अजय बोकिल
देश में एक के बाद एक जिस तरह एक मनुष्य द्वारा ही दूसरे मनुष्य के साथ क्रूरता, निर्दयता और मानवीय गरिमा को रौंदने की घटनाएं हो रही हैं, उससे तो अब यह सवाल उठ रहा है कि आखिर पैशाचिकता की इंतिहा किसे कहें? ऐसा हर नया राक्षसी कृत्य पहले से ज्यादा शर्मनाक और मानव सभ्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है। ऐसा नहीं कि इस तरह की घटनाएं पहले नहीं हुईं, लेकिन जिस तेजी से इसकी आवृत्ति बढ़ी है, वह हमारे समूचे सोच और संस्कृति को ही कठघरे में खड़ा करने वाली है। लगता है मानो यह सब बहुत सोचे समझे तरीके से किया अथवा करवाया जा रहा है। इससे राजनीतिक हित भले सधते हों, सामाजिक ताना बाने की धज्जियां उड़ रही हैं।
इनमें भी मणिपुर में हुई बेहद शर्मनाक घटना ने पूरे देश का सिर नीचा किया है। वहां प्रभावशाली मैतेई समुदाय और आदिवासियों के बीच अविश्वास और नफरत की खाई इतनी ज्यादा गहरा चुकी है कि उसे शायद ही कभी भरा जा सके। वहां एक समुदाय का व्यक्ति अब दूसरे समुदाय के लिए सिर्फ एक ‘शिकार’ है। दो माह पुराने इस वीडियो के वायरल होने के बाद भीतर से व्यथित सुप्रीम कोर्ट ने घटना का स्वत: संज्ञान लेकर केन्द्र और राज्य सराकर को फटकार लगाई कि वो ठोस कार्रवाई करे अथवा कोर्ट ही कुछ करने पर मजबूर होगा। मणिपुर में दोनो समुदायों के बीच हिंसा तो 77 दिनों से जारी है। पूरा समाज इस कदर बंट चुका है कि मेलजोल का कोई उपाय कारगर सिद्ध होता नजर नहीं आ रहा है और न ही ऐसी कोई गंभीर कोशिश होती दिख रही है। देर से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस घटना पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया। हालांकि इसके पहले मणिपुर में इलाज के लिए शहर जा रहे मां-बेटे सहित तीन लोगों को जिंदा जला दिया गया था। वो ईसाई मैतेई थे। लेकिन तब उसे ‘कानून व्यवस्था’ का मामला मानकर नजर अंदाज किया गया। आदिवासी संगठन आईटीएलएफ के अनुसार कि राज्य के कांगपोकपी जिले के थौबुल इलाके में 4 मई की रात दो कुकी महिलाअों के साथ मैतेई समुदाय के लोगों ने गैंग रेप किया गया और बाद में उन्हें गांव में निर्वस्त्र घुमाया। वीडियो में महिलाएं मिन्नतें करते हुए रो रही हैं, लेकिन दंरिदें उनकी आबरू लूटकर परेड करवा रहे हैं। क्योंकि वो विरोधी आदिवासी समुदाय की हैं। आरोपियों में मैतेई के अलावा एक स्थानीय जनजातीय समुदाय के एक सदस्य का भी नाम है। प्रधानमंत्री द्वारा इस घटना की सार्वजनिक निंदा और राज्य की बिरेनसिंह सरकार पर पड़े देशव्यापी दबाव के बाद घटना के मुख्य आरोपी को गिरफ्तार करने की बात कही जा रही है। यह भी कहा जा रहा है कि दोषियों को सख्तर सजा दी जाएगी। वैसे राज्य के मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं और कई पार्टियों का पानी पी चुके हैं। आजकल वो भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री हैं। 2018 में उन्हें तत्कालीन उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने ‘चैम्पियन्स ऑफ चेंज’ अवाॅर्ड से नवाजा था। उनकी प्रशासकीय क्षमता कितनी है, यह तो मणिपुर के ताजा घटनाक्रम से ही पता चलता है। मीडिया ने जब उनसे राज्य में दो महिलाअों को निर्वस्त्र घुमाने की घटना पर सवाल किए तो उनका जवाब बेहद ठंडा था कि हाल में कई घटनाएं हुईं है। उन पर कार्रवाई की जा रही है। गोया महिलाअों को सरे आम निर्वस्त्र कर घुमाने का मामला किसी छुट्टी की अर्जी को स्वीकृत करने जैसा सामान्य हो। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले महिने मणिपुर के मामले में जो सर्वदलीय बैठक बुलाई थी, उसमें सभी ने यह मांग की थी कि पहले सीएम बिरेन सिंह को हटाया जाए। लेकिन स्थानीय राजनीतिक समीकरणों के चलते वैसा कुछ भी नहीं हुआ। जबकि सत्तारूढ़ भाजपा चाहती तो बिरेन सिंह की जगह मैतेई समुदाय के ही किसी दूसरे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना सकती थी। अब वहां हालत यह है कि सेना भी मणिपुर में ज्यादा कुछ नहीं कर पा रही है। क्योंकि आदिवासी और गैरआदिवासी मैतेई समाज एक दूसरे के खून के प्यासे हो चुके हैं। ऐसा तो देश के किसी हिस्से में शायद ही हुआ हो। देश विभाजन के समय कुछ समय से लिए ऐसा हुआ था, लेकिन बाद लोग फिर साथ रहने लगे। मणिपुर सीएम बिरेनसिंह का जवाब इसलिए भी क्षुब्ध करने वाला है क्योंकि महिलाओं के मामले में वो इतने संवेदनशील हैं कि पिछले दिनो जब वो राज्य की महिला राज्यपाल जो स्वयं आदिवासी हैं, को अपने पद से इस्तीफा देने घर से निकले तो रास्ते में मिली सजातीय महिलाओं के रोके जाने पर इस्तीफा वापस जेब में रखकर लौट गए। उसी बिरेनसिंह के राज में महिलाअों को निर्वस्त्र कर घुमाने की घटनाएं हो रही हैं।
