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हॉट टोपिक
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Added on : 2025-03-12 13:55:44

राजेश बादल 
भारतीय लोकतंत्र का एक विकृत संस्करण इन दिनों हम देख रहे हैं।वैसे तो कुछ दशकों से इस जम्हूरियत में सामंती बीज पनपते दिखाई दे रहे थे।वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आड़ में अंकुरित होते गए।सामूहिक नेतृत्व के स्थान पर जैसे जैसे धन बल और बाहुबल सियासत पर हावी होता गया,उसमें समूचा तंत्र व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटता गया।यानी जिस रौबदार नेता के पास पैसा और हथियारों से लैस सेना थी,वह हावी होता गया।लोकतंत्र की मूल भावना इस तरह धीरे धीरे दम तोड़ती गई।एक व्यक्ति के रौब में आकर पार्टियाँ पनपती रहीं।इसके लिए किसी एक दल को दोष नहीं दिया जा सकता। कमोबेश प्रत्येक राजनीतिक पार्टी में इसका दुष्प्रभाव नज़र आ रहा है।अफ़सोस यह है कि राजनीति में उतरने वाली नई नस्लें इस विकृत रूप को ही असल लोकतंत्र समझ बैठी हैं।अनेक पार्टियों का आंतरिक ढाँचा इस तथ्य का सुबूत है कि उनका मुखिया एक राजा की तरह ही व्यवहार करता है।उनके उत्तराधिकारी ख़ुद को राजकुमार या युवराज समझते हैं।दरअसल भारतीय लोकतंत्र की यह ऐसी सड़ांध या महामारी है,जिसका असर आने वाले दिनों में उजागर होगा।राष्ट्रीय दल बहुजन समाज पार्टी के भीतर का घटनाक्रम इसका ताज़ा उदाहरण है।राष्ट्र के बौद्धिक मंच पर इसकी चर्चा होनी चाहिए थी।लेकिन कहीं इस पर बहस नहीं हुई ।   
बहुजन समाज पार्टी में इन दिनों सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पार्टी की मुखिया सुश्री मायावती ने चंद रोज़ पहले जिस तरह भतीजे आकाश आनंद को पार्टी से निकाला,वह किसी भी क़ीमत पर अच्छी राजनीति का लक्षण नहीं है।भले ही वह पार्टी का अंदरूनी मामला था,मगर निकालने से पहले न कोई कार्यकारिणी की बैठक बुलाई गई और न आकाश आनंद से स्पष्टीकरण माँगा गया।वह लोकतान्त्रिक ढंग नहीं था।पर इससे ज़्यादा ख़तरनाक़ मायावती का अंदाज़ था,जिस पर सियासी जमात के किसी प्रतिनिधि का ध्यान नहीं गया।उन्होंने दो बरस पहले आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।लेकिन अचानक उनको निकाल दिया गया।इससे पहले उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ तथा पत्नी प्रज्ञा को भी मायावती ने निकाल  दिया था।आठ बरस पहले आकाश लन्दन से पढ़ाई पूरी करके आए थे और मायावती के अनुरोध पर ही पार्टी से जुड़े थे।वे पार्टी के राष्ट्रीय समन्वयक भी थे।लेकिन मायावती के कोप का शिकार हो गए और समन्वयक पद से भी बर्ख़ास्त कर दिए गए।इसके बाद उन्हें पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले फिर प्रमुख दायित्व सौंपे गए।साल भर पूरा होता,आकाश पर फिर गाज़ गिरी और उन्हें दरवाज़ा दिखा दिया गया।मायावती से यह सवाल पूछा जा सकता है कि आख़िर उनकी पार्टी में नियुक्तियाँ क्यों होती हैं ? जनतांत्रिक तरीक़े से निर्वाचन क्यों नहीं कराए जाते ?   
