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Added on : 2024-08-21 10:32:18

डॉ. सुधीर सक्सेना

सुप्रीम कोर्ट का दखल आखिर कारगर रहा । केन्द्रीय चुनाव आयोग ने मियाद के मद्देनजर जम्मू कश्मीर में चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया। नब्बे सदस्यीय विधानसभा के लिए घाटी और जम्मू में मतदान अब 21 सितंबर को होगा। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव दस साल बाद हो रहे हैं। इनका महत्त्व इस नाते ज्यादा है कि यह अनुच्छेद 370 विलोपित करने के बाद पहली बार हो रहे है। इन्हें इस मुद्दे पर जम्मू-काश्मीर के अवाम की प्रतिक्रिया या अभिव्यक्ति के तौर पर भी देखा जा रहा है।  देखना दिलचस्प होगा कि  चुनाव में केन्द्र सरकार की परिसीमन के पीछे सक्रिय मंशा किस हद तक पूरी होती है ?
यह अकारण नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव के घोषणा का उमर अब्दुल्ला और गुलाम अहमद मीर जैसे नेताओं ने स्वागत किया है। नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने कहा कि राज्य प्रशासन को आदेश के लिए अधिकारियों को स्वाधीनता दिवस पर बुलाना पड़ा। मुझे लगता है कि उन्हें बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि आयोग चुनाव तारीखों का ऐलान करेगा। उधर कांग्रेस नेता गुलाम अहमद मीर ने कहा कि आज बहुत खुशी का दिन है। देर आयद, दुरुस्त आयद। केन्द्र सरकार का गृह मंत्रालय संसद में एक बयान देता था,बाहर दूसरा जम्मू-कश्मीर के लोग अपनी सरकार की मांग कर रहे थे, ताकि वे अपने नुमाइंदों को चुन सकें।
इसमें शक नहीं कि जम्मू-कश्मीर के लोगों में जल्द से जल्द चुनाव की मांग जोर पकड़ती जा रही थी। इसके लिये कश्मीरी नेताओं के बयान लगातार आ रहे थे। बीजेपी के सहयोग से जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री रह चुकी महबूबा मुफ्ती ने गत माह पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की 25वीं वर्षगांठ पर केन्द्र सरकार और केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह को आड़े हाथों लिया था। सुश्री मुफ्ती ने शाह को अपने अहं को तिलांजलि देने की सलाह दी थी। शाह को उनके पाक अधिकृत काश्मीर (पीओके) को फिर से हासिल करने के बयानों की याद दिलाते हुए सुश्री मुफ्ती ने कहा था कि जब तक ऐसा नहीं होता,शाह को दोनो ओर के कश्मीर के नुमाइंदों की कमेटी बनानी चाहिए। हम दोनों साल में दो बार बैठेंगे और समस्याओं पर विमर्श करेंगे। इसी तरह भारत को जम्मू-कश्मीर और मध्य एशिया के बीच का रास्ता भी खोलना चाहिये। 
लांछनों से बिंधे अपने भाषण में सुश्री मुफ्ती ने कुछ और मार्के की बातें भी कही, जो कश्मीरियों की मन:स्थिति का उदघाटन करती है। उन्होंने कहा कि शाह की कठोरता की आयरन -हैन्ड नीति विफल रही है । उसका कोई सार्थक नतीजा नहीं निकला । शाह को  हेकड़ी छोड़कर संवाद और संपर्क की नीति अख्तियार करनी चाहिए। उन्हें दोनों तरफ के कश्मीरियों के साथ आमने-सामने बैठकर बातचीत की नीति अपनानी चाहिये। बताएं कि कश्मीर के लोगों के दमन और जेलों में ठूंसने का क्या नतीजा निकला।  आतंकवाद के आरोप में बंदी पीडीपी का वहीद पारा करीब दो लाख वोट ले गया। सरकार सोचती है कि उसने पीडीपी को नेस्तनाबूद कर दिया,लेकिन पीडीपी खत्म नहीं हुई है। विदेशी आतंकी जम्मू में हैं, कत्ल करते हैं और चले जाते हैं। आप क्या कर रहे हैं? बीजेपी स्कूलों,संस्थानों और विश्व- विद्यालयों पर कब्जे में मशगूल है। पांच अगस्त, सन 2019 से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में कोई खुश नहीं है। लद्दाखी अपने हक के लिए चीख रहे हैं। जम्मू के लोग छाती पीट रहे हैं। जम्मू जो  हमारी इकोनॉमी का मरकज था, सुबक रहा है। कश्मीर की तो बात ही छोड़िये। 
सुश्री मुफ्ती ने ये तल्ख बातें जुलाई में कहीं। इसी माह केन्द्र सरकार पर उमर अब्दुल्ला और नेशनल कांफ्रेंस के सज्जाद लोन भी बरसे। उमर ने दादी अकबर जहां की बरसी पर श्रीनगर कब्रगाह की श्रद्धांजलि सभा में केन्द्र सरकार को आड़े हाथों लिया। वक्त पर चुनाव की मांग दोहराते हुये उमर ने पूछा- 'क्या हालात सामान्य है? यदि हैं, तो चुनाव कराइये और यदि हालात सन 1996 से बदतर है,तो चुनाव मत कराइये। उधर लोन ने कहा कि जरूरी है कि चुनाव वक्त पर हो। जम्मू-कश्मीर में अवाम के प्रति जवाबदेह प्रशासन को ही राज करने का हक है। लोन का साफ कहना था कि जम्मू-कश्मीर में चुनी हुई सरकार को ही हुकूमत का हक है।
