राजेश बादल
बांग्लादेश से आ रही ख़बरें लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।प्रधानमंत्री आवास पर प्रदर्शनकारियों ने क़ब्ज़ा कर लिया है प्रधानमंत्री शेख़ हसीना इस्तीफ़ा देने के बाद भले ही किसी सुरक्षित स्थान पर हों मगर हक़ीक़त तो यही है कि वे बांग्लादेश का अतीत बन चुकी हैं।सेनाध्यक्ष वक़ार उज़ जमान ने ऐलान किया है कि देश में अब अंतरिम सरकार बनाई जाएगी। उन्होंने साफ़ साफ़ कहा है कि वे ज़िम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हैं और जल्द ही सामान्य स्थिति बहाल हो जाएगी। जनरल ने अब शांति की अपील की है। लेकिन ,इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह लोकतांत्रिक ढंग से काम करती रहेगी या फिर सेना की संगीनों के साए में मुल्क़ को रहना होगा।यदि ऐसा होता है तो बांग्लादेश पाकिस्तान की राह पर चल पड़ेगा।भारत के नज़रिए से यह यक़ीनन अच्छी ख़बर नहीं कही जा सकती ।
जिस अवामी लीग ने पाकिस्तान के अत्याचारों से मुल्क़ को निज़ात दिलाई और समूचे संसार को एक लोकतांत्रिक देश का उपहार सौंपा,उसी अवामी लीग को अब आतंकवादी ठहराया जा रहा है।जब सारी दुनिया मंदी और आर्थिक चुनौतियों से थर थर काँप रही थी,तो बांग्लादेश ने अपनी आर्थिक प्रगति से सबको चौंकाया था।अब उसी राष्ट्र में आंतरिक अशांति,हिंसा और तोड़फोड़ इतने भयानक रूप में आ पहुँची कि समूचे देश में कर्फ्यू लगाना पड़ा और फौज को आगे आना पड़ा ।मैं भरोसे से कह सकता हूँ कि भारत के इस पड़ोसी देश में आए इस सियासी तूफ़ान की वजह आंतरिक नहीं है।बेशक़ कुछ स्थानीय कारण हैं,लेकिन वे इतने गंभीर नहीं हैं कि उनकी लपटों से साढ़े सत्रह करोड़ लोग झुलसने लग जाएँ ।जब पूर्व सेनाध्यक्ष फौज से अपील करने लगें कि वह सरकार के हुक़्म नहीं मानते हुए अपनी बैरकों में लौट जाए तो अंदाज़ लगाया जा सकता है कि इसके पीछे किसी न किसी बड़ी ताक़त का हाथ हो सकता है।ख़ास तौर पर अतीत के उस अध्याय को ध्यान में रखते हुए कि बांग्लादेश और वहाँ लोकतंत्र को स्थापित करने वाले बंगबंधु शेख़ मुजीबुर्रहमान फ़ौजी तानाशाही का क्रूर शिकार बन चुके हैं। अब उनकी पुत्री शेख़ हसीना वाजेद इन्ही फ़ौजी कट्टरपंथियों से क़िला लड़ा रही हैं।
यह तर्क गले उतरता है कि उनकी सरकार ने प्रतिपक्ष का सख़्ती से दमन किया है। इसलिए आरक्षण आंदोलन के बहाने असहमति के सुर को कुचलने की सजा प्रधानमंत्री को अवाम देना चाहती है ।पर इतनी व्यापक हिंसा और सुनियोजित वारदातें बाहरी ताक़त का समर्थन लिए बिना नहीं हो सकतीं। यह पक्का है।चौबीस घंटे में 100 मौतें,साढ़े तीन हज़ार से अधिक छोटे बड़े कारख़ानों का बंद होना,सुप्रीम कोर्ट समेत सारी अदालतों पर ताला पड़ जाना ,देश भर में रेल संचालन ठप्प किया जाना,इंटरनेट और संचार सुविधाएँ बंद होना कोई साधारण बात नहीं है और अचानक सेना के आला अफसरों का कूद पड़ना कहीं न कहीं संदेह की सुई को सीमाओं के पार ले जाता है। कल ही पूर्व सेना प्रमुख जनरल इक़बाल भुइयाँ ने सार्वजनिक रूप से सेना से अपील की थी कि सेना को इस राजनीतिक संकट में नहीं पड़ना चाहिए। यह कोई सामान्य सी अपील नहीं थी। संभव है कि इस स्तंभ को पढ़ रहे कुछ पाठक इस बात पर एतराज़ करें कि मैं हिंसा में परदेसी हाथ होने के निष्कर्ष पर कुछ जल्द ही पहुँच गया हूँ।