अक्षय बिंदुआ
शिक्षा को अधिकार के रूप में बढ़ावा देने वाले संवैधानिक प्रावधानों की सूची अनुच्छेद 21A: नया अनुच्छेद 21A, जिसे 86वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान में शामिल किया गया था, में कहा गया है कि “राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को कानून के माध्यम से मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा हमारे देश में शिक्षा को सरल सहज उपलब्ध बनाने के लिए संविधान में जिन उद्देश्यों का वर्णन किया गया है, ये अपने आप में एक बड़ा सवाल है की संविधान के निर्माण और आजादी के 75 वर्षों बाद भी क्या हम उन उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल हो पाए हैं ....
भारतीय संविधान से प्राप्त शिक्षा के उद्देश्य जिन पर इस देश की शिक्षा व्यवस्था आधारित होनी चाहिए थी यथार्थ में अभी तक पूर्ण नहीं हो सकी है....
पारम्प्परक शिक्षा को संविधान निर्माताओं द्वारा भारत के लिए एक आदर्श निश्चित किया गया है और भारतीय संविधान निर्माता स्पष्ट रूप से यह चाहते थे कि भारत की केन्द्रीय और राज्य सरकारें भारतीय नागरिकों को पुष्टिकर भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा और स्वास्थ्य की अधिकाधिक सुविधाएँ प्रदान करें, उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठायें और उनके द्वारा अधिक से अधिक सम्भव सीमा तक आर्थिक और सामाजिक समानता की स्थापना हो जाये । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नियोजन की पद्धति को अपनाया गया है और समाजवादी ढाँचे के समाज की स्थापना की नीति निर्धारित की गयी है ।
शिक्षा क्षेत्र में लंबे समय से काम करने के दौरान आमतौर पर स्कूली शिक्षकों से यह सवाल पूछा जाता है कि आखिर शिक्षा का उद्देश्य क्या है मोटे तौर पर शिक्षकों का जवाब होता है कि हमें अच्छा इंसान बनाना है, किसी का जवाब होता है कि हमें सभ्य और सुशील बनाना। और यही सवाल समाज के आम व्यक्ति से पूछने पर उत्तर मिलता है कि हमें अपने पैरों पर खड़ा करना तो किसी ने कहा कि ज्ञान प्राप्त और जागरूक करना है। कुछ अन्य का कहना था कि हमें बुद्धिमान बनाना, हमें शिष्ट बनाना।
इस तरह के सरसरी जवाबों से ऐसा लगता है कि हमारे समाज में शिक्षा के उद्देश्यों के बारे में कोई स्पष्ट धारणा ही नहीं है। और शायद बहुत कम लोग इस बारे में गहराई से सोचते भी होंगे। इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि शिक्षा देने वाले बड़े समूह तक को भी यह स्पष्ट नहीं है कि वह शिक्षा क्यों दे रहे हैं शिक्षकों से चर्चा के दौरान सभी ने इस सवाल को गंभीरता से लिया था। और यह आभास दिया है कि शिक्षा एक महत्वपूर्ण गतिविधि है,लेकिन इसके प्रयोजन के बारे में वे एकमत नहीं थे। जब शिक्षा के प्रयोजन के बारे में वर्षों बाद भी स्पष्टता नहीं होती है तो प्रश्न उठता है कि शिक्षा के नाम पर समाज को क्या दिया जा रहा है आज देश में जहां सैंकडों विश्वविद्यालय स्थापित हो गए है,वहां अभी समाज में लोगों ने यही तय नहीं किया है कि हमारा शिक्षित होना क्यों आवश्यक है यह अत्यंत् विचारणीय प्रश्न है।
