राजेश बादल
क़रीब साल भर से एक किताब द एवरेस्ट गर्ल मुझे चिढ़ा रही थी।मेज़ पर रखी थी।लेकिन हालात ऐसे बनते रहे कि मुहूर्त ही नहीं आया।बीते पैंतालीस बरस से हर महीने दो या तीन पुस्तकें पढ़ने की आदत बनी हुई है।पर मालवा की इस हठी बेटी मेघा ने आख़िर वह स्थिति भी बना दी कि उसकी हिमालय गाथा कुछ समय पहले एक बैठक में ही पढ़ ली।
सोच रहा हूँ कि पहले बिटिया मेघा परमार का ज़िक्र करूँ या तैंतीस बरस पहले मेरे सहयोगी रहे बृजेश राजपूत का।क़ायदा कहता है कि इस कथा को हम सबके सामने लाने वाले बृजेश की बात ज़रूरी है।वे इस शब्द-फ़िल्म को सामने नहीं लाते तो हमें पता ही नहीं चलता कि कोई रातों रात एवरेस्ट की चोटी पर यूँ ही नहीं पहुँच जाता।बृजेश ने अपने करियर का आग़ाज़ भले ही मेरी तरह मुद्रित माध्यम से किया था मगर बाद में टेलिविज़न ने उन्हें भाषा और अभिव्यक्ति के वे संस्कार दिए,जो आज टीवी पत्रकारों में दुर्लभ हैं। बृजेश की कलम सारा किस्सा इस तरह बयान करती है कि लगता है कि कहानी मेघा ने ख़ुद बयान की है। बृजेश ने मेघा के जोश और जूनून को उसकी अपनी ज़बान को एक फ़िल्म की शक़्ल में बड़े हुनर से परोस दिया है।मंजुल प्रकाशन ने उनके इस यज्ञ में अपनी आहुति दी है।इसलिए उनका भी धन्यवाद तो बनता ही है कि वे एक नायाब पेशकश के साक्षी बने हैं।
बधाई बृजेश ! एक और बेहतरीन शाहकार के लिए।
और अब मेघा की बात।
दरअसल मेघा नाम से मेरा गहरा नाता है। मुझे बचपन से ही अपने सरनेम में बादल बहुत अच्छा लगता रहा है और मेघा का अर्थ भी बादल ही होता है। शायद सातवीं या आठवीं में पढ़ता था तो गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की एक कहानी पढ़ी थी।उसमें बंगाल की एक मेघना नदी का ज़िक़्र है।तब मैं नहीं जानता था कि मेघना का अर्थ भी बादल या गंगा नदी होता है।लेकिन मेरे अवचेतन में मेघना कहीं बस गया।दशकों बाद जब मेरे घर लक्ष्मी आई तो उसका नाम मेघना ही रखा।मैं मेघा से मिला नहीं हूँ।मिलना चाहता था।लेकिन कभी उसे फ़ुर्सत नहीं थी तो कभी मेरी परिस्थितियों ने मिलने से रोक दिया। इस तरह एक बादल से दूसरा बादल नहीं मिल सका।क्या संयोग है कि उसकी फोटो मैंने देखी तो मुझे अपनी बेटी का चेहरा याद आया। लगभग वही चेहरा। किताब पढने के बाद अहसास हुआ कि सिर्फ़ चेहरा ही नहीं,ज़िद और धुनी भी दोनों एक जैसी हैं।
असल में मेघा की यह ज़िद उसके परमार होने के कारण ही है।किताब में उसके पिता भी वास्तव में उतने ही ज़िद्दी नज़र आते हैं,जिन्हें बेटी के एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचने से कोई मतलब नहीं है।वे अपने वचन के पक्के हैं। बचपन में मेघा की सगाई को ब्याह का रूप देने में उनकी दिलचस्पी अधिक है। पर, जब यही मेघा हिमालय की चोटी पर तिरंगा फहरा कर लौटती है तो गाँव में ख़ुशी से झूमते हुए नृत्य भी करते हैं।भारत के पिता ऐसे ही होते हैं।ऊपर से कठोर,भीतर से मुलायम।नरम फाहे की तरह।दोनों के स्वभाव में यह साम्यता परमार गुणसूत्रों के कारण है।
परमारों से मेरे लगाव का कारण यह है कि पूर्णकालिक पत्रकारिता में आने से पहले मैं महाविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास का प्राध्यापक था।मुझे परमार काल हमेशा लुभाता रहा है।हज़ार साल पहले के प्रतापी राजाभोज की प्रतिभा का क़ायल था।वह राजा,जो डॉक्टर के रूप में जलमंगल जैसा ग्रन्थ रचता था और इंजीनियर के रूप में भोजमंदिर की ड्राइंग भी बनाता था।वह हवाईजहाज़ बनाने की तकनीक पर विमान ग्रन्थ भी लिखता था और न्यायप्रिय शासक की भूमिका भी अदा करता है।भोज को पढ़ना याने समंदर को पढ़ना है। मेघा के गाँव का नाम भोजनगर ही है। उज्जैन,भोपाल,सीहोर और धार जैसे ज़िलों में आज भी हज़ारों परमार परिवार बसते हैं।मेघा जिस अकोदिया का उल्लेख करती है,वह परमारों का बड़ा केंद्र था। शायद उसके पूर्वज सब के सब ऊँचे पूरे और गोरे रहे होंगे।
