राजेश बादल
मंगलवार को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के बीच अब तक की सबसे महत्वपूर्ण बात होने जा रही है। यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ अत्यंत तनावपूर्ण बैठक के बाद ट्रंप ने उन्हें मानसिक रूप से एक तरह से घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है। अब चर्चा के सूत्र रूस और अमेरिका के हाथ में हैं।यदि इस बैठक के बाद रूस और यूक्रेन एक महीने का युद्ध विराम करने पर सहमत हो जाते हैं तो निश्चित रूप से यह महत्वपूर्ण घटना होगी। पर ,सवाल यह है कि ऐसा हो सकेगा ? सैद्धांतिक रूप से जेलेंस्की और पुतिन दोनों ने इस पर अपनी सहमति जताई है। पर ,रूस की अपनी कुछ शर्तें हैं और यही शर्तें युद्ध विराम तक पहुँचने में बाधा बन सकती हैं। मसलन रूस कहता है कि यूक्रेन को नाटो में शामिल होने की ज़िद छोड़ देनी चाहिए। पुतिन ऐसा आश्वासन नाटो देशों की तरफ़ से भी चाहते हैं। तर्क रखना हो तो कहा जा सकता है कि यह मुमकिन है।क्योंकि यदि नाटो देश यूक्रेन को सदस्यता देना ही चाहते तो अब तक रुके क्यों रहे ? पंद्रह बरस से यूक्रेन की अर्ज़ी को वे ठन्डे बस्ते में दबाए बैठे हैं और स्वीडन को रूस - यूक्रेन की जंग के दरम्यान ही मेम्बरशिप दे दी गई।
अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा उभरने से पहले तो एकबारगी यूक्रेन की सदस्यता आसान थी ,क्योंकि जो बाइडेन यूरोपीय यूनियन के साथ खड़े थे और खुलकर रूस के विरोध में थे। ट्रंप ने अपना दूसरा कार्यकाल सँभालते ही रूस के पक्ष में बयानबाज़ी शुरू कर दी थी।अब ट्रंप और यूरोपीय यूनियन के बीच मतभेद खुलकर सामने आ चुके हैं।इसलिए नाटो देशों के सामने असमंजस की स्थिति बन गई है। अब वे अमेरिका के सुर में सुर मिलाते हुए यूक्रेन को सदस्य नहीं बनाते तो प्रश्न उठता है कि तीन साल चली इस जंग का मतलब ही क्या रहा ? फिर ब्रिटेन की अगुआई में नाटो देशों के कुछ सदस्य यूक्रेन में अपने सैनिक भेजते हैं तो क्या वे रूस और अमेरिका से एक साथ मोर्चा लेने की स्थिति में हैं।हास्यास्पद स्थिति तो यह भी हो सकती है कि मंगलवार की शिखर वार्ता के बाद यूक्रेन यह वचन पत्र भर देता है कि वह अब उदासीन हो जाएगा और नाटो में अपनी सदस्यता का आवेदन वापस लेता है तो यूरोपीय राष्ट्र क्या करेंगे ?यह तो मैं पहले भी इस पन्ने पर अपने आलेखों में लिख चुका हूँ कि अंततः यूक्रेन ही लुटा - पिटा देश होगा। पहले वह यूरोपीय देशों और अमेरिका का खिलौना था। अब भी वह अमेरिका की कठपुतली बन जाएगा। थोड़ा थोड़ा अतीत में कोरिया युद्ध की तरह ,जब एक एक हिस्सा अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ ने अपने प्रभाव में ले लिया था।
