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हॉट टोपिक
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Added on : 2023-05-10 13:05:47

राजेश बादल 
जिस सामंतशाही या राजशाही को हिंदुस्तान ने आज़ादी के बाद ही दफ़ना दिया था ,वास्तव में वह समाप्त नहीं हुई थी । लोकतांत्रिक देह की शिराओं और धमनियों में प्रदूषित और ज़हरीले रूप में आज भी यह दौड़ रही है।कुछ ऐसा समय अवश्य आया ,जब लगा कि भारतीय सियासत में इस बीमारी पर काबू पा लिया गया है। पर,यह भ्रम था। सामंती कीड़े फिर भी पनपते रहे। नतीज़ा यह कि आज यह अपने विकराल स्वरुप में है।जब  डेढ़ सौ करोड़ नागरिक लोकतान्त्रिक प्रणाली के आदी हो चुके हैं तो यह महामारी फैलती ही जा रही है।आज भारत अपने संसदीय निर्वाचन तंत्र के ज़रिए समूचे संसार में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका है।  ऐसे में देश की शासन प्रणाली से आम अवाम की भागीदारी का विलोप होना यक़ीनन शुभ संकेत नहीं है। भारतीय इतिहास ने मध्ययुग में नवाबों और राजा - महाराजाओं के कालखंड की क्रूर और भयानक कथाएँ देखी हैं।उस दरम्यान शासन संचालन का कोई सूत्र प्रजा के हाथ नहीं होता था। कोई लिखित संविधान नहीं था। पीढ़ी दर पीढ़ी राजा और उसके उत्तराधिकारी के सनक भरे फ़ैसलों को स्वीकार करना ही अवाम का धर्म था। ताज्जुब  है कि जब राष्ट्र साक्षरता के शिखर पर पहुँच रहा है तो आदम सोच उस पर हावी हो रहा है। 
अपनी बात और स्पष्ट करता हूँ। हाल ही में अपराध जगत का भारी भरकम रिकॉर्ड रखने वाले बाहुबलियों के तमाम क़िस्से सामने आए ।उत्तरप्रदेश के एक विधायक का वीडियो प्रसारित हुआ। उसमें वे अपने घरेलू नौकर को डंडों से पीटते नज़र आ रहे हैं। नौकर का कुसूर था कि उसने अपने काम का पारिश्रमिक माँग लिया था। भले ही ऐसे नेता  मतदाताओं के बीच से चुनकर आते हैं । लेकिन उनकी कार्यशैली क़तई लोकतान्त्रिक नहीं होती  ।कुछ समय पहले तो अनेक प्रदेशों में राजनेताओं ने अपने साथ सैकड़ों हथियारबंद समर्थक रखना शुरू कर दिया था । ज़्यादातर ये हथियार बिना लाइसेंस के होते थे। एक तरह से यह निजी सेना ही थी। बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में इसके अनेक उदाहरण मिलते थे। आज भी बहुत से जन प्रतिनिधि ऐसा करते हैं। उनके  सशस्त्र समर्थक समर्थक चुनाव के दिनों में ख़ौफ़ पैदा करने का काम करते हैं ,ताकि नेताजी चुनाव जीत जाएं।चुनाव जीतने के बाद पैसे लेकर  मतदाताओं का काम कराना ,अवैध धंधों को संचालित करना और भ्रष्टाचार की फसल फैलाते जाने का काम करना इनका मुख्य कारोबार बन जाता है।बिना ठेका लिए वे नदियों की रेत निकालते हैं ,खनिजों का उत्खनन कराते हैं और बजट में प्रावधान नहीं होते हुए भी सरकारी पैसों से निजी निर्माण कार्य कराते हैं।  विधानसभा या संसद के काम में उनकी कभी दिलचस्पी नहीं रहती । वे साम,दाम,दंड और भेद के ज़रिए अपनी पार्टियों तथा स्वयं को रौबदार बनाए रखते हैं। हर पार्टी दशकों से चुनाव पूर्व कहती है कि वह जीतने वाले को ही टिकट देगी। बताने की ज़रुरत नहीं कि टिकट किसी बाहुबली को ही मिलता है क्योंकि वही धनबल और बाहुबल से चुनाव जीतने की क्षमता रखता है। मैं याद कर सकता हूँ कि क़रीब तीन दशक पहले मध्यप्रदेश के एक बाहुबली निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे। उन्हें