आता हूँ मेघा के संघर्षनामे पर।उसके बचपन की अनेक तक़लीफ़ देह यादें आँसू लाती हैं।हमारे समय में भी गाँव ऐसे ही होते थे।मेरा बचपन तो ख़ैर एक बेहद पिछड़े आदिवासी गाँव में बीता।वह दौर तो और भी भयावह था।उस माहौल में घर छोड़कर बाहर पढ़ने के लिए रहना यातनागृह में रहने जैसा ही था। इस नाते मेघा के संघर्ष की दास्तान को महसूस कर सकता हूँ।यह किताब मेघा के कई बार टूटने,बिखरने और फिर अपने को समेटकर आगे बढ़ जाने की दास्तान है।बार बार सिफ़र से सफ़र और वहाँ से शिखर तक पहुँचना आसान नहीं होता।कोई और लड़की होती तो टूट जाती। इसलिए मैं द एवरेस्ट गर्ल के आवरण पर लिखे इस वाक्य से सहमत नहीं हूँ कि यह एक साधारण लड़की की असाधारण कहानी है।मेघा वास्तव में असाधारण ही थी।साधारण होती तो बच्चों की फ़ौज पैदाकर ससुराल में रोटियाँ थोप रही होती।होना यह चाहिए था कि यह असाधारण लड़की के हौसले और हुनर की कहानी है।यह मेघा घर में मार खाती है ,छेड़छाड़ और भेदभाव का शिकार होती है,बचपन में सगाई जैसे घोर तनाव और अवसाद का सामना करती है,लड़की होने के कारण सूखी रोटी खाती है,नौकरानी की तरह संबंधियों के घर में सेवा करती है मगर एवरेस्ट को जीतने का सपना नहीं छोड़ती।सपने को पूरा करने के लिए रजिस्टर लेकर बाज़ार में चंदा करने निकल जाती है,मदद के नाम पर अश्लील और घिनौने लोगों को सबक़ सिखाती है,एवरेस्ट की चोटी के क़रीब पहुँचकर हसरत भरी निगाहों से तकते हुए कसक के साथ नाकाम लौट आती है।फिर नए सिरे से प्रयास करती है।मेरे पुराने दोस्त आईएएस एस आर मोहंती फ़रिश्ते की तरह सामने आते हैं और मेघा की मुश्किलें आसान करते हैं।मोहंती और मैं कई दशक से मित्र हैं।लेकिन,उनके इस रूप ने मेरे मन में आदर भाव पैदा कर दिया है।भाई मोहंती जी आपके इस एक काम पर सैकड़ों आईएएस नौकरियाँ क़ुर्बान।
किताबें ज़िंदगी में बहुत कुछ देती हैं,लेकिन यह किताब ऐसी है,जो आज के नौजवानों के लिए गीता से कम नहीं है।यह उन्हें कर्म की प्रेरणा देती है।
हमारे क्रांतिकारी मुल्क़ को आज़ाद करने के लिए एक तराना गाते थे।यह तराना पिछले चालीस - बयालीस साल से मेरी प्रेरणा बना हुआ है -
इश्क़ का नग़मा जुनूँ के साज़ पे गाते हैं हम / अपने ग़म की आग से पत्थर को पिघलाते हैं हम /
जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं /और वक़्त आ जाए तो अंगारों पे सो जाते हैं हम/
मेघा बिटिया।हम सबको तुम पर नाज़ है।लेकिन यह मंज़िल नहीं,पड़ाव है।ज़रूरी नहीं मंज़िल इसी क्षेत्र में हासिल हो।यह देश तुम्हारे मंज़िल पर पहुँचने का इंतज़ार करेगा।बृजेश राजपूत ने ऐसा काम किया है,जो हमेशा याद किया जाएगा।बृजेश की इस किताब के आगे सारी किताबें बेकार हैं।इस किताब का अँगरेज़ी, फ्रेंच,जर्मन तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए। मंजुल प्रकाशन के विकास राखेजा और कपिल सिंह को साधुवाद कि उन्होंने एक ऐसी किताब हमें दी है,जिसके लिए समाज हमेशा उनका क़र्ज़दार रहेगा।शैलेन्द्र के शब्दों में -
तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन कर ,अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर.....