असल में आज शिक्षा के व्यवसायीकरण और कौशल विकास की धूम में अधिकांश लोगों के लिए तो शिक्षा आजीविका या नौकरी पाने का एक माध्यम भर है। लेकिन वास्तविकता में शिक्षा लेने व देने वाले दोनों किस्म के लोग इस गतिविधि में अपनी आजीविका के दृष्टिकोण से ही लगे हुए हैं। उनके लिए शिक्षा समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए सहायक होती है। शिक्षकों से पूछा गया कि उनके बताए अनुसार जो शिक्षा के उद्देश्य हैं, क्या वे पूरे हो रहे हैं तो सभी लोगों के जवाब का निष्कर्ष था कि इन उद्देश्यों की पूर्ति भी शिक्षा से होती नजर नहीं आती है।
यह इस बात को दर्शाता है कि आजादी के बाद से शिक्षा की जो दुर्दशा हो गई है उसके प्रति हम अभी या तो अनभिज्ञ हैं या उदासीन। देश में शिक्षा की नीति क्या हो, इस पर कई बार लंबी बहसें हुई है। और अभी नई शिक्षा नीति बनकर तैयार भी है। तत्कालीन सरकारों ने अनेक समितियों और आयोगों का गठन किया वहीं गैर सरकारी क्षेत्रों में शिक्षा को लेकर अनेक प्रयोग हुए हैं। लेकिन हम 70 साल पुरानी निर्धारित शिक्षा व्यवस्था के उद्देश्य को न स्पष्टता से समझ पाए और नहीं बदल पाए है। आज भी शिक्षा प्राप्ति के बाद लोगों की आंकाक्षा यही रहती है कि कहीं नौकरी मिल जाए।
बल्कि सरकारी नौकरी के लिए सभी लालायित रहते है। इसे यों कहें कि हमारी शिक्षा व्यवस्था युवकों में नौकरी की मानसिकता तैयार करती है तो गलत न होगा। हाई स्कूल से भी कम पढ़े लिखे लोगों की तमन्ना यही रही है कि कहीं नौकरी ही लग जाए भले ही चपरासी की। यह भी सच है कि आज जो ज्यादा पढ़ा-लिखा है वह उत्पादक की क्रिया से उतना ही दूर है। और उतनी ही ज्यादा तनख्वााह लेता है। हमारी अर्थ व्यवस्था का आधार तो उत्पादन ही है, जो व्याक्ति ज्यादा पढ़ा लिखा है, वह इस व्यवस्था पर उतना ही ज्यादा बोझ बना हुआ है।
अगर थोड़ा गहराई से अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था बच्चेे के अंदर अपने आप कुछ कर पाने के आत्मविश्वास को ही धीरे - धीरे कुंठित कर देती है। आज कल ऐसा क्यों है कि हमारी शिक्षा पद्धति बच्चेे के अंदर हाथ से काम करने के प्रति संकोच की भावना उत्पन्न कर देती है। साहब और बाबू की मानसिकता विकसित करने वाली शिक्षा व्यवस्था् ग्रामीण समाज को भी प्रभावित करती है। आज बेरोजगारी का यह आलम है कि स्नाातक उत्तीार्ण व्यक्ति चार पांच हजार रुपये प्रति माह में निजी विद्यालयों में पढ़ाने को तैयार हो जाता है, जबकि एक अकुशल मजदूर उससे दोगुना - तीन गुना कमा लेता है। इसका मतलब क्या शिक्षा व्यक्ति को लाचार बना रही है आज शिक्षा का मतलब सिर्फ दाखिला लेना, शुल्क देना, ड्रेस पहन कर मोटा से मोटा बस्ता लेकर स्कूल जाना, वहीं किसी प्रकार का समय काटना और उलटे सीधे तरीके से परीक्षाएं उत्तीर्ण के एक वर्ष से दूसरे वर्ष तक की यात्रा पूरी करना है। इस निरर्थक प्रक्रिया का बोझ शिक्षक और बच्चेे ढोते हैं।
शिक्षा का क्या उद्देश्य् हो और शिक्षा की क्या विषय वस्तु और शिक्षा शास्त्र होना चाहिए जैसे महत्वापूर्ण सवाल तो मानो इस अंधाधुंध पागलपन में कहीं खो ही गए हैं। कहने को तो शिक्षा से बच्चे को अच्छे संस्कार मिलना चाहिए लेकिन हमारी शिक्षा पद्धति की वजह से सामाजिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में हम परीक्षाओं और अन्य प्रतियोगिताओं के माध्यम से सिर्फ प्रतिस्पर्धा की भावना को ही बढ़ावा दे रहे हैं।
