राजेश बादल
अमेरिका में अब हम लोकतंत्र का एक विकृत संस्करण देख सकते हैं।इसमें डोनाल्ड ट्रंप एक सख़्त अधिनायक के रूप में विश्व मंच पर अवतरित होने के लिए तैयार हैं।अपने बयानों और टिप्पणियों से ट्रंप यह सिद्ध कर चुके हैं कि उनके भीतर एक शातिर तानाशाह मौजूद है। इसलिए वह खुले आम कहता है कि मेक्सिको सीमा बंद करने के मामले में वे तानाशाह हो जाएँगे। वे प्रचार अभियान में कह चुके हैं कि 2020 में हारने के बाद उन्हें व्हाइट हाउस ख़ाली नहीं करना चाहिए था। याने पराजय के बाद वे जो बाइडेन की जीत को खारिज़ कर रहे थे।इस तरह का बयान कोई सामंती प्रवृति वाला इंसान ही दे सकता है। यह प्रमाणित तथ्य है कि पिछले कार्यकाल में उन्होंने 21500 से अधिक झूठ बोले थे। अर्थात 21 झूठ प्रतिदिन। किसी भी सभ्य लोकतंत्र में सामूहिक नेतृत्व, सचाई और ईमानदारी सबसे ज़रूरी तत्व होते हैं और डोनाल्ड ट्रंप में इन तीनों का अभाव है। इसीलिए संसार के सबसे अमीर लोकतंत्र की जड़ें सूखते हम बीते आठ बरस से देख रहे हैं। बराक़ ओबामा का कार्यकाल लोकतांत्रिक नज़रिए से अमेरिका का अंतिम माना जा सकता है।
सवाल यह है कि दुनिया की चौधराहट की कमान डोनाल्ड ट्रंप के हाथ में आने के बाद वैश्विक राजनीति पर क्या असर पड़ेगा ? भारत जैसे एशिया के ताक़तवर मुल्क़ के प्रति उनका रवैया कैसा रहेगा ? रूस से दोस्ती तथा चीन से चिढ़ जारी रहेगी ? क्या यूरोप के देश अगले चार बरस भी अमेरिका के पिछलग्गू बने रहेंगे ? इन प्रश्नों का उत्तर यक़ीनन भविष्य के गर्भ में है।लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के पिछले कार्यकाल को ध्यान में रखते हुए कोई विश्लेषण करें तो कहा जा सकता है कि यदि अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने रवैए में आमूल चूल बदलाव नहीं किया तो विश्व पंचायत के इस मुखिया की प्रधानी ख़तरे में है। अमेरिका तमाम राष्ट्रों को आर्थिक मदद या फौजी ताक़त के बल पर ही संसार पर अपना रौब बनाए हुए है। ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट नीति इसमें बड़ी बाधा बन सकती है। चौधराहट तो पैसे से ख़रीदी जाती है। अमेरिका अब अंटी ढीली नहीं करेगा तो उसकी कौन सुनेगा ? एक बानगी ही पर्याप्त होगी। ट्रंप कह चुके हैं कि वे एक दिन में रूस - यूक्रेन जंग रोक देंगे।अमेरिका अब तक इस जंग में 10 अरब डॉलर यूक्रेन पर ख़र्च कर चुका है। यदि वे अब यूक्रेन को सहायता बंद करते हैं तो निश्चित रूप से जंग एक दिन में रुक जाएगी और रूस को जीतने में एक-दो दिन ही लगेंगे।मगर,तब नाटो देशों का क्या होगा ? क्या वे ठगा हुआ नहीं महसूस करेंगे ? अमेरिका अपने पिछलग्गुओं को खो देगा। वैसे भी यूरोपीय यूनियन के अनेक सदस्य ट्रंप विरोधी रहे हैं।