हो सकता है कि मैं कुछ शीघ्रता में राय बना बैठा हूँ ,लेकिन एकबारगी आपको सारे घटनाक्रम पर नज़र तो डालनी ही पड़ेगी।
अशांति के ताज़े घटनाक्रम के पीछे की आरक्षण कथा पर एक नज़र । बता दूँ कि जब 1971 में बांग्लादेश अस्तित्व में आया तो वहाँ 80 फ़ीसदी आरक्षण था। बार बार बदलावों के चलते 2012 में कुल 56 फ़ीसदी आरक्षण था। इनमें स्वतंत्रता आंदोलन ( 1971 ) के सैनानियों के बच्चों को 30 फ़ीसदी।,पिछड़े वर्गों के लिए 10 प्रतिशत ,अल्पसंख्यकों को 5 फ़ीसदी और विकलाँगों को 1 फीसदी आरक्षण दिया गया था। शेख हसीना सरकार ने 2018 में चार महीने तक छात्रों के आंदोलन के बाद आरक्षण समाप्त कर दिया था।इसके बाद उच्च न्यायालय में इस फ़ैसले को चुनौती दी गई। इस बरस जून में हाईकोर्ट ने सरकार को आरक्षण बहाल करने का फिर आदेश दिया।सरकार उच्च न्यायालय के निर्णय के ख़िलाफ़ सुप्रीमकोर्ट गई। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए आरक्षण 7 प्रतिशत कर दिया।इसमें 5 फीसदी स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों और 2 फ़ीसदी अन्य वर्गों को आरक्षण देने का आदेश दिया था।ज़ाहिर है सरकार को तो यह फैसला रास आया लेकिन आम अवाम को नहीं।विरोध में छात्र सड़कों पर आए और परिणाम की शक़्ल शेख़ हसीना के तख़्ता पलट के रूप में सामने आई।
अब इस सारे घटनाक्रम से जोड़कर हालिया दौर में श्रीलंका,मालदीव,नेपाल,म्यांमार और पाकिस्तान के घटनाक्रम को देखिए।श्रीलंका में प्रदर्शन कारियों ने राष्ट्रपति आवास में घुसकर बांग्लादेश जैसा ही काम किया था।म्यांमार में आंग सान शू ची को जेल में डालकर सेना ने सत्ता हथियाई। नेपाल में प्रचंड सरकार को गिरवा कर के पी ओली की सरकार बनाई गई ।मालदीव में भी सरकार बदली गई। पाकिस्तान में भी सेना ने सरकार बदल दी गई । म्यांमार में आंग सान सू की भारत समर्थक थीं और उनकी सेना चीन के साथ पींगें बढ़ा रही थी।नेपाल में प्रचंड के स्थान पर आए के पी ओली कट्टर चीन समर्थक हैं ,मालदीव में नए राष्ट्रपति कट्टर चीन समर्थक है और पाकिस्तान में इमरान ख़ान चीन के राष्ट्रपति शी ज़िंग पिंग को फूटी आँखों नहीं सुहाते। किसी ज़माने में इमरान ख़ान शी जिंग पिंग की पाकिस्तान यात्रा के विरोध में धरने पर बैठे थे। इसके बाद चीनी राष्ट्रपति को पाकिस्तान की यात्रा स्थगित करनी पड़ी थी।इसलिए इमरान ख़ान को जेल से छोड़कर सेना चीन की नाराज़गी मोल नहीं लेना चाहती। श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति उसे तनिक भारत के पक्ष में लाती है अन्यथा वह चीन की गोद में तो बैठा ही हुआ था।