वैसे ट्रंप के इस रवैए पर दो तरह की राय रखी जा सकती है। एक तो यह कि गुज़िश्ता साठ सत्तर वर्षों में अमेरिका के भरोसेमंद साथी रहे अन्य गोरे देशों की नाराज़गी ट्रंप ने क्यों मोल ली ? यदि यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध विराम कराना ही था तो गोरे देश उसका विरोध तो नहीं ही करते।फिर क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि ट्रंप अकेले ही जंग समाप्त कराने का श्रेय लेना चाहते हैं और यूक्रेन के संसाधनों को यूरोपीय देशों के साथ मिल बाँट कर खाने के बजाय अकेले अमेरिका का क़ब्ज़ा करना चाहेंगे। मरता क्या न करता वाले अंदाज़ में तो जेलेंस्की पहले ही अपने खनिज संसाधनों का पचास प्रतिशत अमेरिका को सौंपने पर सहमति दे चुके हैं।
दूसरा पेंच रूस के क़ब्ज़े में हज़ारों यूक्रेनी सैनिक युद्ध बंदियों का है। रूस जब तक यह सुनिश्चित नहीं कर लेता कि उसने यूक्रेन की कमर स्थायी तौर पर तोड़ दी है ,तब तक वह इन सैनिकों को रिहा नहीं करेगा। एक महीने के बाद भी वह इन कैदियों को नहीं छोड़ेगा। .प्रतीकात्मक रूप से भले ही वह कुछ सैनिकों को छोड़ दे। मगर यह सैनिक उसके पास तुरुप के पत्ते की तरह हैं। ट्रंप ने अपने एक ऐलान में कहा है कि उन्होंने पुतिन से इन सैनिकों की जान बख़्श देने का अनुरोध किया है। यह छिपा हुआ नहीं है कि पुतिन विरोधी सैनिकों को किस तरह यातना देकर मारते हैं। इसलिए शायद ट्रंप ने दूसरे विश्व युद्ध का उदाहरण देते हुए यूक्रेन को डराया कि इन सैनिकों का मारा जाना ऐसा नरसंहार होगा ,जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद कभी नहीं देखा गया। इसलिए रूस चाहेगा कि यूक्रेन के यह सैनिक लंबे समय तक उसकी हिरासत में रहें और जेलेंस्की यक़ीनन सैनिकों को सबसे पहले रिहा कराना चाहेंगे। यह कठिन स्थिति होगी कि यूक्रेन के हाथ से हारा हुआ भौगोलिक क्षेत्र भी निकल जाए , नाटो की सदस्यता भी नहीं मिले और उसके सैनिक भी रूस की क़ैद में बने रहें और वह भविष्य में रूस के बारे में न्यूट्रल रहने का वादा भी लिखित में कर दे। इसलिए महीने भर के लिए अस्थायी युद्ध विराम यूक्रेन के लिए पराजय से कम नहीं होगा। अलबत्ता जेलेंस्की को यूक्रेन के सियासी मंच से थोड़ा इज्ज़त के साथ विलुप्त होने का मौका मिल जाएगा। वे अपने देश में बेहद अलोकप्रिय हो चुके हैं। उनका कार्यकाल पूरा हो चुका है और युद्ध विराम के साथ ही यूक्रेन उनका एक ऐसा उत्तराधिकारी खोज ले ,जो रूस के इशारों पर नाचे। याने रूस और अमेरिका के बीच यूक्रेन का झूलते रहना उसकी नियति बन सकती है।
मंगलवार को यदि दोनों देश युद्ध विराम के किसी समझौते के निकट पहुँचते हैं तो ट्रंप के लिए निश्चित रूप से दूर की कौड़ी साबित हो सकता है। रूस चूँकि यूरोप और एशिया में बँटा हुआ है इसलिए डोनाल्ड ट्रंप एशिया में कारोबारी विस्तार की नए सिरे से संभावनाएँ खोज सकते हैं ।हाँ यह संभव है कि चीन को युद्ध विराम में अमेरिका की मध्यस्थता पसंद नहीं आए। लेकिन उसकी चिंता डोनाल्ड ट्रंप को क्यों करनी चाहिए ? रूस तो वैसे भी तात्कालिक हितों के मद्देनज़र चीन के निकट आए थे। अन्यथा उन्हें याद होना चाहिए कि कुछ द्वीपों पर स्वामित्व को लेकर चीन और रूस के भी जंग हो चुकी है।