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हॉट टोपिक
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Added on : 2025-04-16 22:22:34

राजेश बादल 

किसी न किसी को तो यह विस्फ़ोट करना ही था। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री स्टार्मर ने ही पहल कर दी ।मुद्दत से अमेरिका के पिछलग्गू रहे ब्रिटेन को समझ में आ गया कि डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ जंग घातक है और दुनिया की देह पर इसके अत्यंत ख़तरनाक दुष्प्रभाव होंगे । इसलिए अपने हालिया बयान में स्टार्मर ने साफ साफ़ कहा कि वैश्विक उदारीकरण की अवधारणा अब अंतिम सांसें गिन रही है । इस पर चलने वाले देशों को समझ लेना चाहिए कि इससे उनका कोई लाभ होने वाला नहीं है । स्टार्मर के सुर में सिंगापुर के प्रधानमंत्री लॉरेंस वोंग ने भी सुर मिलाया। उन्होंने कहा कि अमेरिका की शेष विश्व के साथ टैरिफ जंग से पूरे संसार के अर्थ तंत्र को नुक़सान पहुँचेगा। इससे नए क़िस्म के टकराव की शुरुआत होगी ,जो निश्चित रूप से अच्छी नहीं मानी जा सकती।यह टकराव लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवीय सिद्धांतों के लिए घातक होगा। दोनों नेताओं ने संसार में वित्तीय अफ़रातफ़री और अस्थिरता के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को ज़िम्मेदार ठहराया है। कुछ अन्य विश्व नेता भी यही मानते हैं।  

दरअसल वैश्विक उदारीकरण की अवधारणा ने पिछली सदी के तीसरे चरण में ज़ोर पकड़ा था ।आख़िरी पच्चीस बरस में कमोबेश सारे संसार ने अपने सोच में बदलाव किया। लंबे समय से चीन ने बंद द्वार की नीति पर चल रहा था। लेकिन अपनी समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए 1978 में उसने अपने बंद दरवाज़े खोल दिए और उन्मुक्त व्यापार की नीति अपनाई।इसका उसे बहुत लाभ हुआ।अमेरिका ने भी इसी उदारीकरण को अपनाया ,मगर उसे अपेक्षित लाभ नहीं हुआ। उसके कारण उस दौर की अमेरिकी सरकार की नीतियों और उनके असंगत क्रियान्वयन में छिपे हैं।अमेरिका को इसका एहसास बहुत देर से हुआ। इसके बाद सोवियत संघ का विखंडन हुआ। दुनिया के नक़्शे में एक साथ अनेक देशों ने जन्म लिया। उन नए नवेले राष्ट्रों को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए अन्य देशों से कारोबार ज़रूरी था। सोवियत संघ के एक प्रदेश के रूप में अरसे तक हिस्सा रहे नवोदित राष्ट्र अपने पैरों पर एकदम खड़े नहीं हो सकते थे। इसलिए उन्होंने खुले द्वार की नीति स्वीकार की। उन्हीं दिनों भारत की वित्तीय हालत भी ख़स्ता हो गई ।नौबत यहाँ तक आई कि गोपनीय रूप से चंद्रशेखर सरकार को लन्दन में सोना गिरवी रखना पड़ा । उससे प्राप्त धन का इस्तेमाल अपनी वित्तीय हालत सुधारने में करना पड़ा। भारत के लिए भी आवश्यक हो गया था कि वह दुनिया के खुले बाज़ार में उतरे ।यही हाल यूरोप के अनेक देशों का था। संसार के तमाम देशों ने जब आयात निर्यात के लिए अपने दरवाज़े खोल दिए तो उसका असर केवल आर्थिक स्थिति पर ही नहीं पड़ा,बल्कि संस्कृति और सामाजिक सोच को बदलने का काम भी इस वैश्विक उदारीकरण ने किया । आज हम देखते हैं कि सामाजिक सोच का आधार धन पर टिका हुआ है और ऐसे पूँजी केंद्रित समाज को सोचना होगा कि वह भौतिक चमक तो हासिल कर सकेगा ,लेकिन नैतिक मूल्यों की दृष्टि से पीछे चला जाएगा। 

