हो चुकी है।एक धारा सत्ता के साथ चिपक कर चल रही है और दूसरी हुकूमत की बखिया उधेड़ती है। ठकुरसुहाती करने वाली पत्रकारिता कभी भी अवाम के दिलों में सम्मान नहीं पाती।वह चारण या भाट का दर्ज़ा ही पाती है। राजा उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें दरबारियों में शामिल कर लेता है।चूंकि वह आम आदमी के दुख दर्द और सोच की नुमाइंदगी नही करता,इसलिए दूसरी धारा ने इस काम को करने का संकल्प लिया।वह व्यवस्था को आईना दिखाने लगी।उसे कर्तव्य बोध कराने लगी।कह सकते हैं कि एक तरह से स्वस्थ पत्रकारिता करने लगी। तो एक धारा सरकार की धुलाई वाली थी और दूसरी सरकार के बचाव वाली।इसके बाद संतुलित और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए कोई रास्ता नही बचा था।मुद्दों के आधार पर निरपेक्ष विश्लेषण करने वालों का कहीं ठिकाना नहीं रहा।
धीरे धीरे स्थिति ऐसी बन गई कि मौलिक और विचारपरक कंटेंट इन वैकल्पिक मीडिया के मंचों से भी नदारद हो गया।इस माध्यम पर भी पत्रकारिता अपनी चर्चाओं के विषयों का चुनाव अख़बारों को पढ़कर अथवा टीवी चैनलों को देखकर करने लगी।और तो और भविष्य में क्या होगा,इस पर भी चर्चाएं होने लगीं । विडंबना यह कि वैकल्पिक पत्रकारिता के मंचों पर भी वही लोग उपस्थित थे,जो पहले टीवी चैनलों में काम कर चुके थे।इसलिए उन्होंने इन माध्यमों पर भी टीवी वाली कार्य शैली अपना ली।शुरू शुरू में संप्रेषण माध्यम बदलने के कारण दर्शकों को नयापन अच्छा लगा।मगर,अब वे भी बोर होने लगे हैं। चैनलों की तरह अब दर्शक समझ जाते हैं कि इस यू ट्यूब चैनल पर अमुक स्वाद की चर्चा मिलेगी और किसी दूसरे पर दूसरा स्वाद होगा।
तो एक दर्शक या श्रोता का सवाल यह है कि वह कहां जाए ? इस वैकल्पिक प्लेटफॉर्म पर किसी चैनल को देखने या सुनने से पहले उसे यह धारणा बनानी पड़ेगी कि वह भी सत्ता प्रतिष्ठान का समर्थक या आलोचक बन जाए। उसके बाद वह मन पसंद धारा वाला चैनल चुन ले । अफ़सोस ! यह स्वस्थ्य पत्रकारिता नहीं है । बड़ी संख्या उस दर्शक या श्रोता वर्ग की है ,जो वाकई अंदरूनी राजनीतिक दांव पेंचों को नही समझता और हम पत्रकारों से निष्पक्ष विश्लेषण की आशा करता है ।इसके अलावा वह ज्ञान और सूचनाओं के उस भंडार की अपेक्षा भी करता है,जो उसे नही मालूम । जब वह देखता है कि यू ट्यूब चैनल भी या तो सत्ता की जी हुजूरी कर रहा है अथवा उसे गरिया रहा है तो अपना माथा पीट लेता है ।क्या आपने अपने घरों में पच्चीस से तीस साल के नौजवानों को नहीं देखा ,जो अब जानकारियों के लिए न तो अख़बार पढ़ते हैं, न टीवी चैनल देखते हैं और न यू ट्यूब चैनलों की बहस पर जाते हैं । हम उसके लिए नई नस्ल को ही दोष देते हैं ,मगर अपना स्तर और गुणवत्ता नही सुधारना चाहते । इसीलिए आप उसके दिल में अपनी प्रतिष्ठा खो चुके हैं । उस खोई प्रतिष्ठा को वापस पाने और गिरावट को कैसे रोकेंगे मिस्टर मीडिया !