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Added on : 2023-04-18 08:56:49

राजेश बादल


अपराधी कितना ही क्रूर और ख़तरनाक़ हो , उसे सार्वजनिक रूप से गोली से उड़ाया जाना किसी भी लोकतंत्र में जायज़ नहीं कहा जा सकता। आप कह सकते हैं कि जब शातिर मुजरिम समाज पर बोझ बन जाएँ , स्थानीय निवासी उनके अत्याचारों से कराहने लगे और कोई एक व्यक्ति सार्वजनिक रूप से क़ानून को धता बताते हुए दिनदहाड़े दंड दे तो इसमें क्या अनुचित है ? व्यावहारिक तौर पर उसमें कुछ भी ग़लत नहीं लगता। शायद इसीलिए उत्तरप्रदेश की ताज़ा वारदात के बारे में समाज का एक बड़ा वर्ग हत्यारों को लेकर नायक भाव रख रहा है। इस वर्ग को अपनी बात के समर्थन में ऐतिहासिक और पौराणिक सन्दर्भों का इस्तेमाल करने से भी परहेज़ नहीं है। भगवान राम और कृष्ण के रावण और कंस का वध करने जैसी कथाओं का सहारा लिया जा रहा है। इस सामाजिक सोच पर सवाल खड़े किए जाने चाहिए। उस ज़माने में कोई लिखित संविधान राष्ट्र को संचालित नहीं करता था। दरबार में राजा के मुँह से निकला शब्द ही अंतिम होता था। चोरों के हाथ काटने ,हत्या के आरोपी का सार्वजनिक तौर पर सिर कलम करने या बलात्कार के आरोपी का गुप्तांग काटने जैसे फ़रमानों से सन्दर्भ -पुस्तकें भरी पड़ी हैं। आज भी अनेक इस्लामी मुल्क़ों में ऐसे दंड विधान प्रचलित हैं और हम हिन्दुस्तान में बैठकर उनकी निंदा करते हैं। अपनी दयालुता और बौद्ध धर्म का विस्तार करने वाले सम्राट अशोक के राज में भी पहले अपराधियों के ख़िलाफ़ इसी तरह फ़ैसले लिए जाते थे। मत भूलिए कि राजाओं के ऐसे निर्णयों का उद्देश्य जनता के बीच राजा के ख़ौफ़ को ज़िंदा रखना था ,ताकि लोग कभी बग़ावत या विद्रोह पर नहीं उतर सकें ।  
सवाल यह उठता है कि आज का कोई सभ्य लोकतंत्र अपना विकास किन मापदंडों के आधार पर करे ? भारत में वर्षों तक माथापच्ची करने के बाद संवैधानिक लोकतंत्र को भारत लोगों ने ,लोगों के लिए इसे तैयार किया है। संसार का श्रेष्ठतम संविधान इसे माना जाता है। इस तंत्र को भारतीयों ने अपने लिए ही गढ़ा - रचा है और उसके तहत न्याय करने तथा दंड देने की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका के हिस्से में आई है । दशकों से यह न्यायपालिका अपनी भूमिका बख़ूबी निभा रही है। अपवादों को छोड़ दें तो आम तौर पर सबल और कमज़ोर वर्ग का नागरिक भी सोचने लगा है कि यदि कहीं न्याय नहीं मिलेगा तो अदालत का दरवाज़ा खटखटाऊँगा। पर,हालिया वर्षों का अनुभव कहता है कि हम एक ऐसे समाज की रचना कर बैठे हैं ,जो ऐसी बर्बरता और क्रूरता को पसंद करता है। इस तरह की वारदातें साल दर साल बढ़ती ही जा रही हैं। मध्य युग के सामंती दौर की याद दिलाती बीते दिनों की घटनाएँ जारी रहीं तो यह निष्कर्ष निकालने में संकोच नहीं होना चाहिए कि जम्हूरियत का एक पाया आम अवाम के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहा है।क्या हम एक ऐसे सोच को संरक्षण दे रहे हैं ,जो न्यायालय का निर्णय आने तक इंतज़ार नहीं करना चाहता।वह न्यायालय के प्रति सम्मान भी नहीं रखता। क्या हम एक ऐसी नई पौध तैयार कर रहे हैं ,जिसकी लोकतंत्र में कोई आस्था नहीं दिखाई देती।  
