Know your world in 60 words - Read News in just 1 minute
हॉट टोपिक
Select the content to hear the Audio

Added on : 2023-06-23 16:16:26

अजय बोकिल

यह भाषा एक खास वर्ग को मानसिक संतुष्टि प्रदान करती है और सहजता व निर्लज्जता के भेद को मिटाती है। 

रामकथा से प्रेरित विवादित फिल्म ‘आदिपुरूष’ उसके संवाद लेखक मनोज मुंतशिर द्वारा जन दबाव में सिनेमा के डायलॉग बदले जाने के बाद भी हिट होने की पटरी से उतर गई लगती है। जो संवाद बदले गए हैं उनमें भी बदलाव क्या है? ‘तू’ से ‘तुम’ कर दिया गया है या फिर ‘लंका लगाने’ (यह भी विचित्र प्रयोग है) की जगह ‘लंका जला देंगे’ अथवा शेषनाग को ‘लंबा’ करने के स्थान पर ‘समाप्त’ कर देंगे, कर दिया गया है। लेकिन इस विवाद की शुरुआत में संवाद लेखक, गीतकार मनोज मुंतशिर ने एक बात कही थी। जिस पर व्यापक बहस की गुंजाइश है।

दरअसल, मनोज ने जिन टपोरी संवादो पर आपत्ति हुई थी, उनके बचाव में कहा था- मैंने ये संवाद ‘आज की भाषा’ में लिखे हैं। मनोज की बात मानें तो ‘जो हमारी बहनों ...उनकी लंका लगा देंगे’ जैसे वाक्य ‘आज की हिंदी’ है।

अब सवाल यह है कि ‘आज की हिंदी’ अथवा आज की भाषा’ हम किसे कहेंगे? यह कैसे तय होगा कि जो लिखी या बोली जा रही है, वह आज की हिंदी ही है? हर समाज में अमूमन भाषा तीन तरह से प्रचलन में होती हैं।

पहली, वो लिखी जाने वाली व्याकरण सम्मत, विचार सम्प्रेषण और सृजन की भाषा होती है।

दूसरी वो जो हम आम बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं और जिसका व्याकरणिक नियमों से बंधा होना अनिवार्य नहीं है तथा जिसमें अर्थ सम्प्रेषण ज्यादा अहम है

तथा तीसरी वो जो आपसी बोलचाल में अथवा समूह विशेष में प्रयुक्त होती है, और अभद्रता-भद्रता के भेद को नहीं मानती।

आमतौर पर इसे लोकमान्य होते हुए भी टपोरी, फूहड़ अथवा बाजारू भाषा कहते हैं। सभ्य समाज इसके सार्वजनिक उपयोग से परहेज करता है और प्रयोग करता भी है तो किसी विशिष्ट संदर्भ में ही। अंग्रेजी में इसे ‘स्लैंग’ कहा जाता है। 

यह वो भाषा है जिसमें स्थानीय रूप से उपजे या गढ़े गए शब्दों की भरमार होती है। गालियां और उनके अभिनव प्रयोग इस भाषा का वांछित हिस्सा होते हैं। सभ्य समाज में वर्जित शब्दों का टपोरी भाषा में धड़ल्ले से प्रयोग होता है और इसे कोई अन्यथा भी नहीं लेता।

 

यह भाषा एक खास वर्ग को मानसिक संतुष्टि प्रदान करती है और सहजता व निर्लज्जता के भेद को मिटाती है। इसमें भी एक ‘किन्तु’ यह है कि जो व्यक्ति अपनी टपोरी भाषा में दूसरे के लिए हल्के और गाली युक्त शब्दों का बेहिचक प्रयोग करता है, वही व्यक्ति खुद उसके लिए इसी भाषा का प्रयोग करने पर आक्रामक भी हो सकता है। अर्थात् ऐसी भाषा कितनी भी सहज हो, लेकिन मानवीय गरिमा के अनुकूल नहीं होती।  

बदलता समाज और बदलती हुई भाषा 

इसमें दो राय नहीं कि हर एक-दो दशक में भाषा बदलने लगती है। उसमें नए भावों के साथ नए शब्द आते हैं तो पुराने शब्दों को नए तेवर देने की गरज पड़ती है, कई शब्द चलन से बाहर भी होते हैं, उनकी जगह नए शब्द और मुहावरे रूढ़ होने लगते हैं। सभ्यता और संस्कृति का बदलाव, टकराव और परिवर्तित सामाजिक चेतना भी नए शब्दों की राह आसान करती है। कई बार शब्द वही होते हैं, लेकिन उनके अर्थ संदर्भ बदल जाते हैं।  