हाथी चुनाव चिह्न आवंटित किया गया। इसके बाद पूरे इलाक़े में उनका नारा गूँजा - मुहर लगेगी हाथी पर ,नहीं तो गोली खाओ छाती पर ,लाश मिलेगी घाटी पर। इसके बाद उनके जीतने में कोई संदेह नहीं रह जाता था। जब वे जीत गए तो उनके घर दरबार लगने लगा। वे निर्वाचित विधायक थे ,इसलिए किसी विभाग का अधिकारी उनके दरबार में जाने से मना नहीं कर सकता था। इस दरबार में ही सारे फ़ैसले होते थे। चाहे वे विधि सम्मत हों अथवा नहीं। उन दिनों ऐसे मामले अपवाद स्वरूप ही सामने आते थे। इसलिए हम लोगों ने ख़बरें भी प्रकाशित कीं। मगर,उनका कोई असर नहीं पड़ा। आज हम देखते हैं कि हर ज़िले में एक या दो ऐसे निर्वाचित जन प्रतिनिधि चुनकर आने लगे हैं ,जो अपने स्तर पर ही सारे निर्णय कराते हैं।क़रीब तीन दशक पहले मैंने टीवी न्यूज़ के कार्यक्रम के लिए एक रिपोर्ट कवर की थी। एक निर्वाचित जन प्रतिनिधि के भाई ने अपने घर में ही यातना गृह बना रखा था। उसमें अपने से असहमत लोगों अथवा विरोध करने वालों को क्रूर और अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। ठीक अँगरेज़ों के ज़माने जैसीं। भाई की दबंगई के दम पर ही विधायक चुनाव जीता करते थे। लगभग बीस साल पहले राजस्थान ,दिल्ली ,मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में सक्रिय चम्बल घाटी के दुर्दांत डाकू सरगना निर्भय गुर्जर से मैंने कैमरे पर बातचीत रिकॉर्ड की थी। उस समय उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव संपन्न हुए थे और राजस्थान तथा मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव होने वाले थे। इस डाकू ने बताया कि उसे पार्टी से कोई मतलब नहीं है। वह हर पार्टी को पैसे देता है और अपने उम्मीदवार खड़े करता है। जीतने के बाद यह विधायक उसके लिए काम करते हैं। यही निर्वाचित जन प्रतिनिधि अपनी पसंद के पुलिस अधिकारी उस डाकू के प्रभाव क्षेत्र में तैनात कराते हैं। वे पुलिस अधिकारी कभी डाकू निर्भय गुर्जर को परेशान नहीं करते। इस तरह अपराधियों,पुलिस प्रशासन और जन प्रतिनिधियों का गठजोड़ चलता रहता है।    
यही विडंबना है कि लोकतंत्र का प्रमुख स्तंभ कार्यपालिका भी उन सामंती बाहुबलियों के सामने सिर झुकाती है। मौजूदा नौकरशाही में ग़लत के सामने सच बोलने का साहस नहीं रहा। मैंने देखा है कि अच्छे और ईमानदार अफसरों से सामंती प्रवृति वाले राजनेता भी ख़ौफ़ खाते थे। यदि उन्होंने एक बार फाइल पर लिख दिया कि अमुक मामला विधि सम्मत नहीं है तो फिर कोई उस फैसले में बदलाव नहीं कर सकता था। लेकिन आज देखने में आता है कि अफ़सर नेता के मनमाफ़िक़ नोट शीट लिखने और निर्णय लेने के लिए उतावले रहते हैं। उसके पीछे उनके अपने आर्थिक हित भी रहते हैं। प्रशासनिक रीढ़ कमज़ोर होने का बड़ा नुकसान लोकतंत्र को हुआ है। यह परिदृश्य आने वाले दिनों के लिए ख़तरे की घंटी इसलिए भी है क्योंकि इन सामंत जन प्रतिनिधियों के बेटे -बेटियाँ भी सियासत में उनके उत्तराधिकारी बन रहे हैं । वे लोकतंत्र के मायने नहीं समझते और न ही पढ़ते हैं। उनकी दृष्टि में असली लोकतांत्रिक प्रणाली वही है ,जो उन्होंने अपने पिता के व्यवहार में देखी है। इस तरहअगली पीढ़ी सामंतवाद का और विकराल तथा भयानक संस्करण उपस्थित करती है।

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