बीता दशक अमेरिकी लोकतंत्र के नज़रिए से कोई बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। मुहावरे की भाषा में भले ही कहा जाए कि यह देश संसार का सबसे पुराना लोकतंत्र है ,लेकिन चुनाव दर चुनाव हम वहाँ जम्हूरियत को कमज़ोर पड़ते देख रहे हैं।यहाँ मेरा आशय संवैधानिक प्रक्रिया के तहत निर्वाचन से नहीं बल्कि,उन प्रवृतियों से है ,जो इस तथाकथित सभ्य लोकतंत्र में बढ़ती जा रही हैं।एक अमीर और सौ फ़ीसदी साक्षर राष्ट्र में सामंती आदतों के पनपने को यक़ीनन गंभीर चेतावनी के रूप में देखा जा सकता है।यह अमेरिकी प्रजा के लिए चिंता की बात हो सकती है। मगर , विश्व के तमाम लोकतान्त्रिक और जागरूक समाजों को भी इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि अमेरिका अपने को दुनिया का चौधरी समझता है। इसलिए विषय और भी संवेदनशील हो जाता है। बराक़ ओबामा का कार्यकाल पूरा होने के बाद से ही इस गोरे देश की सियासत की गाड़ी पटरी से उतरी हुई है। राजनेताओं के सोच में सामंती व्यवहार घुल गया है , एक दूसरे पर स्तरहीन अश्लील आक्रमण होने लगे हैं , संवैधानिक मर्यादाओं का तार तार बिखरना दिखाई दे रहा है और फायरिंग तथा जानलेवा हमले की हिंसक वारदातों ने इस प्रजातंत्र का चेहरा धुंधला और मलीन कर दिया है। हालाँकि ऐसे दृश्यों के उदाहरण आप भारतीय गणतंत्र के भी दे सकते हैं। लेकिन, तब आपको याद रखना होगा कि यहाँ हज़ार साल पुरानी राजशाही, निरंकुश शासन और अमानवीय ग़ुलामी की गहरी जड़ें हैं। केवल सतहत्तर साल में यह जड़ें नहीं सूख सकतीं। इसके अलावा हमें यह भी याद रखना होगा कि हिन्दुस्तान में अमेरिका से लगभग 78 करोड़ अधिक मतदाता हैं। आप यूँ भी कह सकते हैं कि पाँच अमेरिका के बराबर मतदाता केवल हिंदुस्तान में हैं और यहाँ जितनी सामाजिक तथा धार्मिक विविधता है ,उसमें अभी भी सौ फ़ीसदी स्वस्थ्य लोकतंत्र का सपना देखना दूर की कौड़ी है।
हाल ही में द न्यूयॉर्क टाइम्स और सिएना कॉलज के संयुक्त सर्वेक्षण में अमेरिका के तीन-चौथाई मतदाताओं ने माना है कि देश में लोकतंत्र खतरे में है।लगभग आधे का मानना है कि लोकतंत्र का यह संस्करण लोगों का बेहतर प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है । मतदाता मानते हैं कि देश में ज़बरदस्त भ्रष्टाचार है।यदि हम इस सर्वेक्षण का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि मुल्क़ में पूँजी का प्रभाव बढ़ने से लोकतंत्र की सामुदायिक नेतृत्व भावना कमज़ोर पड़ी है। संपन्नता ने व्यक्ति के राजसी संस्कारों को जगाने का काम किया है। इससे अनेक बुराइयों ने प्रशासनिक तंत्र में घर बना लिया है।देश की राजनीति में पैसे का बोलबाला है।
राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप का ताज़ा बयान इसका सुबूत है। वे पेंसिल्वेनिया में कहते हैं कि पिछले चुनाव में हार के बाद उन्हें व्हाइट हाउस नहीं छोड़ना चाहिए था।याने हार के बाद भी वे सिंहासन ख़ाली करने के लिए तैयार नहीं थे। अब इस कथन से आशंका यह हो रही है कि इस बार के चुनाव में यदि वे हार गए तो परिणामों को स्वीकार ही नहीं करेंगे। यह लोकतंत्र के दृष्टिकोण से एक ज़हरीला बयान है। अब उनका चुनाव अभियान चलाने वालों की मानें तो वे हार होने से पहले ही नतीजे पलटने के लिए देश भर में मुहीम छेड़ेंगे। उनके समर्थकों ने बारीक़ अंतर से हारजीत दिखा रहे सात राज्यों में अभी से क़रीब 100 अदालती याचिकाएँ लगाईं हैं। चुनाव कार्य में लगे 38 प्रतिशत अधिकारियों को धमकियाँ मिली हैं और 54 फ़ीसदी निर्वाचन अधिकारी बेहद भयभीत हैं। उन्हें अपने साथ ट्रंप के समर्थकों की ओर से जानलेवा हमले का डर है। दो बार डोनाल्ड ट्रंप पर ऐसी फायरिंग हुई कि उनको कोई शारीरिक नुक़सान नहीं हुआ ( राहत की बात है ) अलबत्ता उन्होंने अपने हमलों को रैलियों में जमकर भुनाया और सहानुभूति बटोरी। ट्रंप कई बार कह चुके हैं कि बिना चुनावी धोखाधड़ी के वे हार नहीं सकते। उनके वकील मतदान से पहले ही इस तैयारी में हैं कि समूचे डेमोक्रेटिक मतों को ही अवैध क़रार दे दिया जाए। यह मंशा तो किसी भी सभ्य लोकतंत्र में उचित नहीं मानी जा सकती ।
डोनाल्ड ट्रम्प अपने अलोकतांत्रिक व्यवहार और शर्मनाक झूठे कथनों के लिए पूरे संसार में कुख्यात हैं। वाशिंगटन पोस्ट के एक तथ्यात्मक सर्वेक्षण में पाया गया था कि उन्होंने राष्ट्रपति रहते हुए 30 हज़ार से अधिक झूठ बोले।अर्थात प्रतिदिन उन्होंने 21 बार ग़लतबयानी की।एक अन्य अख़बार ने तो उनके असत्य कथनों का ख़ास परिशिष्ट ही निकाल दिया था।न्यायालय की एक जूरी उन्हें ऐसे मामलों में दोषी ठहरा चुकी है और अटॉर्नी जनरल भी उनकी आलोचना कर चुके हैं। जिन हिन्दुओं के बारे में वे इन दिनों चिंतित हैं ,अपने कार्यकाल में उनके लिए उन्होंने कुछ नहीं किया। भारत का अपमान करने में भी वे पीछे नहीं रहे। अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय सहायता के बारे में वे भारत की खिल्ली उड़ाते रहे हैं। उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि भारत जितना पैसा अफ़ग़ानिस्तान के लोगों पर ख़र्च कर रहा है ,उतना तो अमेरिका एक घंटे में वहाँ ख़र्च कर देता है।मत भूलिए कि भारतीय मूल के मतदाताओं ने उनके लिए अबकी बार ट्रंप सरकार के नारे लगाए थे।
इसका अर्थ यह नहीं कि डोनाल्ड ट्रंप की प्रतिद्वंद्वी कमला हैरिस लोकतंत्र की बड़ी हिमायती हैं। जो लोग उनके सियासी सफ़र को गहराई से समझते हैं ,वे जानते हैं कि कमला एक बेहद महत्वाकांक्षी महिला हैं।वे भारत सरकार की कश्मीर नीति की पुरानी कट्टर आलोचक रही हैं। लोकतान्त्रिक मूल्य उनके व्यवहार में नहीं नज़र आते। फिर भी ट्रम्प की तुलना में वे बेहतर डेमोक्रेट हैं। उनके सामने बड़ी बाधा अमेरिकी मतदाताओं का परंपरावादी सोच भी है ,जिसके तहत आज तक कोई महिला अमेरिका की राष्ट्रपति नहीं चुनी गई। जो भी मैदान में उतरीं ,हार गईं। क्या यह ताज्जुब की बात नहीं है कि अमेरिका में संविधान लागू होने के 133 साल बाद स्त्रियों को वोट डालने का हक़ मिला। वह भी लंबे संघर्ष के बाद। भारत में तो संविधान लागू होते ही महिलाओं को बराबरी से मत देने का अधिकार मिल गया था।इसी तरह अश्वेतों को भी मताधिकार के लिए दशकों तक संघर्ष करना पड़ा था।