अगर ‘आज की भाषा’ की बात की जाए तो हम उस भाषा की बात कर रहे होते हैं, जिसे अंग्रेजी में मिलेनियल जनरेशन, जनरेशन जेड या फिर अल्फा जनरेशन कहा जाता है। मिलेनियल ( सहस्राब्दी) पीढ़ी उसे माना गया है, जिसका जन्म 1986 से लेकर 1999 के बीच हुआ है। इसी पीढ़ी को ‘जनरेशन जेड’ भी कहा गया है।

21 वीं सदी के आरंभ से लेकर इस सदी के पहले दशक में जन्मी पीढ़ी को ‘अल्फा जनरेशन’ नाम दिया गया है। मिलेनियल और अल्फा जनरेशन की भाषा में बुनियादी फर्क यह है कि अल्फा जनरेशन की भाषा पर इंटरनेटी शब्दावली का असर बहुत ज्यादा है और वो पारंपरिक शब्दों के संक्षिप्तिकरण में ज्यादा भरोसा रखती है। इसे हम माइक्रो मैसेजिंग, व्हाट्सएप मैसेज में युवाओं द्वारा प्रयुक्त भाषा से समझ सकते हैं। 

इस पीढ़ी की भाषा में भाषाई शुद्धता और लिपि की अस्मिता का कोई आग्रह नहीं है। हिंदी रोमन लिपि में अपने ढंग और शब्दों तो तोड़-मरोड़ कर धड़ल्ले से लिखी जा रही है। यही उनके सम्प्रेषण की भाषा है। जिसे एक ने कही, दूजे ने समझी’ शैली में इस्तेमाल किया जाता है। इस भाषा में अभी साहित्य सृजन ज्यादा नहीं हुआ है ( हुआ हो तो बताएं)। क्योंकि इस भाषा का सौंदर्यशास्त्र अभी तय होना है। कई लोगों को यह कोड लैंग्वेज जैसी भी प्रतीत हो सकती है। यानी शब्दों के संक्षिप्त रूप धड़ल्ले से प्रयोग किए जा रहे हैं, नए रूप गढ़े भी जा रहे हैं, लेकिन उनका अर्थ पारंपरिक ही हो यह आवश्यक नहीं है। अलबत्ता जैसे-जैसे अल्फा जेनरेशन वयस्क होती जाएगी, उसकी अपनी भाषा में साहित्य सृजन भी सामने आएगा। तब पुरानी पीढ़ी उसे कितना समझ पाएगी, यह कहना मुश्किल है।  

जहां तक मिलेनियल जनरेशन की बात है तो यह पीढ़ी पुरानी और नई पीढ़ी के संधिकाल में पली बढ़ी है, इसलिए इसे हिंदी का संस्कार अपने पूर्वजों की भाषा से विरासत में मिला हुआ है तथा उस विरासत में इस पीढ़ी ने अपनी सृजन शैली का तड़का लगाया है। इसलिए इस पीढ़ी की भाषा का तेवर पूर्ववर्तियों की तुलना में अलग, ज्यादा संवेदनशील और जमीनी लगता है। बावजूद इसके इस पीढ़ी की भाषा पर प्रौद्योगिकी और इंटरनेट का (दु) ष्प्रभाव बहुत कम है।

इसमें अलग लिखने और दिखने की चाह तो है, लेकिन परंपरा से हटने का बहुत अधिक आग्रह नहीं है। मिलेनियल जनरेशन अब अधेड़ावस्था में है और 20 सदी के संस्कारों और 21वीं सदी के नवाग्रहों के बीच अपना रचनात्मक और अभिव्यक्तिगत संतुलन बनाए रखने में विश्वास करती है।          

अब देखें कि मनोज मुंतशिर ने जो वाक्य प्रयोग किए हैं, क्या वो सचमुच आज के उस समाज की भाषा है, जो सभ्यता के दायरे में आते हैं। वैसे मनोज मुंतशिर कोई महान गीतकार या लेखक हैं भी नहीं। उन्हें कुछ पुरस्कार जरूर मिले हैं, लेकिन उनका लिखा कोई गीत कालजयी हो और लोगों के होठों पर सदा कायम रहा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। उन्होंने अपना नाम मनोज शुक्ला से ‘मुंतशिर’ सिर्फ इस वजह से कर लिया कि उन्हें यह शब्द भा गया था।

मुंतशिर अरबी का शब्द है और इसके मानी हैं अस्त-व्यस्त अथवा बिखरा हुआ। ‘आदिपुरूष’ के विवादित संवादों में मनोज का ‘मुंतशिर’ चरित्र ही ज्यादा उजागर हुआ लगता है। वरना ‘लंका लगा देंगे’ जैसा वाक्य प्रयोग तो अल्फा जनरेशन की हिंदी में भी शायद ही होता होगा।  