हमारे यहां शिक्षा का तरीका हमेशा से स्मरण आधारित रहा है। बच्चों से यह अपेक्षा की जाती है कि शिक्षक जो बताएं या किताबों में जो हो उसे वे स्मृति में उतार लें, भले ही बात उनकी समझ में आए या नहीं। पिछले दिनों मुझे गणित के शिक्षकों के साथ काम करने का मौका मिला। शिक्षक बताते है कि गणित की किताबों में लघुतम समापवर्त्ये के आधार पर बच्चो से यह उम्मीद की जाती है कि वे प्रश्न हल करेंगे, लेकिन अधिकतर बच्चे ठीक से हासिल के साथ जोड़-घटाव भी नहीं कर सकते। बच्चे पहाड़े जरूर रट लेते है लेकिन उनका मतलब शिक्षक उन्हें नहीं समझा पाते।
छोटी कक्षा के बच्चेे भिन्नोंस को लेकर कठिन से कठिन प्रश्नों के साथ जूझते मिलेंगें लेकिन उन्हें नहीं मालूम होगा कि तीन चौथाई एक से बड़ा होता है या छोटा। इस प्रकार की शिक्षा देने से बच्चे के व्यक्तित्व व प्रतिभा के विकास में बाधा उत्पन्न होती है और वह कुंठित होता है। साथ ही शिक्षक भी निराशा होता है। लेकिन आज हम शिक्षा के नाम जो कुछ भी कर रहे हैं उसमें शिक्षा को छोड़ कर बाकी सब कुछ हो रहा है। हमें इस खामोशी के आलम को तोडऩा पड़ेगा ताकि हम यों ही निरर्थक रूप से अपनी जिंदगी न जीना पड़े। इस जड़ता को तोडऩे के लिए शिक्षा बिरादरी से जुड़े लोगों को गंभीरता से अपने शिक्षण पद्धति पर आत्म चिंतन और मूल्यांकन करना होगा, जिससे बच्चों में विकसित किये जाने वाले कौशलों पर काम किया जा सके।
चिंतनशील शिक्षण प्रक्रिया में लगातार स्वयं का मूल्यांकन और विकास के लिए उत्सुकता और इच्छा प्रदर्शित की जाती है। वहीं हमें परंपरागत शिक्षण के तौर तरीकों से बाहर निकल कर नये तरीके आजमाने का जोखिम लेना होगा। शिक्षक बिरादरी की खुले मन से सीखने की तत्परता और अपनी शिक्षण विधियों में लचीलापन रखने की कोशिशें से ही शिक्षण की प्रक्रिया को रचनात्मक और आनंददायी बना सकेगें। तभी बच्चों की इसमें दिलचस्पी और रूचि बढ़ेगी।
जरूरी यह है कि शिक्षा से सरोकार रखने वालों को अपने अध्यापन कर्म को एक बड़े सामाजिक दायित्व के रूप में देखना होगा क्योंकि बच्चों को पढ़ाना अपरिहार्य काम है। यह केवल स्वायं की ख़ुशी या जरूरत के लिए किया जाने वाला कार्य नहीं है। यह दायित्व तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हमारे सरकारी स्कूलों में बहुत सारे बच्चे वंचित वर्ग से आते हैं। हमारी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि हम बच्चों को पूरी तैयारी और संवेदना से सिखाएं-पढ़ाएं। साथ ही समाज को पहले अपने जीने के उद्देश्य को तय करें और फिर एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की कल्पेना करें जो हमें अपने उद्देश्यों तक पहुंचने में मदद कर सकें।
देश की सत्ता की बागडोर संभाले, विद्यार्थियों की भविष्य रचना में संलग्न जनप्रतिनिधि एक मार्मिक और विस्तृत दृष्टिकोण से शिक्षा को देखें नीतियों का धरातल पर उचित विस्तारण हो क्योंकि शिक्षा का प्रसार ही हमारे देश के युवा भविष्य का निर्माण है ।