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हॉट टोपिक
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Added on : 2024-09-10 09:10:15

राजेश बादल 
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने ऐलान किया है कि समूचे मुल्क में शिक्षा आपातकाल लगाया जा रहा है.इसके तहत मुल्क़ के अस्तित्व में आने के 77 साल बाद बच्चों को मध्याह्न भोजन प्रारंभ किया जा रहा है।पहली बार उनका नामांकन कराया जा रहा है.अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस पर सरकार ने यह घोषणा की।उसने माना है कि पाकिस्तान में बच्चों की शिक्षा का स्तर बेहद ख़राब है और क़रीब तीन करोड़ बच्चे स्कूलों का दर्शन ही नहीं कर पाते।इन दिनों देश की कुल आबादी 21 करोड़ से कुछ अधिक है।इसमें बच्चों की संख्या 45 प्रतिशत यानी साढ़े नौ करोड़ है।जनसंख्या नियंत्रण अभियान प्रभावी ढंग से संचालित नहीं करने या यूँ कहें कि बच्चों के जन्म में महिलाओं को मशीन की तरह इस्तेमाल करने के कारण यह स्थिति बनी।मँहगाई और बेरोज़गारी के कारण छोटे छोटे बच्चे मजदूरी करते हैं।उनकी मदद से परिवार का गुज़ारा होता है।आंकड़े कहते हैं कि पचास प्रतिशत बच्चे थोड़ी बहुत पढ़ाई के बाद घर के दबाव में स्कूल छोड़ देते हैं।  
कुछ दिन पहले प्रतिष्ठित संस्था पाक अलायन्स फॉर मैथ्स एंड साइंस ने पिछले साल के आँकड़ों के आधार पर अपनी रिपोर्ट में सनसनीखेज़ खुलासे किए।द मिसिंग थर्ड ऑफ़ पाकिस्तान नाम से इस रपट में  कहा गया है कि मुल्क़ का स्कूली शिक्षा ढांचा चरमरा गया है।क़रीब 74 फ़ीसदी बच्चे गाँवों में रहते हैं,जहाँ न स्कूल पहुँचते हैं और न गाँववाले स्कूलों के दर्शन कर पाते हैं।भयावह तो यह है कि पाँच से नौ साल की आयु वाले 51 प्रतिशत बच्चों के लिए स्कूल जाना सपने जैसा है।पाकिस्तान का कट्टरपंथी समाज पहले ही महिला शिक्षा के ख़िलाफ़ है।रिपोर्ट कहती है कि 80 फ़ीसदी ग्रामीण लड़कियाँ कभी स्कूल नहीं जातीं।विडंबना यह कि शहरी इलाक़ों में भी शिक्षा के बारे में चेतना नहीं है।लाहौर और कराची जैसे महानगरों में यही दुर्दशा है।अकेले कराची में 18 लाख बच्चों का कहीं स्कूली नामांकन नहीं है।तनिक और पीछे जाएँ तो तीन साल पहले जारी एक दस्तावेज़ में कहा गया था  कि पाकिस्तान एजुकेशन टॉस्क फोर्स ने वर्ष 2011 में तालीमी इमरजेंसी का सुझाव दिया था.इसमें कहा गया था कि पाकिस्तान शिक्षा के क्षेत्र में संतोषजनक भूमिका निभाने में नाकाम रहा है।पर उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।  
दिलचस्प है कि अब पाकिस्तान की नई नस्ल और सियासत में भारत की शिक्षा प्रणाली के बारे में तारीफ़ करने का भाव पैदा हुआ है।बीते दिनों वहाँ असेंबली में बहस के दौरान मुखर सांसद सैयद मुस्तफ़ा कमाल ने भारतीय शिक्षा तंत्र के कशीदे पढ़े।दोनों राष्ट्रों के तालीमी स्तर पर उनकी टिप्पणी थी कि एक तरफ दुनिया चाँद पर जा रही है,वहीं कराची में बच्चे गटर में गिरकर मर रहे हैं।सैयद मुस्तफा ने कहा कि 30 साल पहले,हमारे पड़ोसी भारत ने अपने बच्चों को वह सिखाया,जिसकी आज पूरी दुनिया में मांग है।