सवाल यह नहीं है कि उन्हें बार बार ज़िम्मेदारियाँ सौंपी गईं और हटाया गया।असल सवाल यह है कि मध्ययुग में जिस तरह राजा या सुलतान बरताव करते थे,मायावती का रवैया कुछ इसी प्रकार का है।एक राजा अपने किसी एक प्रिय राजकुमार को उत्तराधिकारी चुनता था।वह राजा बन जाता था। लेकिन किन्ही कारणों से राजा उस राजकुमार से ख़फ़ा हो जाए तो उसको भी हटा देता था।इसी तरह कुनबे का राज चलता था।भारत की आज़ादी के बाद हमने जिस संवैधानिक लोकतंत्र को अपनाया,उसमें ऐसी राजसी मानसिकता के लिए कोई स्थान नहीं था।मध्ययुग की मानसिकता के साथ चल रहीं मायावती लन्दन में पढ़े लिखे एक नौजवान से क्या अपेक्षा कर रही थीं ? वह भी कबीलाई संस्कृति अपना ले ? दो पीढ़ियों के बीच यह तनातनी तृणमूल कांग्रेस,राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी,समाजवादी पार्टी से लेकर दक्षिण भारत के डी एम के और अन्य मंझोले दलों में वर्षों से चल रही है।ममता बनर्जी का भतीजे से मतभेद,शरद पवार का भतीजे से मतभेद,अखिलेश यादव का चाचा से मतभेद,झारखण्ड मुक्ति मोर्चा में पारिवारिक कलह,बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी में चाचा - भतीजे में टकराव और आरजेडी में दो भाइयों के बीच मतभेद कुछ उदाहरण हैं।अलबत्ता भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में इस तरह के उदाहरण कम हैं।हाँ उनके व्यवहार और शब्दों में सामंती लहज़ा अवश्य नज़र आने लगा है। मध्यप्रदेश में एक पूर्व केंद्रीय मंत्री तथा वर्तमान में राज्य सरकार में मंत्री ने हाल ही में एक कार्यक्रम के दरम्यान अजीबोग़रीब बात कही।उन्होंने कहा कि सरकार से भीख माँगने की आदत लोगों की पड़ गई है। कहीं जाते हैं तो माँगपत्र लिए भिखारियों की भीड़ चली आती है।यह अच्छी बात नहीं है।मंत्री जी भूल गए कि हर पाँच साल बाद वे जनता से वोट की भीख माँगने ही तो जाते हैं।निर्वाचित जन प्रतिनिधि जब अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में नाक़ाम रहता है तो उसके मतदाता माँगपत्र लेकर जाने पर मजबूर होते हैं।आदर्श स्थिति तो वह होती है कि मतदाता को माँगपत्र देना ही नहीं पड़े।यह उस क्षेत्र के विधायक की असफलता है।    
इसका अर्थ यह भी निकलता है कि छोटे और मंझोले राजनीतिक दलों ने अपने भीतर सत्ता की भूख तो पैदा की,लेकिन सत्ता के संस्कार अपनी पार्टियों के अंदर पैदा नहीं किए।वे राष्ट्रीय पार्टियों से समय समय पर ऐसे समझौते करते रहे,जो लोकतंत्र की चिंता कम,अपने स्वार्थों की चिन्ता अधिक करते थे।मैं जिस कबीलाई सामंती प्रथा का ज़िक्र कर रहा हूँ,उसका मतलब यही है कि यह क्षेत्रीय पार्टियाँ मुखिया की जाति और उप जातियों के मतदाताओं की ठेकेदार बन गई थीं।भारतीय मतदाता भी अरसे तक इस भ्रम में रहे कि पार्टियाँ उनके हितों की रक्षा करेंगीं।जब तक क्षेत्रीय पार्टी का राजवंश स्थापित करने वाला शिखर पुरुष ज़िंदा रहता था ,तब तक उसके प्रभाव में ठीक ठाक सा चलता दिखाई देता था।लेकिन,उसके बाद वाली पीढ़ियाँ उस प्रभाव को बरक़रार नहीं रख सकीं। क्योंकि उनकी परवरिश एक राजकुमार की तरह हुई थी।  इस तरह हिन्दुस्तान में अखिल भारतीय लोकतांत्रिक चरित्र विकसित नहीं हो सका।

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