यही हाल एशिया का है। पिछली बार वे भारतीय मूल के मतदाताओं को रिझाने के लिए भारत से गलबहियाँ डाले रहे।लेकिन ईरान से सस्ता तेल आयात बंद करने के लिए भारत को उन्होंने ही मजबूर किया था। इसके अलावा भारत ने चार दशक के प्रयासों के बाद ईरान में चाबहार बंदरगाह बनाया। यह बन्दरगाह भारत के आर्थिक हितों के अलावा रणनीतिक रूप से भी ज़रूरी था क्योंकि पाकिस्तान में चीन ने ग्वादर बंदरगाह बनाया तो उसे घेरने के लिए उसके पीछे चाबहार बंदरगाह बनाना आवश्यक था. ट्रंप ने भारत के उस बंदरगाह से कारोबारी इरादों पर ताला जड़ दिया। ईरान भारत का सदियों से शुभचिंतक रहा है। मुस्लिम जगत में वह शिया बाहुल्य अकेला देश है,जो भारत को समर्थन देता रहा है और सुन्नी देशों से बैर मोल लेता रहा है। भारत में शिया मुस्लिम अच्छी ख़ासी संख्या में हैं। अफग़ानिस्तान के मामले में भी ट्रंप भारत का सार्वजनिक उपहास करते रहे हैं।अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत के प्रयासों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने कहा था कि जितना भारत इस मुल्क़ पर ख़र्च करता है,उतना अमेरिका एक घंटे में कर देता है। क्या भारत के हितों की रक्षा के लिए वे ईरान से प्रतिबन्ध हटाएँगे ? कभी नहीं। भारत के आयात शुल्क पर भी वे ख़ुश नहीं रहे। ट्रंप ने चुनाव प्रचार के दौरान बांग्लादेश में हिन्दुओं के असुरक्षित होने की बात कहकर भारतीय वोटों को लुभाने का प्रयास किया था।लेकिन परदे के पीछे की कहानी अलग है। यह अमेरिका ही था,जिसने सैनिक अड्डे के लिए सेंट मार्टिन द्वीप नहीं देने पर शेख़ हसीना की निर्वाचित सरकार गिराई थी। बांग्लादेश के नए प्रधानमंत्री ( निर्वाचित नहीं ) अमेरिका के पिछलग्गू हैं। उन्हें अमेरिका ने ही नोबेल पुरुस्कार दिलाया था। लेकिन वे भी सेंट मार्टिन द्वीप सौंपने के लिए तैयार नहीं हैं। ट्रंप का बयान एक तरह से उनके लिए चेतावनी था। क्या राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप अमेरिका की प्राथमिकता छोड़ देंगे ?
अपने पिछले कार्यकाल में ट्रंप बयानों के ज़रिए पाकिस्तान की आलोचना करते थे और परदे के पीछे पाकिस्तान को मदद करते रहे। क्या इतिहास के पन्नों से वे यह अध्याय अलग कर सकेंगे कि जब अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के लिए तालिबान से गुपचुप वार्ताएँ हो रही थीं तो उन्होंने भारत को अलग थलग कर रखा था। पाकिस्तान बढ़ चढ़ कर उनकी सहायता कर रहा था।दरअसल ट्रंप एक धूर्त कारोबारी हैं। वे जानते हैं कि हिन्दुस्तानी सियासतदानों को पाकिस्तान की आलोचना सुनना बहुत अच्छा लगता है। अपने देश का नुकसान कराकर भी वे पाकिस्तान की बुराई सुनना चाहते हैं। इसलिए ट्रंप भारत के साथ अपनी दोहरी नीति नहीं छोड़ेंगे। अब यह भारत पर निर्भर है कि वह मिथ्याभाषी शासन प्रमुख के साथ कैसे संबंध रखता है।
इन सबके बावजूद डोनाल्ड ट्रंप जो बाइडेन से बेहतर राष्ट्रपति साबित हो सकते हैं । जो बाइडेन के ज़माने में अमेरिकी रफ़्तार जैसे ठहर गई थी। वे आंतरिक समस्याओं का समाधान नहीं खोज सके। मित्र राष्ट्रों को प्रसन्न नहीं रख पाए। वह तो कमला हैरिस का अपना अभियान ही था,जिसने शर्मानक हार से मुक़ाबले को सम्मानजनक बनाया। यदि वे महिला नही होतीं तो सौ फ़ीसदी राष्ट्रपति बन जातीं। अमेरिकी समाज अभी भी पुरुष प्रधान है इसीलिए अमेरिका में महिलाओं को वोट डालने का हक़ संविधान लागू होने के 133 साल के बाद मिला।बाइडेन का शासन ठहरा हुए पानी का सड़ांध मारता पोखर था तो डोनाल्ड ट्रंप की हुकूमत बहता हुआ प्रदूषित नाला। बेचारे अमेरिकी मतदाता जाते तो कहाँ जाते ?