इसे समझने के लिए भारतीय समाज से अच्छा कोई अन्य नमूना नहीं है। हम पाते हैं कि सबसे धीमी गति से बदलने वाला भारत का समाज भी उदारीकरण के ज़रिए बदलाव के राजमार्ग पर चल पड़ा था । भारत के लिए वह भयावह और विकराल दौर था।आमदनी कम थी। बेरोज़गारी ,ग़रीबी और बढ़ती आबादी के कारण सरकार को अपनी क्षमता से अधिक ख़र्च करना पड़ रहा था। बड़े और विकसित मुल्क़ भारत को अपने निवेश के लायक नहीं पाते थे। भारत में राजनीतिक अस्थिरता भी इसका बड़ा कारण थी।इन्ही दिनों खाड़ी युद्ध के कारण कच्चे तेल की क़ीमतें बेतहाशा बढ़ीं और भारत जैसे विकासशील देश के लिए अपना ख़र्च चलाना मुश्किल हो गया था ।इन हालातों में भारत सरकार ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी शिखर संस्थाओं से मदद मांगी । इन संस्थाओं ने भारत को 7 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ तो दिया, लेकिन बेहद अनुदार शर्तें लगा दीं।इनमें से एक थी कि भारत सरकार उदारीकरण की नीति अपनाएगी ,निजी क्षेत्र पर लगी बंदिशें हटाएगीं और कई क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप कम किया जाएगा। इसके अलावा नरसिंह राव सरकार को वित्तीय मदद पाने के लिए कड़ी शर्तें स्वीकार करनी पड़ी थीं।जैसे वह निर्यात बढ़ाने के लिए भारतीय मुद्रा का 22 फ़ीसदी अवमूल्यन करेगी। इसके अलावा आयात शुल्क 130 प्रतिशत से घटा कर 30 फ़ीसदी किया जाएगा।मैं याद कर सकता हूँ कि उन दिनों क़र्ज़ देने से पहले विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत सरकार को स्थापना व्यय घटाने के लिए सख़्त शर्तें रखी थीं। भारत ने शर्तें मान लीं और 23 जुलाई 1991 को नई आर्थिक नीति का ऐलान किया गया ।इसके बाद हालात पर काबू पाया जा सका ।

भारत के आर्थिक संकट पर विस्तार से चर्चा का मकसद यही था कि पाठक समझ सकें कि लगभग सारी दुनिया अपनी आंतरिक समस्याओं के कारण मजबूरी में वैश्विक उदारीकरण की राह पर गई थी।मगर ,उस उदारीकरण के पीछे सभी देशों का मक़सद अपनी स्थिति सुधारने के साथ साथ अन्य देशों को भी सहायता पहुंचाना था।कुछ बरस तक इसके परिणाम बेहतर मिले। पर , जब बड़े देश अपनी अपनी समस्याओं से उबर गए तो उन्होंने अपेक्षाकृत कमज़ोर और छोटे राष्ट्रों की चिंता करना छोड़ दिया।अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस टैरिफ जंग का आग़ाज़ किया है,उसके पीछे यही मंशा छिपी हुई है।आज का अमेरिका विस्तारवादी है और सिर्फ़ अमेरिकी हितों के मद्देनज़र अपनी नीतियाँ बदलता दिखाई देता है।यह वैश्विक सामुदायिक कल्याण की भावना के उलट है और आने वाले दिनों में इसके नतीजे घातक हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में महात्मा गाँधी के स्वराज पर ही सारे मुल्क़ों को लौटना पड़ेगा। गाँधी का स्वराज ही असल मायने में प्रत्येक देश को अपनी आर्थिक रीढ़ मज़बूत करने का अवसर देता है।

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