वैसे भाषा में नया प्रयोग कोई गुनाह नहीं है, बशर्ते वह मूर्खतापूर्ण और अनर्थकारी न हो। कई बड़े लेखकों ने भी अपने गढ़े हुए चरित्रों को यथार्थवादी बनाने के लिए आम बोलचाल की भाषा कहलवाई है। यदा-कदा फिल्मों (ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो यह खूब हो रहा है) में भी शुद्ध गालियों का इस्तेमाल हुआ है। लेकिन ऐसे चरित्रों के लिए किया गया है, जो समाज के बहुत बड़े वर्ग की आस्था का विषय नहीं है, जो समाज से उठाए गए आम मानवीय चरित्र हैं। लेकिन ‘आदिपुरूष’ के साथ तो ऐसा नहीं है। इसे बताया भले ही रामायण से प्रेरित हो, लेकिन हकीकत में यह कुछ बदले हुए रूप में ‘रामायण’ ही है। यह रामायण सदियों से लोगों के मन में इस कदर बैठी हुई है, उसके चरित्र इतने स्पष्ट तथा समाज को संदेश देने वाले हैं कि उनसे किसी भी तरह की छेड़छाड़ सामूहिक मन को विचलित करने वाली है। 

वैसे भी राम को आदिपुरुष कहना भी सही नहीं है। राम रघुवंश में जन्मे थे। और गहराई मे जाएं तो भगवान राम इक्ष्वाकु वंश के 39 वें वंशज थे। इसलिए ‘आदिपुरूष’ कोई होंगे तो इक्ष्वाकु होंगे। राम नहीं। भारत में जनमानस में राम की छवि मर्यादा पुरूषोत्तम की है और कई आक्षेपों के बाद भी यथावत है।

मनोज मुंतशिर ने एक नया ज्ञान यह भी दिया कि हनुमान स्वयं भगवान नहीं, बल्कि राम के भक्त हैं। तकनीकी तौर पर यह बात सही हो सकती है, लेकिन निराभिमानी हनुमान ने स्वयं पराक्रमी होते हुए भी स्वामी भक्ति की उस बुलंदी की मिसाल कायम की है, जहां भक्त स्वयं भगवान की पंक्ति में बैठने का हकदार हो जाता है। जन आलोचना और बाजार के दबाव में डायलॉग बदलने को तैयार हो जाने वाले मुंतशिर इसे कभी समझ नहीं पाएंगे। वरना इस देश में साहिर लुधियानवी जैसे शायर भी हुए हैं, जो अपने गीत में एक शब्द का हेरफेर करने से भी साफ इंकार कर देते थे।

दरअसल, लेखक की रचना और शब्द संसार में कहीं न कहीं उसका अपना चरित्र भी परिलक्षित होता है। इसके लिए किसी उधार ली गई कथा का आश्रय लेना जरूरी नहीं होता। एक तर्क दिया जा सकता है कि अगर रामायण आज लिखी जाती तो उसमें संवाद किस भाषा में होते?

वाल्मीकि की भाषा में, तुलसी की भाषा में, रामानंद सागर की भाषा में या फिर मनोज मुंतशिर की भाषा में? ज्यादातर लोग तीसरा विकल्प चुनते, जहां आधुनिक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक भाषा में धार्मिक पौराणिक चरित्रों को उनकी शाश्वत मर्यादा के साथ रचा गया है, उनसे संवाद कहलवाए गए हैं। लेकिन कहीं भी फूहड़ता को आधुनिकता का जामा नहीं पहनाया गया है।

दरअसल मनोज के लिखे विवादित डायलॉग तो उससे भी घटिया हैं, जो किसी गांव में होने वाली रामलीला में कोई स्थानीय गुमनाम सा संवाद लेखक लिखता है और जिनके जरिए भी दर्शक रामकथा से अपना सहज तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। ऐसे संवादों में अनगढ़पन हो सकता है, लेकिन फूहड़पन नहीं होता। बहरहाल अगर बॉक्स ऑफिस की बात करें तो ‘आदिपुरूष’ का खुमार अब उतार पर है। फिल्म के इस हश्र ने साबित किया कि अब सोशल मीडिया ही बॉलीवुड फिल्मों का सबसे बड़ा नियंता है।

दूसरे, प्रयोगशीलता का अर्थ दर्शकों को हर कुछ परोसना नहीं है। इस फिल्म को लेकर राजनीति भी हुई। यहां तक दावे हुए कि ‘आदिपुरूष’ के पीछे छिपे राजनीतिक एजेंडे को हिंदूवादी संगठनों ने ही पलीता लगा दिया। और यह भी राम कथा के परिष्कार की गुंजाइश तो है, लेकिन उसे मनगढ़ंत तरीके से पेश करने की नहीं है।

आज की बात

हेडलाइंस

अच्छी खबर

शर्मनाक

भारत

दुनिया