भारत को एक सूत्र में पिरोने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जब हत्या की गई ,तो उनके इर्द गिर्द सौ - पचास लोग थे । वे चाहते तो खुंखार रूप धारण कर सकते थे और बदला ले सकते थे।लेकिन , उन्होंने ऐसा नहीं किया।यदि वे कानून ताक में रखकर कुछ कर बैठते तो भी शायद उसे ग़लत नहीं कहा जाता। मगर, दुनिया के नक़्शे में उगे एक नए नवेले राष्ट्र की न्यायपालिका के न्याय पर उन्होंने भरोसा किया। क़ानून को अपने हाथ में लेने की ज़ुर्रत नहीं की। दस - पंद्रह फ़ीसदी साक्षरता वाले मुल्क़ के वे हमारे पूर्वज आज की तुलना में कहीं अधिक परिपक्व,जम्हूरियत पसंद और न्यायप्रिय थे । उन्हें उस दौर के तंत्र पर यक़ीन था ,जो आज़ादी के बाद बनाया जा रहा था। कह सकते हैं कि वह भारत गांधी की अहिंसक अलौकिक आभा से दमक रहा था और सामंतों ,नवाबों ,राजाओं ,महाराजाओं तथा गोरी हुक़ूमत के अमानवीय जुल्मों को भूलकर नए हिन्दुस्तान की रचना करने के रास्ते पर चल पड़ा था।परंतु उत्तर प्रदेश में क्या हुआ ? एक मुजरिम एक मामले में उमर क़ैद की सजा काट रहा था।अन्य मामलों में भी वह न्यायपालिका के सामने प्रस्तुत हो रहा था। अदालत उसे मृत्यु दंड भी देती तो वह उसकी अवहेलना नहीं कर सकता था। फिर अचानक तीन नौजवान इतने उतावले और उन्मादी कैसे हो गए कि उन्होंने न्याय का राजदंड अपने हाथ में थाम लिया।उनके भीतर न्यायालय को लेकर इतना अविश्वास कैसे पैदा हुआ कि वह एक अपराधी को दण्डित नहीं कर पाएगी। 
इस घटना से पहले भी कई उदाहरण सामने आए हैं ,जब उन्मादी भीड़ ने सिर्फ़ आरोप लगाकर बेक़ुसूरों की जान ली है। किसी का घर जला दिया ,किसी का कारोबार चौपट कर दिया और किसी की दुकान नष्ट कर दी। मैं यहाँ किसी धर्म ,जाति या साम्प्रदायिक आधार पर अपनी बात नहीं रख रहा हूँ ,बल्कि समूची सिविल सोसायटी के तौर तरीक़ों पर प्रश्न चिह्न खड़ा करना चाहता हूँ।हम जैसे जैसे आधुनिक और वैज्ञानिक युग में बढ़ रहे हैं तो क्या दिमाग़ के स्तर पर आदम युग में नहीं जा रहे हैं ? हम अधीर हो गए हैं। स्वयं निर्णय सुना देना चाहते हैं ,खुद फ़ैसला कर देना चाहते हैं। उसका किसी पंचायत में परीक्षण तक नहीं करना चाहते। आख़िर किसी को दण्डित करने का उन्हें कौन अधिकार दे रहा है ? ज़ाहिर है कि इसके पीछे हमारे मौजूदा सामाजिक ढाँचे के सोच में आ रहा बदलाव है ,जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है।यक़ीनन यह उस देश की पहचान नहीं है ,जो अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता ,संस्कृति और ज्ञान के लिए जाना जाता था। हमें जंगली ,वहशी और उन्मादी होने से बचना होगा। निश्चित रूप से इसमें हमारे तंत्र को बड़ी भूमिका निभानी होगी ।

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