आज शिखर की 25 कंपनियों के सीईओ भारतीय हैं।भारत तरक्की कर रहा है तो वजह यह है कि वहां वो सिखाया गया,जो जरूरी था।पाकिस्तान का आईटी निर्यात 7 अरब डॉलर है,जबकि भारत का आईटी निर्यात 270 अरब डॉलर।इस भाषण के बाद टीवी चैनलों में भी भारत की तारीफ़ के पुल बांधे जा रहे हैं।आए दिन हिन्दुस्तान को कोसने वाले एंकर और विशेषज्ञ अब मुल्क़ में बच्चों को बिगाड़ने के लिए इस्लामी कट्टरपंथी तालीम को ज़िम्मेदार मान रहे हैं और भारत की प्रशंसा करते नहीं अघाते। बच्चों को विकृत पाठ पढ़ाने का सिलसिला दशकों से चल रहा है।मैं उदाहरण देता हूँ।भारत में 1954 में फ़िल्म जागृति बनी थी।यह बच्चों को देशप्रेम,शिक्षा और जागरूकता का संदेश देती थी ।भारतीय संविधान में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने का संकल्प लिया गया था।फ़िल्म उसी आधार पर बनी थी।फ़िल्म के अधिकतर कलाकार मुस्लिम थे।फ़िल्म बेहद लोकप्रिय हुई।इसके बाद अधिकतर कलाकार पाकिस्तान चले गए।वहाँ वे जागृति की पटकथा लेते गए।चार साल बाद वहाँ भी इसी पटकथा का इस्लामीकरण करते हुए बेदारी नाम से फ़िल्म बनी। इस फ़िल्म ने भी लोकप्रियता के कीर्तिमान स्थापित किए।हाल यह था कि सात दिन में ही फ़िल्म की लागत वसूल हो गई।इसमें दृश्य,कहानी,संगीत,गीत सब कुछ जागृति की नकल थे।जैसे एक गीत है - हम लाए हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के,इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के।बेदारी फ़िल्म में इसे लिखा गया-हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के ,इस मुल्क़ को रखना मेरे बच्चो संभाल के।इस गाने में आगे एक पंक्ति है-लेना अभी कश्मीर है,ये यह बात न भूलो,कश्मीर पे लहराना है झंडा उछाल के ।इसी तरह भारत के प्रति इतनी नफ़रत भरी गई कि जब अख़बार में छप गया कि फ़िल्म तो हिंदुस्तानी फ़िल्म की नक़ल है तो फ़ौजी हुकूमत ने उस पर तुरंत रोक लगा दी।      
लेकिन यहाँ प्रश्न फिल्म का नही,बल्कि बच्चों को बेहतरीन शिक्षा का है।आबादी के मान से गुज़िश्ता 77 साल में शिक्षा का ढाँचा खड़ा करने पर ज़ोर नहीं दिया गया।बच्चे मदरसों में बुनियादी तालीम के बाद पढ़ाई की इतिश्री समझ लेते हैं।ज़्यादातर फ़ौजी हुकूमत रहने के कारण उसने लोगों को साक्षर बनाने पर ज़ोर नहीं दिया।किसी भी सैनिक तानाशाही के लिए सुविधाजनक होता है कि वह नागरिकों को जागरूक नहीं होने दे और अनपढ़ तथा अधिकारों से बेख़बर अवाम पेट की आग शांत करने की चिंता करती रहे।उसके भीतर विचारों की आग न भड़के।फ़ौज़ ने हमेशा शिक्षा तंत्र में मज़हब के नाम पर इस्लाम चरित और भारत से नफरत पढ़ाई।कश्मीर को छीन कर लेने की भावना जगाई और पख़्तूनिस्तान समेत अनेक सूबों में बच्चों के हाथों में हथियार थमाए।अब इतनी देर से हुक़ूमत जागी है तो यही कहा जा सकता है कि 'मिट गया जब मिटने वाला ,फिर सलाम आया तो क्या ' कट्टरपंथी और फ़ौज़ उसके निर्णय को कितना समर्थन देते हैं - यह देखना है।

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