इन्हीं दिनों आतंकवाद पर काबू पाने में सरकार की विफलता को लेकर कांग्रेस ने जम्मू में विरोध प्रदर्शन किया। जम्मू में सन 2020 से अब तक सुरक्षा बलों के जवानों की क्षति का हवाला देते हुये काँग्रेस-अध्यक्ष वकार रसूल वानी ने प्रधानमंत्री के हालात सामान्य के दावे पर प्रश्नचिह्न जड़ा। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद अमन का दावा थोथा है। सच तो तो यह है कि सूबे में आतंकवाद फिर उभार पर है।
जम्मू-कश्मीर में पिछले चुनाव 2014 में हुये थे। नेशनल कांफ्रेस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला और जेकेएनएफ के मुखिया सज्जाद लोन बारामूला में इंजीनियर राशिद से लोकसभा के चुनाव में परास्त हुये, लेकिन अब नेशनल कांफ्रेस नये सिरे से कमर कस रही है। लोकसभा की दोनों सीटें भले ही बीजेपी ने जीत ली हो,लेकिन दोनों ठौर उसके मतों में करीब दो-दो लाख की कमी आई है। घाटी में उसकी कमजोरी की तस्दीक इस बात से होती है कि वह घाटी में चुनाव लड़ने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकी। भाजपा नेशनल कांफ्रेस और पीडीपी से बेतरह चिढ़ी हुई है और उन्हें खानदानी सियासत की नजीर बताकर उनकी जड़ों में मट्ठा डालना चाहती है, लेकिन बात बन नहीं रही। उसके लिए घाटी में अंगूर कल भी खट्टे थे और आज भी खट्टे है। चुनावी महाभारत में उसके पास आड़ लेने के लिये कोई शिखंडी भी नहीं है। एक समय कांग्रेस के महत्वपूर्ण और शीर्षस्थ नेताओं में शुमार गुलाम नबी आजाद सियासी बिजूका सिद्ध हुए। पीडीपी से भी उनका हनीमून लंबा नहीं चला। उसकी तस्दीक घटस्फोट में हुई। यहां तक तो ठीक था, लेकिन थोड़े दिनों की गलबांह ने दोनों के रिश्तों में गजब की खटास पैदा कर दी है। 
अनुच्छेद 370 की समाप्ति पर बीजेपी अपनी पीठ कितनी भी क्यों न थपथपाये और राष्ट्रीय स्तर पर उसकी शान में कितने भी कसीदे क्यों न कढ़े गए हों, लेकिन इससे जम्मू-कश्मीर में उसकी जड़ों का विस्तार नहीं हो सका है। धारा के विलोपन से जम्मू भी खुश नहीं है,क्योंकि जम्मू 
कश्मीर के दोनों हिस्सों में  बाहरियों के दखल और वर्चस्व की आशंका बढ़ी है। एक तरह से यह उनकी बपौती पर संकट के बादलों का अंदेशा है। अनुच्छेद 370 की समाप्ति ,जम्मू-कश्मीर में बाहरियों की जमीन खरीदी, रोजगार, कारोबार और मताधिकार में प्रवेश और पैठ के द्वार खोलता है। इसके अलावा दिल्ली का सलूक भी उन्हें हितैषी कम, हस्तक्षेप और वर्चस्व की पहलकदमी अधिक प्रतीत होता है। यही वे सन्दर्भ हैं, जो जम्मू-काश्मीर में बीजेपी की चुनावी संभावनाओं के आसमान में काले बादलों को न्यौत रहे हैं।
इसमें शक नहीं कि चुनावी घोषणा के साथ ही बीजेपी के लिए मुसीबतों का दौर शुरू हो गया है। बीजेपी के साथ एक दिक्कत यह भी है कि घाटी में उसके पास कोई प्रभावशाली और चमकीला चेहरा नहीं है। उसका सारा दल- बल जम्मू तक सीमित है। घाटी में उसके पास न तो नेता है- और न काडर। क्षेत्रीय दलों के साथ उसके व्यवहार के रिकार्ड से स्थानीय पार्टियां हाथ मिलाने से डरती और झिझकती हैं। बीजेपी के विपरीत नेशनल कांफ्रेस घाटी में बहुत बेहतर स्थिति में है। अब्दुल्ला परिवार के पास शेरे-कश्मीर की विरासत है। घाटी में इसकी  निचले स्तर तक सक्रियता है। घाटी में तीन लोकसभा क्षेत्रों में 54 विधानसभा क्षेत्रों का समावेश है। तीन में से दो लोकसभा क्षेत्रों से उसके सांसद है। हाल के लोस चुनाव में कांफ्रेस ने उनमें से 34 क्षेत्रों में लीड ली थी। कांफ्रेंस ने घोषणापत्र का जिम्मा सन 1999 की आटोनामी रिपोर्ट के लेखक अब्दुल रहीम राठेर को सौंपा है। मैनफिस्टो को पुख्ता और पुरअसर बनाने के लिए लोगों से आॅनलाइन सुझावों का दायित्व संभाला है सांसद आशा सैयद रुहल्ला मेहदी ने। कांफ्रेस अपने ढांचे में भी तब्दीली के मूड में है। एक और काबिले जिक्र बात यह है कि कांफ्रेंस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारुख अब्दुल्ला के एक बार फिर चुनाव लड़ने के आसार है। हालांकि वह 87 वर्ष के होने जा रहे हैं। कुल जमा सूबे में तस्वीर धुंधली है, लेकिन खाली जम्मू के बूते बात नहीं बनती, लिहाजा भारतीय जनता पार्टी के लिए जम्मू कश्मीर में संभावनाएं कतई उजली नहीं है। उलटे घाटी उसे दिन में तारे दिखा दे तो कोई ताज्जुब नहीं।

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