मणिपुर के समूचे घटनाक्रम को राजनीति के नजरिए से देखना और उसी तरीके से डील करना बहुत बड़ी गलती है, जिसका खमियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ सकता है। राज्य के प्रभावशाली मैतेई समुदाय को आदिवासी कोटे में आरक्षण की मांग का मुद्दा अपनी जगह है, लेकिन इस कारण से समूचा मणिपुर आदिवासी गैर आदिवासी और हिंदू ईसाई में बंट गया है, यह ज्यादा भयावह है। सरकार को इस पूरे मामले को बहुत सावधानी और पूरी संवदेनशीलता के साथ सुलझाना चाहिए। यह काम बातचीत और परस्पर विश्वास बहाली से ही हो सकता है। सेना और पुलिस में इसमें ज्यादा कुछ नहीं कर सकती ( वहां तो पुलिस भी समुदायों में बंट चुकी है)। क्योंकि क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के कारण ही आज कश्मीर हमारे हाथ से निकलते बचा है।
मणिपुर जैसी घटनाअों के पीछे राजनीतिक, आर्थिक कारणों के अलावा बहुत बड़ा कारण सामाजिक है। वहां समाजों के आर्थिक स्वार्थ और विदेशों से अलगाववादी तत्वो को हवा देने जैसे कारण भी इसके पीछे हैं। लेकिन समाजिक सौहार्द पूरी तरह तार-तार हो जाए, इसे समझने के लिए किसी प्रौद्योगिकी की जरूरत नहीं है। निष्ठुर और प्रायोजित हिंसा के उदाहरण हमने हाल में पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों में भी देखे। जहां वोट डालने से रोकने के लिए भी बड़ी आसानी से लोगों की जानें ले ली गईं। समुदायों में विवाद और हिंसा होती है, लेकिन उसके पीछे ज्यादातर तात्कालिक आवेश, आर्थिक राजनीतिक स्वार्थ, सामाजिक द्वेष अथवा धार्मिक- वैचारिक कट्टरता होती है। लेकिन हिंसक टकराव के कुछ समय बाद स्थिति सामान्य होने लगती है। कई बार खुद समाज उस आवेश अथवा प्रतिशोध में की गई हिंसा को लेकर पश्चाताप करने लगता है। क्योंकि आखिर हम सब मनुष्य हैं।
लेकिन पिछले कुछ समय से विविधता पर गर्व करने वाले इस देश में क्रूरता और मानवता को अपमानित करने की घटनाएं जिस तेजी से बढ़ी हैं और कई बार िजस तरह से उसे ग्लैमराइज भी किया जाता है, उसकी गहराई से पड़ताल जरूरी है। ये क्रूरता मुख्य रूप से महिला, दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के साथ हो रही है। मसलन प्रेमिकाअोंकी हत्याकर उसके टुकड़े- टुकड़े जंगल में फेंकने या उन टुकड़ों को सूप की तरह उबालने, दलितों के साथ रेप के बाद उनकी हत्या या फांसी पर टांग देने, आदिवासियों पर पेशाब करने, नन्हीं बच्चियों से रेप कर उन्हें काटने या िजंदा जला देने, धार्मिक दुराग्रहों के चलते गला काट देने जैसी वीभत्स घटनाअों की मानों सीरिज सी चल रही है। सोशल मीडिया आने के बाद तो मानो ऐसी घटनाएं भी ‘मनोरंजन’ और भय पैदा करने का नया माध्यम बन गई हैं। अब लोग रेप पीडि़ता अथवा दुर्घटना में दम तोड़ने वाले व्यक्ति को बचाने के बजाए उसका वीडियो बनाकर उसके लाइक्स गिनने में अजब तरह का राक्षसी आनंद महसूस करते हैं। यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है और क्रूरता तथा परपीड़ा में आनंद लेने का शैतानी सुख है। इसके पीछे घटिया आत्म संतोष शायद यही है कि जो दूसरों के साथ हुआ, वह मेरे साथ कभी नहीं होगा। मैं मात्र दर्शक और अपने में मगन सोशल मीडिया एक्टिविस्ट हूं, जो समाज में रहकर समाज का ज्यादा नुकसान कर रहा है। इससे भी ज्यादा अफसोस की बात यह है कि जैसे ही ऐसी कोई पैशाचिक घटना वायरल होती है, दूसरे कई लोग उस निष्ठुरता की सीमा लांघते हुए क्रूरता की नई मिसाल पेश करने के बेताब प्रतीत होते हैं। यह सब क्या है? आज लोग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के खतरों पर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन मानव सभ्यता को असल खतरा तो पशु से भी बदतर होते इंसानों से है।